Jeevan Dharm

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Thursday 31 August 2017

॥ यमुनाष्टकम् ॥

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(१)
नमामि यमुनामहं सकल सिद्धि हेतुं मुदा, मुरारि पद पंकज स्फ़ुरदमन्द रेणुत्कटाम।
तटस्थ नव कानन प्रकटमोद पुष्पाम्बुना, सुरासुरसुपूजित स्मरपितुः श्रियं बिभ्रतीम॥
(२)
कलिन्द गिरि मस्तके पतदमन्दपूरोज्ज्वला, विलासगमनोल्लसत्प्रकटगण्ड्शैलोन्न्ता।
सघोषगति दन्तुरा समधिरूढदोलोत्तमा, मुकुन्दरतिवर्द्धिनी जयति पद्मबन्धोः सुता॥
(३)
भुवं भुवनपावनीमधिगतामनेकस्वनैः, प्रियाभिरिव सेवितां शुकमयूरहंसादिभिः।
तरंगभुजकंकण प्रकटमुक्तिकावाकुका, नितन्बतटसुन्दरीं नमत कृष्ण्तुर्यप्रियाम॥
(४)
अनन्तगुण भूषिते शिवविरंचिदेवस्तुते, घनाघननिभे सदा ध्रुवपराशराभीष्टदे।
विशुद्ध मथुरातटे सकलगोपगोपीवृते, कृपाजलधिसंश्रिते मम मनः सुखं भावय॥
(५)
यया चरणपद्मजा मुररिपोः प्रियं भावुका, समागमनतो भवत्सकलसिद्धिदा सेवताम।
तया सह्शतामियात्कमलजा सपत्नीवय, हरिप्रियकलिन्दया मनसि मे सदा स्थीयताम॥
(६)
नमोस्तु यमुने सदा तव चरित्र मत्यद्भुतं, न जातु यमयातना भवति ते पयः पानतः।
यमोपि भगिनीसुतान कथमुहन्ति दुष्टानपि, प्रियो भवति सेवनात्तव हरेर्यथा गोपिकाः॥
(७)
ममास्तु तव सन्निधौ तनुनवत्वमेतावता, न दुर्लभतमारतिर्मुररिपौ मुकुन्दप्रिये।
अतोस्तु तव लालना सुरधुनी परं सुंगमात्तवैव, भुवि कीर्तिता न तु कदापि पुष्टिस्थितैः॥
(८)
स्तुति तव करोति कः कमलजासपत्नि प्रिये, हरेर्यदनुसेवया भवति सौख्यमामोक्षतः।
इयं तव कथाधिका सकल गोपिका संगम, स्मरश्रमजलाणुभिः सकल गात्रजैः संगमः॥
(९)
तवाष्टकमिदं मुदा पठति सूरसूते सदा, समस्तदुरितक्षयो भवति वै मुकुन्दे रतिः।
तया सकलसिद्धयो मुररिपुश्च सन्तुष्यति, स्वभावविजयो भवेत वदति वल्लभः श्री हरेः॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥

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मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

भावार्थ : रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

भावार्थ : आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

भावार्थ : आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

भावार्थ : आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

भावार्थ : जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

भावार्थ : आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

भावार्थ : आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

भावार्थ : आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

भावार्थ : अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

भावार्थ : आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

भावार्थ : हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

॥ राधा चालीसा ॥

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॥ दोहा ॥

श्री राधे वृषभानुजा, भक्तिन प्राणाधार।
वृन्दाविपिन विहारिणी, प्रणवौं बारंबार॥ कृष्णा

जैसो तैसो रावरौ, कृष्ण प्रिया सुखधाम।
चरण शरण निज दीजिये, सुन्दर सुखद ललाम॥

॥ चौपाई ॥

जय वृषभानु कुँवरि श्री श्यामा, कीरति नंदिनी शोभा धामा॥ (१)

नित्य बिहारिनि श्याम अधारा, अमित मोद मंगल दातारा॥ (२)

रास विलासिनि रस विस्तारिनि, सहचरि सुभग यूथ मन भावनि॥ (३)

नित्य किशोरी राधा गोरी, श्याम प्राण धन अति जिय भोरी॥ (४)

करुणा सागर हिय उमंगिनि, ललितादिक सखियन की संगिनी॥ (५)

दिनकर कन्या कूल विहारिनि, कृष्ण प्राण प्रिय हिय हुलसावनि॥ (६)

नित्य श्याम तुमरौ गुण गावैं, राधा राधा कहि हरषावैं॥ (७)

मुरली में नित नाम उचारें, तुम कारण लीला वपु धारें॥ (८)

प्रेम स्वरूपिणि अति सुकुमारी, श्याम प्रिया वृषभानु दुलारी॥ (९)

नवल किशोरी अति छवि धामा, धुति लघु लगै कोटि रति कामा॥ (१०)

गोरांगी शशि निंदक बदना, सुभग चपल अनियारे नयना॥ (११)

जावक युत युग पंकज चरना, नुपूर धुनि प्रीतम मन हरना॥ (१२)

संतत सहचरि सेवा करहीं, महा मोद मंगल मन भरहीं॥ (१३)

रसिकन जीवन प्राण अधारा, राधा नाम सकल सुख सारा॥ (१४)

अगम अगोचर नित्य स्वरूपा, ध्यान धरत निशिदिन ब्रज भूपा॥ (१५)

उपजेउ जासु अंश गुण खानी, कोटिन उमा रमा ब्रह्मानी॥ (१६)

नित्य धाम गौलोक विहारिनि, जन रक्षक दुख दोष नसावनि॥ (१७)

शिव अज मुनि सनकादिक नारद, पार न पायँ शेष अरु शारद॥ (१८)

राधा शुभ गुण रूप उजारी, निरखि प्रसन्न होत बनवारी॥ (१९)

ब्रज जीवन धन राधा रानी, महिमा अमित न जाय बखानी॥ (२०)

प्रीतम संग देइ गलबाँही, बिहरत नित्य वृन्दावन माँही॥ (२१)

राधा कृष्ण कृष्ण कहैं राधा, एक रूप दोउ प्रीत अगाधा॥ (२२)

श्री राधा मोहन मन हरनी, जन सुख दायक प्रफ़ुलित बदनी॥ (२३)

कोटिक रूप धरें नंद नंन्दा, दर्श करन हित गोकुल चन्दा॥ (२४)

रास केलि करि तुम्हें रिझावें, मान करौ जब अति दुख पावें॥ (२५)

प्रफ़ुलित होत दर्श जब पावें, विविध भाँति नित विनय सुनावें॥ (२६)

वृन्दारण्य विहारिनि श्यामा, नाम लेत पूरण सब कामा॥ (२७)

कोटिन यज्ञ तपस्या करहू, विविध नेम ब्रत हिय में धरहू॥ (२८)

तऊ न श्याम भक्तहिं अपनावें, जब लगि राधा नाम न गावें॥ (२९)

वृन्दाविपिन स्वामिनि राधा, लीला वपु तब अमित अगाधा॥ (३०)

स्वयं कृष्ण पावैं नहिं पारा, और तुम्हैं को जानन हारा॥ (३१)

श्री राधा रस प्रीति अभेदा, सादर गान करत नित वेदा॥ (३२)

राधा त्यागि कृष्ण को भजि हैं, ते सपनेहुं जग जलधि न तरि हैं॥ (३३)

कीरति कुँवरि लाड़िली राधा, सुमिरत सकल मिटहिं भव बाधा॥ (३४)

नाम अमंगल मूल नसावन, त्रिविध ताप हर हरि मनभावन॥ (३५)

राधा नाम लेय जो कोई, सहजहिं दामोदर बस होई॥ (३६)

राधा नाम परम सुखदाई, भजतहिं कृपा करहिं यदुराई॥ (३७)

यशुमति नन्दन पीछे फ़िरिहैं, जो कोउ राधा नाम सुमिरिहैं॥ (३८)

रास विहारिनि श्यामा प्यारी, करहु कृपा बरसाने वारी॥ (३९)

वृन्दावन है शरण तिहारी, जय जय जय वृषभानु दुलारी॥ (४०)

॥ दोहा ॥

श्री राधा सर्वेश्वरी, रसिकेश्वर घनश्याम।
करहुँ निरन्तर वास मैं, श्री वृन्दावन धाम॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥