Jeevan Dharm

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Friday 26 January 2018

तिजोरी में क्या रखे क्या ना रखे

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तिजोरी में क्या रखे क्या ना रखे 

Tijori me kya rakhe kya nahi




शास्त्रों के अनुसार धन , आभूषण को सदैव एक नियत स्थान पर तिजोरी , अलमारी आदि में रखना चाहिए । मान्यता है कि यदि तिजोरी , धन धन स्थान पर कुछ शुभ वस्तुएं रखें तो माँ लक्ष्मी की सदैव कृपा बनी रहती है । इस बात का भी ध्यान रहे कि तिजोरी में ऐसा कुछ भी ना रखा जाय जिससे धन के आगमन में बाधा उत्पन्न हो । जानिए तिजोरी में क्या रखे और क्या नहीं रखना चाहिए ।

 तिजोरी ( Tijori ) में लाल रंग का कपड़ा बिछाना शुभ रहता है । तिजोरी में रोज़ सुबह शाम धूप,अगरबत्ती अवश्य दिखानी चाहिए ।

तिजोरी ( Tijori ) में शुभ यंत्र जैसे श्रीयंत्र, व्यापार वृद्धि यंत्र, महालक्ष्मी यंत्र, बीसा यंत्र या हत्था जोड़ी की लाल कपडे अथवा चाँदी की प्लेट में स्थापना करने से शुभता बनी रहती है। इन्हें रोज़ धूप अगरबत्ती अवश्य ही दिखाते रहे।

तिजोरी ( Tijori ) में पाँच कौड़ियाँ, पांच कमलगट्टे तथा 5 साबुत हल्दी की गांठें भी अवश्य रखनी चाहिए।

कुछ नोटों में चंदन का इत्र लगाकर उन्हें अपनी तिजोरी में रखे इससे तिजोरी में बरकत बनी रहती है , घर में सुख -समृद्धि बनी रहती है

मोर पंख लेकर उसमें अच्छा गुलाब का इत्र लगाएं। उसके बाद इस मोर पंख को साफ सफेद रेशमी वस्त्र में बांधकर / लपेटकर तिजोरी में रख दें, इस उपाय को करने से तिजोरी कभी भी खाली नहीं होती है।

एक मोती शंख कोे तिलक करके लाल वस्त्र में बांधकर तिजोरी में रख दें। इससे घर में धन की बरकत बनी रहेगी।


अपनी तिजोरी पर स्वास्तिक का चिन्ह भी अवश्य ही अंकित करवाएं, क्योंकि स्वास्तिक के चिन्ह से लक्ष्मी माता प्रसन्न होती हैं और उनकी कृपा से घर , कारोबार में धन की कोई भी कमी नहीं रहती है ।


तिजोरी ( Tijori ) के अंदर के दरवाज़े पर शीशा जरूर लगाएं जिसमें तिजोरी खोलते समय अंदर के धन का प्रतिबिम्ब भी नज़र आता रहे, इससे वृद्धि होती है ।

सभी शुभ मुहूर्तों विशेषकर हर माह के पुष्य नक्षत्र, नवरात्री,धनतेरस, दीपावली आदि में धन स्थान की पूजा निश्चित रूप से करनी चाहिए ।

मार्गशीर्ष महीने में प्रत्येक बृहस्पतिवार और शुक्रवार को भी तिजोरी की पूजा जरूर करनी चाहिए।

Friday 19 January 2018

मनुष्य की आयु घटाने व बढ़ाने वाले कर्म

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मनुष्य की आयु घटाने व बढ़ाने वाले कर्म



हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों के अनुसार हम मनुष्यों की आयु लगभग 100 वर्ष या उससे अधिक मानी गयी है लेकिन वर्तमान समय में हमारे रहन सहन, विचारों, कर्मों के कारण हमारी आयु में लगातार कमी आती जा रही है। हम अपनी आयु को बढ़ाने, निरोगी रहने के तमाम प्रयत्न भी करते है लेकिन ज्यादातर लोगो को इसमें असफलता ही हाथ लगती है ।

इसका प्रमुख कारण हमारे द्वारा रोज किए जाने वाले कुछ ऐसे कार्य हैं, जो शास्त्रों में बिलकुल निषेध है। महाभारत के अनुशासव पर्व में मनुष्य की आयु को घटाने व बढ़ाने वाले हमारे कर्मों के बारे में पूरे विस्तार से बताया गया है।ये महत्वपूर्ण बातें भीष्म पितामाह जी ने युधिष्ठिर जी को बताई थी।

 भीष्म पितामह के अनुसार जो व्यक्ति धर्म को नहीं मानते है नास्तिक है, कोई भी कार्य नहीं करते है, अपने गुरु और शास्त्र की आज्ञा का पालन नहीं करते है, व्यसनी, दुराचारी होते है उन मनुष्यों की आयु स्वत: कम हो जाती है। जो मनुष्य दूसरे जाति या धर्म की स्त्रियों से संसर्ग करते हैं, उनकी भी मृत्यु जल्दी होती है।

जो मनुष्य व्यर्थ में ही तिनके तोड़ता है, अपने नाखूनों को चबाता है तथा हमेशा गन्दा रहता है , उसकी भी जल्दी मृत्यु हो जाती है। जो व्यक्ति उदय, अस्त, ग्रहण एवं दिन के समय सूर्य की ओर अनावश्यक देखते है उनकी मृत्यु भी कम आयु में ही हो जाती है।यह बहुत ही छोटी छोटी बातें है जिनका हमें अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए ।

 शास्त्रों के अनुसार हम सभी मनुष्यों को मंजन करना,नित्य क्रिया से निवृत होना, अपने बालों को संवारना, और देवताओं कि पूजा अर्चना ये सभी कार्य दिन के पहले पहर में ही अवश्य कर लेने चाहिए। जो मनुष्य सूर्योदय होने तक सोता है तथा ऐसा करने पर प्रायश्चित भी नहीं करता है,जो ये समस्त कार्य अपने निर्धारित समय पर नहीं करते, जो पक्षियों से हिंसा करते है वे भी शीघ्र ही काल के ग्रास बन सकते हैं।

शौच के समय अपने मल-मूत्र की ओर देखने वाले, अपने पैर पर पैर रखने वाले, माह कि दोनों ही पक्षों की चतुर्दशी,अष्टमी,अमावस्या व पूर्णिमा के दिन स्त्री से संसर्ग करने वाले व्यक्तियों कि अल्पायु होती है।अत: हमें इनसे अवश्य ही बचना चाहिए ।

सदैव ध्यान दें कि भूसा, कोई भी भस्म, किसी के भी बाल और मुर्दे की हड्डियों,खोपड़ी पर कभीभी न बैठें। दूसरे के नहाने में उपयोग किये हुए जल का कभी भी किसी भी रूप में प्रयोग न करें। भोजन सदैव बैठकर ही करे। जहाँ तक सम्भव हो खड़े होकर पेशाब न करें। किसी भी ,राख तथा गोशाला में भी मल, मूत्र-त्याग न करें। भीगे पैर भोजन तो करें लेकिए भीगे पैर सोए नहीं। उक्त सभी बातों का ध्यान में रखने वाला वाला मनुष्य सौ वर्षों तक जीवन धारण करता है।

जो मनुष्य सूर्य, अग्नि, गाय तथा ब्राह्णों की ओर मुंह करके और बीच रास्ते में मूत्र त्याग करते हैं, उन सब की आयु कम हो जाती है।

 मैले, टूटे और गन्दे दर्पण में मुंह देखने वाला, गर्भवती स्त्री के साथ सम्बन्ध बनाने वाला,उत्तर और पश्चिम की ओर सर करके सोने वाला, टूटी, ढीली और गन्दी खाट / पलंग पर सोने वाला, किसी कोने ,अंधेरे में पड़े पलंग, चारपाई पर सोने वाला मनुष्य कि आयु अवश्य ही कम हो जाती है।


Thursday 18 January 2018

श्रीधनलक्ष्मीस्तोत्रम्

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श्रीधनलक्ष्मीस्तोत्रम् ॥
श्रीधनदा उवाच-
देवी देवमुपागम्य नीलकण्ठं मम प्रियम् ।
कृपया पार्वती प्राह शङ्करं करुणाकरम् ॥ १॥
श्रीदेव्युवाच-
ब्रूहि वल्लभ साधूनां दरिद्राणां कुटुम्बिनाम् ।
दरिद्र-दलनोपायमञ्जसैव धनप्रदम् ॥ २॥
श्रीशिव उवाच-
पूजयन् पार्वतीवाक्यमिदमाह महेश्वरः ।
उचितं जगदम्बासि तव भूतानुकम्पया ॥ ३॥
ससीतं सानुजं रामं साञ्जनेयं सहानुगम् ।
प्रणम्य परमानन्दं वक्ष्येऽहं स्तोत्रमुत्तमम् ॥ ४॥
धनदं श्रद्दधानानां सद्यः सुलभकारकम् ।
योगक्षेमकरं सत्यं सत्यमेव वचो मम ॥ ५॥
पठन्तः पाठयन्तोऽपि ब्राह्मणैरास्तिकोत्तमैः ।
धनलाभो भवेदाशु नाशमेति दरिद्रता ॥ ६॥
भूभवांशभवां भूत्यै भक्तिकल्पलतां शुभाम् ।
प्रार्थयेत्तां यथाकामं कामधेनुस्वरूपिणीम् ॥ ७॥
धर्मदे धनदे देवि दानशीले दयाकरे ।
त्वं प्रसीद महेशानि! यदर्थं प्रार्थयाम्यहम् ॥ ८॥
धरामरप्रिये पुण्ये धन्ये धनदपूजिते ।
सुधनं धार्मिकं देहि यजमानाय सत्वरम् ॥ ९॥  var   यजनाय सुसत्वरम्
रम्ये रुद्रप्रिये रूपे रामरूपे रतिप्रिये ।
शिखीसखमनोमूर्त्ते प्रसीद प्रणते मयि ॥ १०॥  var   शशिप्रभमनोमूर्ते
आरक्त-चरणाम्भोजे सिद्धि-सर्वार्थदायिके ।  var   सिद्धसर्वाङ्गभूषिते
दिव्याम्बरधरे दिव्ये दिव्यमाल्योपशोभिते ॥ ११॥
समस्तगुणसम्पन्ने सर्वलक्षणलक्षिते ।
(अधिकपाठ. जातरूपमणीन्द्वादि-भूषिते भूमिभूषिते ।)
शरच्चन्द्रमुखे नीले नील-नीरज-लोचने ॥ १२॥
चञ्चरीकचमू-चारु-श्रीहार-कुटिलालके ।
मत्ते भगवति मातः कलकण्ठरवामृते ॥ १३॥  var   मुखामृते
हासावलोकनैर्दिव्यैर्भक्तचिन्तापहारिके ।
रूप-लावण्य-तारूण्य-कारूण्य-गुणभाजने ॥ १४॥
क्वणत्कङ्कणमञ्जीरे लसल्लीलाकराम्बुजे ।
रुद्रप्रकाशिते तत्त्वे धर्माधारे धरालये ॥ १५॥
प्रयच्छ यजमानाय धनं धर्मैकसाधनम् ।
मातस्त्वं मेऽविलम्बेन दिशस्व जगदम्बिके ॥ १६॥  var   मातर्मे मावि
कृपया करुणागारे प्रार्थितं कुरु मे शुभे ।
वसुधे वसुधारूपे वसु-वासव-वन्दिते ॥ १७॥
धनदे यजमानाय वरदे वरदा भव ।  var   यजनायैव
ब्रह्मण्यैर्ब्राह्मणैः पूज्ये पार्वतीशिवशङ्करे ॥ १८॥  var   ब्रह्मण्ये ब्राह्मणे
स्तोत्रं दरिद्रताव्याधिशमनं सुधनप्रदम् ।
श्रीकरे शङ्करे श्रीदे प्रसीद मयि किङ्करे ॥ १९॥
पार्वतीशप्रसादेन सुरेश-किङ्करेरितम् ।
श्रद्धया ये पठिष्यन्ति पाठयिष्यन्ति भक्तितः ॥ २०॥
सहस्रमयुतं लक्षं धनलाभो भवेद् ध्रुवम् ।
धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च ।
भवन्तु त्वत्प्रसादान्मे धन-धान्यादिसम्पदः ॥ २१॥

॥ इति श्रीधनलक्ष्मीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥



Ruchi Sehgal

धंवंतरिस्त्रोतम

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धन्वन्तरिस्तोत्रम् ॥

ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय,
सर्वामयविनाशनाय, त्रैलोक्यनाथाय श्रीमहाविष्णवे नमः ॥

चन्द्रौघकान्तिममृतोरुकरैर्जगन्ति
सञ्जीवयन्तममितात्मसुखं परेशम् ।
ज्ञानं सुधाकलशमेव च सन्दधानं
शीतांशुमण्डलगतं स्मरतात्मसंस्थम् ॥

मूर्ध्नि स्थितादमुत एव सुधां स्रवन्तीं
भ्रूमध्यगाच्च तत एव च तानुसंस्थात् ।
हार्दाच्च नाभिसदनादधरस्थिताच्च
ध्यात्वाभिपूरिततनुः दुरितं निहन्यात् ॥

अज्ञान-दुःख-भय-रोग-महाविषाणि
योगोऽयमाशु विनिहन्ति सुखं च दद्यात् ।
उन्माद-विभ्रमहरः हरतश्च सान्द्र-
मानन्दमेव पदमापयति स्म नित्यम् ॥

ध्यात्वैव हस्ततलगं स्वमृतं स्रवन्तं
एवं स यस्य शिरसि स्वकरं निधाय ।
आवर्तयेन्मनुमिमं स च वीतरोगः
पापादपैति मनसा यदि भक्तिनम्रः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

दीर्घ-पीवर-दोर्दण्डः, कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः ।
श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः ॥

पीतवासा महोरस्कः, सुमृष्टमणिकुण्डलः ।
नीलकुञ्चितकेशान्तः, सुभगः सिंहविक्रमः ॥
var  स्निग्धकुञ्चित Bhagavatam 8.8.34

अमृतस्य पूर्णकलशं बिभ्रद्वलयभूषितः।
स वै भगवतः साक्षाद् विष्णोरंशांशसम्भवः ।
धन्वन्तरिरिति ख्यातः आयुर्वेददृगित्यभाक् ।
एवं धन्वन्तरिं ध्यायेत् साधकोऽभीष्टसिद्धये ॥

ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय,
सर्वामयविनाशनाय, त्रैलोक्यनाथाय श्रीमहाविष्णवे नमः ॥

धन्वन्तरिङ्गरुचिधन्वन्तरेरितरुधन्वंस्तरीभवसुधा
धान्वन्तरावसथमन्वन्तराधिकृतधन्वन्तरौषधनिधे ।
धन्वन्तरंगशुगुधन्वन्तमायिषु वितन्वन् ममाब्धितनय
सून्वन्ततात्मकृततन्वन्तरावयवतन्वन्तरार्तिजलधौ ॥

धन्वन्तरिश्च भगवान् स्वयमास देवो  var  स्वयेमेव कीर्तिः
नाम्ना नृणां पुरुरुजां रुज आशु हन्ति ।
यज्ञे च भागममृतायुरवाप चार्धा  var  रवावरुन्ध
आयुष्यवेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके ॥

Bhagavatam 2.7.21

क्षीरोदमथनोद्भूतं दिव्यगन्धानुलेपिनम् ।
सुधाकलशहस्तं तं वन्दे धन्वन्तरिं हरिम् ॥

शरीरे जर्जरीभूते व्याधिग्रस्ते कलेवरे ।
औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः ॥

अयं मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः ।
अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्षणः ॥

अच्युतानन्त-गोविन्द-विष्णो नारायणामृत ।
रोगान्मे नाशयाशेषान् आशु धन्वन्तरे हरे ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय,
सर्वामयविनाशनाय, त्रैलोक्यनाथाय श्रीमहाविष्णवे नमः ॥

इति धन्वन्तरिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।



Ruchi Sehgal

अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरिस्तोत्रम्

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अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरिस्तोत्रम् ॥

नमो नमो विश्वविभावनाय
       नमो नमो लोकसुखप्रदाय ।
नमो नमो विश्वसृजेश्वराय
       नमो नमो नमो मुक्तिवरप्रदाय ॥ १॥

नमो नमस्तेऽखिललोकपाय
       नमो नमस्तेऽखिलकामदाय ।
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
       नमो नमस्तेऽखिलरक्षकाय ॥ २॥

नमो नमस्ते सकलार्त्रिहर्त्रे
       नमो नमस्ते विरुजः प्रकर्त्रे ।
नमो नमस्तेऽखिलविश्वधर्त्रे
       नमो नमस्तेऽखिललोकभर्त्रे ॥ ३॥

सृष्टं देव चराचरं जगदिदं ब्रह्मस्वरूपेण ते
       सर्वं तत्परिपाल्यते जगदिदं विष्णुस्वरूपेण ते ।
विश्वं संह्रियते तदेव निखिलं रुद्रस्वरूपेण ते
       संसिच्यामृतशीकरैर्हर महारिष्टं चिरं जीवय ॥ ४॥

यो धन्वन्तरिसंज्ञया निगदितः क्षीराब्धितो निःसृतो
       हस्ताभ्यां जनजीवनाय कलशं पीयूषपूर्णं दधत् ।
आयुर्वेदमरीरचज्जनरुजां नाशाय स त्वं मुदा
       संसिच्यामृतशीकरैर्हर महारिष्टं चिरं जीवय ॥ ५॥

स्त्रीरूपं वरभूषणाम्बरधरं त्रैलोक्यसंमोहनं
       कृत्वा पाययति स्म यः सुरगणान्पीयूषमत्युत्तमम् ।
चक्रे दैत्यगणान् सुधाविरहितान् संमोह्य स त्वं मुदा
       संसिच्यामृतशीकरैर्हर महारिष्टं चिरं जीवय ॥ ६॥

चाक्षुषोदधिसम्प्लाव भूवेदप झषाकृते ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ ७॥

पृष्ठमन्दरनिर्घूर्णनिद्राक्ष कमठाकृते ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ ८॥

धरोद्धार हिरण्याक्षघात क्रोडाकृते प्रभो ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ ९॥

भक्तत्रासविनाशात्तचण्डत्व नृहरे विभो ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ १०॥

याञ्चाच्छलबलित्रासमुक्तनिर्जर वामन ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ ११ ॥
क्षत्रियारण्यसञ्छेदकुठारकररैणुक ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ १२॥

रक्षोराजप्रतापाब्धिशोषणाशुग राघव ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ १३॥

भूभरासुरसन्दोहकालाग्ने रुक्मिणीपते ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ १४॥

वेदमार्गरतानर्हविभ्रान्त्यै बुद्धरूपधृक् ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ १५॥

कलिवर्णाश्रमास्पष्टधर्मर्द्द्यै कल्किरूपभाक् ।
सिञ्च सिञ्चामृतकणैः चिरं जीवय जीवय ॥ १६॥

असाध्याः कष्टसाध्या ये महारोगा भयङ्कराः ।
छिन्धि तानाशु चक्रेण चिरं जीवय जीवय ॥ १७ ॥

अल्पमृत्युं चापमृत्युं महोत्पातानुपद्रवान् ।
भिन्धि भिन्धि गदाघातैः चिरं जीवय जीवय ॥ १८ ॥

अहं न जाने किमपि त्वदन्यत्
       समाश्रये नाथ पदाम्बुजं ते ।
कुरुष्व तद्यन्मनसीप्सितं ते
       सुकर्मणा केन समक्षमीयाम् ॥ १९ ॥

त्वमेव तातो जननी त्वमेव
       त्वमेव नाथश्च त्वमेव बन्धुः ।
विद्याहिनागारकुलं त्वमेव
       त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ २०॥

न मेऽपराधं प्रविलोकय प्रभोऽ-
       पराधसिन्धोश्च दयानिधिस्त्वम् ।
तातेन दुष्टोऽपि सुतः सुरक्ष्यते
       दयालुता तेऽवतु सर्वदाऽस्मान् ॥ २१॥

अहह विस्मर नाथ न मां सदा
       करुणया निजया परिपूरितः ।
भुवि भवाअन् यदि मे न हि रक्षकः
       कथमहो मम जीवनमत्र वै ॥ २२॥

दह दह कृपया त्वं व्याधिजालं विशालं
       हर हर करवालं चाल्पमृत्योः करालम् ।
निजजनपरिपालं त्वां भजे भावयालं
       कुरु कुरु बहुकालं जीवितं मे सदाऽलम् ॥ २३॥

क्लीं श्रीं क्लीं श्रीं नमो भगवते
       जनार्दनाय सकलदुरितानि नाशय नाशय ।
क्ष्रौं आरोग्यं कुरु कुरु । ह्रीं दीर्घमायुर्देहि स्वाहा  ॥ २४॥

॥ फलश्रुतिः॥

अस्य धारणतो जापादल्पमृत्युः प्रशाम्यति ।
गर्भरक्षाकरं स्त्रीणां बालानां जीवनं परम् ॥ २५॥

सर्वे रोगाः प्रशाम्यन्ति सर्वा बाधा प्रशाम्यति ।
कुदृष्टिजं भयं नश्येत् तथा प्रेतादिजं भयम् ॥ २६॥

॥ इति सुदर्शनसंहितोक्तं अमृतसञ्जीवन धन्वन्तरि स्तोत्रम् ॥



Ruchi Sehgal

श्रीलक्ष्मीनृसिंहसहस्रनामावली

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॥ श्रीलक्ष्मीनृसिंहसहस्रनामावली ॥

ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्ष्रौं
ॐ नारसिंहाय नमः
ॐ वज्रदंष्ट्राय नमः
ॐ वज्रिणे नमः
ॐ वज्रदेहाय नमः
ॐ वज्राय नमः
ॐ वज्रनखाय नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ वन्द्याय नमः
ॐ वरदाय नमः
ॐ वरात्मने नमः
ॐ वरदाभयहस्ताय नमः
ॐ वराय नमः
ॐ वररूपिणे नमः
ॐ वरेण्याय नमः
ॐ वरिष्ठाय नमः
ॐ श्रीवराय नमः
ॐ प्रह्लादवरदाय नमः
ॐ प्रत्यक्षवरदाय नमः
ॐ परात्परपरेशाय नमः
ॐ पवित्राय नमः
ॐ पिनाकिने नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ प्रसन्नाय नमः
ॐ पाशिने नमः
ॐ पापहारिणे नमः
ॐ पुरुष्टुताय नमः
ॐ पुण्याय नमः
ॐ पुरुहूताय नमः
ॐ तत्पुरुषाय नमः
ॐ तथ्याय नमः
ॐ पुराणपुरुषाय नमः
ॐ पुरोधसे नमः
ॐ पूर्वजाय नमः
ॐ पुष्कराक्षाय नमः
ॐ पुष्पहासाय नमः
ॐ हासाय नमः
ॐ महाहासाय नमः
ॐ शार्ङ्गिणे नमः
ॐ सिंहाय नमः
ॐ सिंहराजाय नमः
ॐ जगद्वश्याय नमः
ॐ अट्टहासाय नमः
ॐ रोषाय नमः
ॐ जलवासाय नमः
ॐ भूतावासाय नमः
ॐ भासाय नमः
ॐ श्रीनिवासाय नमः
ॐ खड्गिने नमः
ॐ खड्ग जिह्वाय नमः
ॐ सिंहाय नमः
ॐ खड्गवासाय नमः
ॐ मूलाधिवासाय नमः
ॐ धर्मवासाय नमः
ॐ धन्विने नमः
ॐ धनञ्जयाय नमः
ॐ धन्याय नमः
ॐ मृत्युञ्जयाय नमः
ॐ शुभञ्जयाय नमः
ॐ सूत्राय नमः
ॐ शत्रुञ्जयाय नमः
ॐ निरञ्जनाय नमः
ॐ नीराय नमः
ॐ निर्गुणाय नमः
ॐ गुणाय नमः
ॐ निष्प्रपञ्चाय नमः
ॐ निर्वाणपदाय नमः
ॐ निबिडाय नमः
ॐ निरालम्बाय नमः
ॐ नीलाय नमः
ॐ निष्कळाय नमः
ॐ कळाय नमः
ॐ निमेषाय नमः
ॐ निबन्धाय नमः
ॐ निमेषगमनाय नमः
ॐ निर्द्वन्द्वाय नमः
ॐ निराशाय नमः
ॐ निश्चयाय नमः
ॐ निराय नमः
ॐ निर्मलाय नमः
ॐ निबन्धाय नमः
ॐ निर्मोहाय नमः
ॐ निराकृते नमः
ॐ नित्याय नमः
ॐ सत्याय नमः
ॐ सत्कर्मनिरताय नमः
ॐ सत्यध्वजाय नमः
ॐ मुञ्जाय नमः
ॐ मुञ्जकेशाय नमः
ॐ केशिने नमः
ॐ हरीशाय नमः
ॐ शेषाय नमः
ॐ गुडाकेशाय नमः
ॐ सुकेशाय नमः
ॐ ऊर्ध्वकेशाय नमः
ॐ केशिसंहारकाय नमः
ॐ जलेशाय नमः
ॐ स्थलेशाय नमः
ॐ पद्मेशाय नमः
ॐ उग्ररूपिणे नमः
ॐ कुशेशयाय नमः
ॐ कूलाय नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ सूक्तिकर्णाय नमः
ॐ सूक्ताय नमः
ॐ रक्तजिह्वाय नमः
ॐ रागिणे नमः
ॐ दीप्तरूपाय नमः
ॐ दीप्ताय नमः
ॐ प्रदीप्ताय नमः
ॐ प्रलोभिने नमः
ॐ प्रच्छिन्नाय नमः
ॐ प्रबोधाय नमः
ॐ प्रभवे नमः
ॐ विभवे नमः
ॐ प्रभञ्जनाय नमः
ॐ पान्थाय नमः
ॐ प्रमायाप्रमिताय नमः
ॐ प्रकाशाय नमः
ॐ प्रतापाय नमः
ॐ प्रज्वलाय नमः
ॐ उज्ज्वलाय नमः
ॐ ज्वालामालास्वरूपाय नमः
ॐ ज्वलज्जिह्वाय नमः
ॐ ज्वालिने नमः
ॐ महूज्ज्वालाय नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ कालमूर्तिधराय नमः
ॐ कालान्तकाय नमः
ॐ कल्पाय नमः
ॐ कलनाय नमः
ॐ कृते नमः
ॐ कालचक्राय नमः
ॐ चक्राय नमः
ॐ वषट्चक्राय नमः
ॐ चक्रिणे नमः
ॐ अक्रूराय नमः
ॐ कृतान्ताय नमः
ॐ विक्रमाय नमः
ॐ क्रमाय नमः
ॐ कृत्तिने नमः
ॐ कृत्तिवासाय नमः
ॐ कृतघ्नाय नमः
ॐ कृतात्मने नमः
ॐ संक्रमाय नमः
ॐ क्रुद्धाय नमः
ॐ क्रांतलोकत्रयाय नमः
ॐ अरूपाय नमः
ॐ स्वरूपाय नमः
ॐ हरये नमः
ॐ परमात्मने नमः
ॐ अजयाय नमः
ॐ आदिदेवाय नमः
ॐ अक्षयाय नमः
ॐ क्षयाय नमः
ॐ अघोराय नमः
ॐ सुघोराय नमः
ॐ घोरघोरतराय नमः
ॐ अघोरवीर्याय नमः
ॐ लसद्घोराय नमः
ॐ घोराध्यक्षाय नमः
ॐ दक्षाय नमः
ॐ दक्षिणाय नमः
ॐ आर्याय नमः
ॐ शम्भवे नमः
ॐ अमोघाय नमः
ॐ गुणौघाय नमः
ॐ अनघाय नमः
ॐ अघहारिणे नमः
ॐ मेघनादाय नमः
ॐ नादाय नमः
ॐ मेघात्मने नमः
ॐ मेघवाहनरूपाय नमः
ॐ मेघश्यामाय नमः
ॐ मालिने नमः
ॐ व्यालयज्ञोपवीताय नमः
ॐ व्याघ्रदेहाय नमः
ॐ व्याघ्रपादाय नमः
ॐ व्याघ्रकर्मिणे नमः
ॐ व्यापकाय नमः
ॐ विकटास्याय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ विष्टरश्रवसे नमः
ॐ विकीर्णनखदंष्ट्राय नमः
ॐ नखदंष्ट्रायुधाय नमः
ॐ विष्वक्सेनाय नमः
ॐ सेनाय नमः
ॐ विह्वलाय नमः
ॐ बलाय नमः
ॐ विरूपाक्षाय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ विशेषाक्षाय नमः
ॐ साक्षिणे नमः
ॐ वीतशोकाय नमः
ॐ विस्तीर्णवदनाय नमः
ॐ विधेयाय नमः
ॐ विजयाय नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ विबुधाय नमः
ॐ विभावाय नमः
ॐ विश्वम्भराय नमः
ॐ वीतरागाय नमः
ॐ विप्राय नमः
ॐ विटङ्कनयनाय नमः
ॐ विपुलाय नमः
ॐ विनीताय नमः
ॐ विश्वयोनये नमः
ॐ चिदम्बराय नमः
ॐ वित्ताय नमः
ॐ विश्रुताय नमः
ॐ वियोनये नमः
ॐ विह्वलाय नमः
ॐ विकल्पाय नमः
ॐ कल्पातीताय नमः
ॐ शिल्पिने नमः
ॐ कल्पनाय नमः
ॐ स्वरूपाय नमः
ॐ फणितल्पाय नमः
ॐ तटित्प्रभाय नमः
ॐ तार्याय नमः
ॐ तरुणाय नमः
ॐ तरस्विने नमः
ॐ तपनाय नमः
ॐ तरक्षाय नमः
ॐ तापत्रयहराय नमः
ॐ तारकाय नमः
ॐ तमोघ्नाय नमः
ॐ तत्वाय नमः
ॐ तपस्विने नमः
ॐ तक्षकाय नमः
ॐ तनुत्राय नमः
ॐ तटिने नमः
ॐ तरलाय नमः
ॐ शतरूपाय नमः
ॐ शान्ताय नमः
ॐ शतधाराय नमः
ॐ शतपत्राय नमः
ॐ तार्क्ष्याय नमः
ॐ स्थिताय नमः
ॐ शतमूर्तये नमः
ॐ शतक्रतुस्वरूपाय नमः
ॐ शाश्वताय नमः
ॐ शतात्मने नमः
ॐ सहस्रशिरसे नमः
ॐ सहस्रवदनाय नमः
ॐ सहस्राक्षाय नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ दिशश्रोत्राय नमः
ॐ सहस्रजिह्वाय नमः
ॐ महाजिह्वाय नमः
ॐ सहस्रनामधेयाय नमः
ॐ सहस्राक्षधराय नमः
ॐ सहस्रबाहवे नमः
ॐ सहस्रचरणाय नमः
ॐ सहस्रार्



Ruchi Sehgal

श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं लोपामुद्रा

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॥ श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं लोपामुद्रा ॥

॥ पूर्व पीठिका ॥

लोपामुद्रा श्रियाः पादौ धृत्वाननाम सादरम् ।
ववन्दे स्तवनं चक्रे तव लक्ष्मि सदा सती ॥ १॥

श्रुणु तत् स्तवनं येन स्तावकाः स्युर्धनाश्रयाः ।
नैकसम्पत् समायुक्ताः त्वया प्रसन्नयेक्षिताः ॥ २॥

॥ मूलपाठ श्रीलोपामुद्रा उवाच ॥

मातर्नमामि कमले पद्माअयतसुलोचने ।
श्रीविष्णुहृत्कमलस्थे विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ १॥

क्षीरसागरसत्पुत्रि पद्मगर्भाभसुन्दरि ।
लक्ष्मि प्रसीद सततं विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ २॥

महेन्द्रसदने त्वं श्रीः रुक्मिणि कृष्णभामिनि ।
चन्द्रे ज्योत्स्ना प्रभा सूर्ये विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ३॥

स्मितानने जगध्दात्रि शरण्ये सुखवर्द्धिनि ।
जातवेदसि दहने विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ४॥

ब्रह्माणि त्वं सर्जनाऽसि विष्णौ त्वं पोषिका सदा ।
शिवौ संहारिका शक्तिः विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ५॥

त्वया शूरागुणीविज्ञा धन्यामान्याकुलीनका ।
कलाशीलकलापाढ्यै विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ६॥

त्वया गजस्तुरङ्गश्च स्त्रैणस्तृर्णं सरः सदः ।
देवो गृहं कणः श्रेष्ठा विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ७॥

त्वया पक्षीपशुः शय्या रत्नं पृथ्वी नरो वधूः ।
श्रेष्ठा शुध्दा महालक्ष्मि विश्वमातर्नमोऽस्तु ते ॥ ८॥

लक्ष्मि श्रि कमले पद्मे रमे पद्मोद्भवे सति ।
अब्धिजे विष्णुपत्नि त्वं प्रसीद सततं प्रिये ॥ ९॥

॥ फल श्रुतिः ॥

इति स्तुता प्रसन्ना च श्रीरुवाच पतिव्रताम् ।
लोपामुद्रे मुने जाने वां यत हृत्तापकारणम् ॥ १॥

सुचेतनं दुनोत्येव काशीविश्लेषजोऽनलः ।
युवां वाराणसीं प्राप्य सिध्दिं प्रप्यस्थ ईप्सिताम् ॥ २॥

ये पठिष्यन्ति मत्स्तोत्रं तापदारिद्र्यनाशकम् ।
इष्टसम्पत्प्रदं तेषां जयसन्ततिकारकम् ॥ ३॥

मम सान्निध्यदं बालग्रहादिव्यधिनाशनम् ।
भविष्यति मम सारुप्यादिप्रमोक्षणं तथा ॥ ४॥

॥ श्रीलक्ष्मीनरायणसंहितायां श्रीलोपामुद्राकृत श्रीलक्ष्मीस्तोत्रम् ॥



Ruchi Sehgal

श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं अगस्त्यरचितम्

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॥ श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं अगस्त्यरचितम् ॥


ऋषिवर अगस्त द्वारा रचित श्रीलक्ष्मी स्तोत्र यह स्तोत्र अत्यंत
फलदायी है ।
जय पद्मपलाशाक्षि जय त्वं श्रीपतिप्रिये ।
जय मातर्महालक्ष्मि संसारार्णवतारिणि ॥

महालक्ष्मि नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि ।
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ॥

पद्मालये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं च सर्वदे ।
सर्वभूतहितार्थाय वसुवृष्टिं सदा कुरु ॥

जगन्मातर्नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ।
दयावति नमस्तुभ्यं विश्वेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥

नमः क्षीरार्णवसुते नमस्त्रैलोक्यधारिणि ।
वसुवृष्टे नमस्तुभ्यं रक्ष मां शरणागतं ॥

रक्ष त्वं देवदेवेशि देवदेवस्य वल्लभे ।
दरिद्रात्त्राहि मां लक्ष्मि कृपां कुरु ममोपरि ॥

नमस्त्रैलोक्यजननि नमस्त्रैलोक्यपावनि ।
ब्रह्मादयो नमस्ते त्वां जगदानन्ददायिनि ॥

विष्णुप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं जगद्धिते ।
आर्तहन्त्रि नमस्तुभ्यं समृद्धिं कुरु मे सदा ॥

अब्जवासे नमस्तुभ्यं चपलायै नमो नमः ।
चंचलायै नमस्तुभ्यं ललितायै नमो नमः ॥

नमः प्रद्युम्नजननि मातुस्तुभ्यं नमो नमः ।
परिपालय भो मातर्मां तुभ्यं शरणागतं ॥

शरण्ये त्वां प्रपन्नोऽस्मि कमले कमलालये ।
त्राहि त्राहि महालक्ष्मि परित्राणपरायणे ॥

पाण्डित्यं शोभते नैव न शोभन्ति गुणा नरे ।
शीलत्वं नैव शोभेत महालक्ष्मि त्वया विना ॥

तावद्विराजते रूपं तावच्छीलं विराजते ।
तावद्गुणा नराणां च यावल्लक्ष्मीः प्रसीदति ॥

लक्ष्मित्वयालंकृतमानवा ये पापैर्विमुक्ता नृपलोकमान्याः ।
गुणैर्विहीना गुणिनो भवन्ति दुशीलिनः शीलवतां वरिष्ठाः ॥

लक्ष्मीर्भूषयते रूपं लक्ष्मीर्भूषयते कुलं ।
लक्ष्मीर्भूषयते विद्यां सर्वाल्लक्ष्मीर्विशिष्यते ॥

लक्ष्मि त्वद्गुणकीर्तनेन कमलाभूर्यात्यलं जिह्मतां ।
रुद्राद्या रविचन्द्रदेवपतयो वक्तुं च नैव क्षमाः ॥

अस्माभिस्तव रूपलक्षणगुणान्वक्तुं कथं शक्यते ।
मातर्मां परिपाहि विश्वजननि कृत्वा ममेष्टं ध्रुवं ॥

दीनार्तिभीतं भवतापपीडितं धनैर्विहीनं तव पार्श्वमागतं ।
कृपानिधित्वान्मम लक्ष्मि सत्वरं धनप्रदानाद्धन्नायकं कुरु ॥

मां विलोक्य जननि हरिप्रिये । निर्धनं त्वत्समीपमागतं ॥

देहि मे झटिति लक्ष्मि । कराग्रं वस्त्रकांचनवरान्नमद्भुतं ॥

त्वमेव जननी लक्ष्मि पिता लक्ष्मि त्वमेव च ॥

त्राहि त्राहि महालक्ष्मि त्राहि त्राहि सुरेश्वरि ।
त्राहि त्राहि जगन्मातर्दरिद्रात्त्राहि वेगतः ॥

नमस्तुभ्यं जगद्धात्रि नमस्तुभ्यं नमो नमः ।
धर्माधारे नमस्तुभ्यं नमः सम्पत्तिदायिनी ॥

दरिद्रार्णवमग्नोऽहं निमग्नोऽहं रसातले ।
मज्जन्तं मां करे धृत्वा सूद्धर त्वं रमे द्रुतं ॥

किं लक्ष्मि बहुनोक्तेन जल्पितेन पुनः पुनः ।
अन्यन्मे शरणं नास्ति सत्यं सत्यं हरिप्रिये ॥

एतच्श्रुत्वाऽगस्तिवाक्यं हृष्यमाण हरिप्रिया ।
उवाच मधुरां वाणीं तुष्टाहं तव सर्वदा ॥

लक्ष्मीरुवाच
यत्त्वयोक्तमिदं स्तोत्रं यः पठिष्यति मानवः ।
शृणोति च महाभागस्तस्याहं वशवर्तिनी ॥

नित्यं पठति यो भक्त्या त्वलक्ष्मीस्तस्य नश्यति ।
रणश्च नश्यते तीव्रं वियोगं नैव पश्यति ॥

यः पठेत्प्रातरुत्थाय श्रद्धा-भक्तिसमन्वितः ।
गृहे तस्य सदा स्थास्ये नित्यं श्रीपतिना सह ॥

सुखसौभाग्यसम्पन्नो मनस्वी बुद्धिमान् भवेत् ।
पुत्रवान् गुणवान् श्रेष्ठो भोगभोक्ता च मानवः ॥

इदं स्तोत्रं महापुण्यं लक्ष्म्यगस्तिप्रकीर्तितं ।
विष्णुप्रसादजननं चतुर्वर्गफलप्रदं ॥

राजद्वारे जयश्चैव शत्रोश्चैव पराजयः ।
भूतप्रेतपिशाचानां व्याघ्राणां न भयं तथा ॥

न शस्त्रानलतोयौघाद्भयं तस्य प्रजायते ।
दुर्वृत्तानां च पापानां बहुहानिकरं परं ॥

मन्दुराकरिशालासु गवां गोष्ठे समाहितः ।
पठेत्तद्दोषशान्त्यर्थं महापातकनाशनं ॥

सर्वसौख्यकरं नृणामायुरारोग्यदं तथा ।
अगस्रिआमुनिना प्रोक्तं प्रजानां हितकाम्यया ॥

॥ इत्यगस्तिविरचितं लक्ष्मीस्तोत्रं सम्पूर्णं ॥



Ruchi Sehgal