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Tuesday, 22 May 2018

पुतली-तंत्र (क्रमांक १) सम्पूर्ण अभिचार रहस्य और विधि (विष एवं अमृत स्थान)

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पुतली-तंत्र (क्रमांक १) सम्पूर्ण अभिचार रहस्य और विधि (विष एवं अमृत स्थान)
किया-कराया; जादू-टोना; काला-जादू

किसी व्यक्ति के शरीर की डमी पुतली बना कर, उसकी प्राण प्रतिष्ठा करके अभिचार की सभी षट्कर्म करने की क्रिया को भारतीय तंत्र में पुतली तंत्र कहा जाता है, पर यही विद्द्या कुछ परिवर्तनों के साथ अफ्रीका में “वुडू” के नाम से जानी जाती है. यह बेहद रहस्यमय और जटिल विद्द्या है और इस सम्बन्ध में बड़े तांत्रिक आचार्यों ने भी केवल बाहरी बात ही बताई है. अनेक ने स्वीकार किया है की वे इस रहस्यमय विद्द्या के बारे में अधिक नहीं जानते.



जब मैं तंत्र के रहस्यमय जगत को जानने के लिए भटक रहा था, आसाम के एक दुर्गम इलाके में कुछ अनपढ़ लोगों से जानकारी मिली कि एक स्थानीय आदिवासी पुतली बना कर प्रयोग करता है. उससे मिलने पर, उसने कुछ भी बताने से साफ़ इंकार कर दिया, क्योंकि उसके गुरु ने मना किया था. बहुत मनाने पर वह अपने गुरु के पास ले गया. वे एक नंग धरंग कोपीन पहनने वाले साधू थे. उनको मनाने में पूरा दिन निकल गया, क्योकि वे इसे बहुत खतरनाक विद्द्या बता रहे थे. फिर कुछ शर्तों पर प्रयोग सिखाने पर राजी हुए. जब यह आश्वासित हो गए कि इसका दुरूपयोग नहीं होगा.

यह प्रयोग कोई साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता. वह आदिवासी भी एक ही काम जानता था और उसे इसकी विशालता और रहस्य का कोई ज्ञान नहीं था. इस प्रयोग के द्वारा हर प्रकार के अभिचार कर्म किये जा सकतें हैं. पर इसमें पूरा तकनिकी ज्ञान प्रयुक्त होता है.

शरीर में विषों का स्थान

१ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक –  ह्रदय, स्तन, कंठ, नाक, आँख, कान, भृकुटी-मध्य, मूर्धा-मध्य, शंख-मध्य. इस समय इन स्थानों से विषों की उत्त्पत्ति होती है और यह ऊपर की ओर गतिमान होता है.

२ शुक्ल दशमी से कृष्ण नवमी तक – भ्रूमध्य, शंखमध्य, कान, आँख, नाक, कंठ, स्तन, ह्रदय, नाभि, गुदामार्ग, जांघों की संधि, घुटने, पावों, पर का ऊपरी भाग, बांये पैर का अंगूठा, बाया पैर. इस काल में यहाँ विष उत्त्पन्न होता है और नीचे की और चलता है.

३ कृष्ण दशमी से अमावस्या तक – दाहिने पैर का अंगूठा, दायाँ पैर, पिंडली, घुटने, नाभि, लिंग या योनि, इस समय इन स्थानों से विष की उत्त्पत्ति होती है. इसकी गति वर्तुलाकार होती है.

विशेष – स्त्रियों में, जहाँ भी बांया-दांया लिखा है उसे उल्टा समझना चाहिए.

शरीर में अमृत का स्थान

१ पुरूष में दांये से – (शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक) – अंगूठा, पैर, पीठ, कुहनी, घुटना, लिंग, नाभि, ह्रदय, स्तन, गला, नाक, कान, नाक, आँख, भों, कनपट्टी, कपोल, मूर्धा. इन तिथियों में यहाँ अमृत उत्त्पन्न होता है.

२ नारी में बाएं से – यही क्रम नारी में शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक बांये से दांये होता है.

3  कृष्ण प्रतिप्रदा से अमावस्या तक – (पुरूष में) ऊपर के क्रम का उल्टा यानी मूर्द्धा से नीचे की ओर.

४ कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक – (नारी में) उपर से नीचे उल्टा.

यानी शुक्ल प्रतिपदा से पुरूष के दायें अंगूठे से उपर की और नारी में बांये अंगूठे से उपर की ओर. फिर कृष्ण प्रतिपदा से पुरूष में उपर से बाएं होते बांये अंगूठे तक और नारी में दांये होते दांये अंगूठे तक सारे अभिचार कर्मों, तांत्रिक न्यास, तन्त्र अनुष्ठान से रोग निवारण, किया कराया निवारण में इस ज्ञान का प्रयोग होता है. यह कितना कठिन है, यह देख सकतें हैं, पर जब लोग कहते हैं की किया कराया के निदान का उपाय बताइए, तो उनको उत्तर देने में मैं किस कठिनाई में फंस जाता हूँ यह कोई भी समझ सकता है. यह सारा विज्ञान मैं कैसे समझाऊ? वे बाजारू तांत्रिकों से प्रभावित होते हैं कि हाथ हिला कर सब कुछ किया जा सकता है. मैं जाने कितने पोस्ट कर चूका हूँ कि लोग इस अंध आस्था से बाहर निकलें कि घंटों में चमत्कार हो जाएगा, और बस मन्त्र पढो हड्डी फेरो से हो जाएगा, यह नहीं होता; पर वे मुझे ही ज्ञान देने लगते हैं, मैं हंसता हूँ, क्योंकि यह मेरा पेशा नहीं है. वास्तविक विद्द्या को बताना हमारा उदेश्य है, ताकि लोग कुछ लाभ स्वयं भी उठा सकें और ठगों से बच सकें. पर कहतें हैं कि हैं कि पतंगों को समझाया नहीं जा सकता.

आगे क्रमांक २ एवं ३ में ही इस सारे प्रयोग का विधिवत वर्णन हो सकता है. विषय विस्तार बहुत अधिक है, पर हर एक साधक एवं पूजा करने वाले वास्तविक आचार्य, शिष्यों का अभिषेक करने एवं न्यास करने वाले गुरु को इस विज्ञानं को गहराई से जानना चाहिए. यह केवल पुतली विद्द्या में नहीं, समस्त विद्द्याओं में और गृहस्थ जीवन में भी क्रांति लाने वाला विज्ञान है.



Ruchi Sehgal

पुतली तंत्र (क्रमांक २) श्वांसों का विज्ञान – शरीर के मर्म स्थान

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पुतली तंत्र (क्रमांक २) श्वांसों का विज्ञान – शरीर के मर्म स्थान
किया-कराया; जादू-टोना; काला-जादू

पुतली तंत्र में दूसरा महत्वपूर्ण स्थान श्वांसों की गति का है. यहाँ यह जानना समीचीन होगा कि ये जानकारियां सभी मार्ग और विधि में आवश्यक होतीं हैं, जब हम अभिचार कर्म करते हैं.



श्वांसों की वाम एवं दक्षिण गति

हमारी दो नासिकाएँ हैं. हम दोनों से श्वांस लेते रहते हैं, मगर हमें ज्ञात नहीं होता कि सूर्य और चन्द्रमा के संतुलन और समीकरण से दोनों नासिकाओं का समीकरण बदलता रहता है. वस्तुत: हम एक समय में एक ही नासिका से श्वांस लेते हैं. दूसरी इतनी धीमी होती है कि उसे नगण्य ही कहा जा सकता है.

तंत्र की गणना के अनुसार, ३६० श्वांसों की एक नाडी होती है. ६० नाडी का एक दिन + रात होता है. फिर दूसरा दिन शुरू हो जाता है. यह क्रम चलता ही रहता है. इस प्रकार एक दिन रात में श्वासों की संख्या २१६०० होती है. श्वांसों में कभी बांयी नासिका तेज होती है, कभी दांयी. एक निष्क्रिय सी बनी रहती है. इसमें केवल ८० श्वांस प्रति दिन प्रात: सायं समभाव से दोनों नासिकाओं से चलतीं हैं. इसी लिए यह समय जप-ध्यान के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है.

श्वांसों का यह परिवर्तन नक्षत्र, राशि, भोगोलिक अक्षांश, आदि के कारण होता है. इसे प्रत्यक्ष अनुभूत किया जा सकता है और उन जड़ बुद्धियों को प्रमाण मिल सकता है, जो ज्योतिष को तीर तुक्का समझते हैं.

चन्द्र नाडी के समय बांयी नासिका और सूर्य नाडी के समय दांयी नासिका से श्वांस चलती है. दोनों पक्षों में सूर्य एवं चन्द्र की संक्रांति दस-दस बार होती है. इस सक्रांति काल में दोनों नासिका से स्वांस चलती है.

शुक्ल पक्ष की १, २, ३, ७, ८, ९, १३, १४, १५ का सूर्योदय काल चन्द्र नाडी में, शेष तिथि का सूर्य नाडी में होता है, जो समय के निश्चित अंतराल पर बदलता रहता है, कृष्ण पक्ष में उल्टा होता है. यह गणना सभी चर-अचर इकाइयों पर लागू है, उसकी अपनी उर्जा संरचना के अनुसार; क्योंकि श्वांस सभी लेते हैं, परमाणु तक (पृथ्वी नामक ग्रह के लिए)

शरीर के रहस्यमय मर्मस्थान

दो अंगूठे, दो घुटने, दो जंघाएँ, दायें बांये दो पीठ, दो उरू, एक सिवनी, एक गुदा, एक लिंग या योनि, दो पार्श्व, एक ह्रदय, दो स्तन, एक कंठ, दो कंधे, दो भृकुटी, दो कान, दो कनपट्टी, दो फाल, दो नासिकाएं, दो आँखें, दो कपाल – ये ३८ मर्म स्थान है.

ये मर्म स्थान सिद्ध होने पर अलौकिक शक्तियों को देने वाले हैं. परकाया प्रवेश की क्रिया में भी इनकी सिद्धि की आवश्यकता होती है; पर ये मारक स्थान भी हैं. इन पर अभिचार करके सभी प्रकार के रोगों को  दूर किया जा सकता है, अभिषेक करके गुरु शक्ति दान किया जा सकता है; पर इन्ही पर समस्त भयानक अभिचार कर्म भी किया जाता है. इन क्रियाओं में साध्य की गणना होती है, अपनी नहीं. अपनी गणना सिद्धि कार्यों में की जाती है.

इनके ज्ञान के बिना कोई भी अभिचार कर्म ढकोसला है. आचार्य को इन तमाम रहस्यों का ज्ञान होना चाहिए, चाहे वह अनपढ़ ही क्यों न हो.

शरीर में उर्जा प्रवाह की गति

यह एक गुप्त जानकारी है. इसे डिटेल में बताना संभव नहीं है, पर कुछ अनुभूत करने वाली जानकारी आवश्यक है. अंगूठों का सम्बन्ध आंत से, तलवों का मष्तिष्क से, गुदा का नासिका से और सर के चाँद से, लिंग या योनी का रीढ़ की तीनों मुख्य नाड़ियों से, अनामिकाओं का ह्रदय से, माध्यम का रीढ़ और मूलाधार से, तर्जनी का नासिका से, कनिष्ठिका का कंठ से होता है.

ये सभी जानकारियां न केवल अभिचार कर्म में, बल्कि तंत्र न्यास, तन्त्रभिशेक, गुरु दीक्षा, सभी प्रकार की साधनाओं, ध्यानयोग आदि के प्रैक्टिकल में होनी जरूरी हैं, वर्ना सभी ऊपरी रह जायेंगे



Ruchi Sehgal