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Tuesday, 22 January 2019

เคšौเคธเค िเคฏा เค•ौเคกी, chosathiya kodi

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पुराने जमाने मे मुद्रा के चलन मे नही होने पर कौडी का प्रयोग किया जाता था और वस्तुओ की खरीददारी आदि कौडी से की जाती थी,कौडी से गिनती की क्रिया भी पूरी की जाती थी तथा कौडी के अनुसार ही एक दूसरे को सन्देश भेजने की क्रिया की जाती थी। आज भी एक कहावत बडे रूप से कही जाती है कि "दो कौडी की औकात है" या कौडी की औकात नही है फ़िर भी आगे आगे फ़िरने की कोशिश करते हो। कौडी समुद्र और नदियों मे पायी जाती है। सबसे उत्तम समुद्र की कौडी मानी जाती है,तथा नर्मदा के समुद्र मे मिलने के स्थान की कौडी भारी भी होती है और काम की भी मानी जाती है। कौडी का प्रयोग बुध ग्रह के तंत्रो मे किया जाता है। जब बुध ग्रह परेशान करने लगता है तो लोग कौडी को उपाय के रूप मे प्रयोग करते है,तांत्रिक लोग बिना कौडी के कभी तंत्र विद्या का प्रयोग नही करते है। बुध कमन्यूकेशन का ग्रह है जब भी लोग अन्जान लोगो से मुलाकात करने जाते है सिद्ध कौडी को अपने साथ ले जाते है,शमशानी क्रियाओं मे भी कौडी का इस्तेमाल किया जाता है। जहां शिव लिंग पर भस्म का प्रयोग किया जाता है वहां कौडी की भस्म अपनी मान्यता अलग ही रखती है,कई बार कौडी को सजाने के काम मे भी लिया जाता है और इसे मंत्र से अभिषिक्त करने के बाद लोग अपने घर मे भी रखते है भारत मे कई जातिया कौडी को अभिमंत्रित करने या करवाने के बाद बच्चो और पशुओं के गले मे भी बांधते है,कौडी का प्रयोग जुआ आदि खेलने के काम भी लिया जाता है जहां चित्त पट्ट कौडी के रूप मे हार जीत का फ़ैसला किया जाता है,जैसे चार कौडी को उछाला गया और चारो ही पट्ट पड गयी तो बडी जीत या बडी हार मानी जाती है वैसे ही एक दो तीन आदि के लिये भी माना जाता है। चौपड खेल मे कौडी का बहुत महत्व है यह रजबाडो के जमाने मे खेला जाता था तथा आज भी कहीं कहीं चंगा पो नामक खेल खेला जाता है।

कौडियों मे चौसठिया कौडी की अधिक मान्यता है यह अधिकतर समुद्र मे ही मिलती है और गहरे सरोवरो मे भी कभी कभी मिल जाती है।इस कौडी का रूप भी बडा होता है और यह अक्सर दीपावली ग्रहण आदि के समय लोगो की तिजोरियों से बाहर आती है,अन्यथा यह अद्रश्य ही रहती है,किसी को भाग्य से यह किसी समुद्री आइटम बेचने वाले की दुकान पर मिल जाये तो भाग्य वाली बात भी मानी जाती है.

इस कोडी का प्रयोग लोग अपने व्यवसाय स्थान मे बिक्री आदि के बढाने के लिये रखते है किसी खतरनाक काम को करने के लिये यह अपने साथ जेब मे रखकर ले जायी जाती है,अक्सर बीमारी की अवस्था मे इसे सिरहाने रखा जाता है। चौसठिया का रूप अक्सर व्याधि नजर तंत्र आदि को खाने के लिये माना जाता है,इस कौडी की विशेषता होती है कि किसी भी कमरे आदि मे खुले मे रखने के बाद जब इसे साफ़ पानी से धोया जाता है तो इसके अन्दर से पीले रंग का पानी निकलता है साथ ही जब किसी बन्द बक्से और तिजोरी आदि मे रखा जाता है तो धोने पर पानी का रंग कालिमा लिये होता है,बीमारी की अवस्था मे सिरहाने रखने के बाद धोने पर इसके धोने का पानी हल्की लालिमा लिये होता है,कोई दोष नही होने पर यह साफ़ पानी ही दिखाती है।


เคตाเคธ्เคคु เค•े เค…เคจเคธुเคจे เคชเคฐ เค…เคšूเค• เคจिเคฏเคฎ, vaastu ke niyam

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सूर्योदय की पहली किरण का अवरोध मकान के लिये विध्वंशकारी होता है,मन्दिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारा के दक्षिण पश्चिम में जगह खाली होती है या वीराना होता है भूल से कोई मकान होता भी है तो मकान मे रहने वाले नही होते है.

दक्षिण का कुआ घर मे उपरत्व के प्रभाव को पैदा करते है या तो घर मे पुरुष संतति होती ही नही है और होती भी है तो नकारा होती है.


घर के ईशान में गन्दगी घर के सदस्यों के अन्दर चरित्र की स्थिति को संदिग्ध रखते है पिता पुत्र के बीच भी वैमनस्यता का होना जरूरी हो जाता है पति पत्नी के बीच रिस्तो में दरार आना और बेकार के रिस्ते बनना भी देखा जाता है.


दलाली के काम करने वाले अक्सर जीवन के किसी भी एक भाग मे अपंगता को ग्रहण कर लेते है और उनकी पहिचान उनके दक्षिण पश्चिम में खिडकी या रोशनदान से होती है.


मकान का अग्नि मुखी दरवाजा आग और चोरी का कारक होता है,यह सब स्त्रियों के कारण ही होता है या तो स्त्री अपने घर के भेद को बाहर देती है या स्त्री के अन्दर बेकार की हवाये आकर मन को उद्वेलित करती है.


घर के वायव्य में झूला का होना किस्मत और प्रसिद्धि को हवा मे झुलाने के लिये माना जाता है,यहां तक कि खुद के रिस्तेदार भी कभी तो अच्छा बोलने लगते है और कभी बुराई करने लगते है.


दक्षिण पश्चिम मुखी मकान मे कोई एक व्यक्ति अपंग जरूर होता है और अपंगता भी खुद के व्यसनो के कारण ही होती है.


घर के दरवाजे पर लकडी या अन्य प्रकार की काटने वाली मशीन से घर में घर के सदस्य ही एक दूसरे को अपने अपने स्वार्थ के लिये काटने लगते है.


जन्म स्थान से पूर्व दिशा की ससुराल पुत्र सन्तान मे कमी देती है पश्चिम की ससुराल पुत्र सन्तान मे बढोत्तरी करती है उत्तर की ससुराल कन्या और पुत्र सन्तान को सन्तुलित रखने वाली होती है जबकि दक्षिण की ससुराल हमेशा कामी और नाम को बदनाम करने वाली सन्तान को ही देती है.


शहर के उत्तर का पानी शहर को धनी बनाता है पूर्व का पानी धर्म को बढाने वाला होता है पश्चिम का पानी शहर को ऊंची इमारतो को देने वाला होता है जबकि दक्षिण का पानी शहर को डाक्टरी और तकनीकी क्षेत्र मे विकास को देने वाला होता है.


ईशान की रसोई घर के मालिक को चिन्ता देने वाली होती है और किसी न किसी कारण से ग्रह स्वामी का मन जलता रहता है अग्नि की रसोई भोजन को देने वाली और घर के सदस्यों की बुद्धि को ठीक रखने वाली होती है नैऋत्य कोण की रसोई घर मे बीमारी को पैदा करने वाली और वायव्य की रसोई भोजन के मदो मे अधिक खर्च करने वाली होती है.


जिस मकान की छत पर पताका स्त्रियों के पैरो में पाजेब और पुरुषों को अपने कान ढककर रखने का चलन होता है उन घरो में बुरी शक्तियां प्रवेश नही कर पाती है.


छत पर शाम के समय स्त्री अगर बाल सुखा रही होती है कंघी कर रही होती है राहु उस स्त्री को मानसिक बीमारी से परेशान किये रहता है.
जिस घर मे अप्राकृतिक शक्तियों का निवास होता है उस घर मे एक्वेरियम में मछलियां अधिक मरती है.

रसोई मे अपने आप बर्तन गिरने लगें तो समझ लेना चाहिये कि किसी प्रकार की कलह होने वाली है यही बात दूध के उफ़न कर गिरने से भी मानी जाती है.


घर मे शाकिनी स्त्री के प्रवेश के पहले ही घर के आंगन को ढक दिया जाता है.


घर के नैतृत्य में रोशनदान तभी खोला जाता है जब घर मे भान्जे भतीजे या साले या मामा का निवास होना शुरु होता है.


घर मे पुत्र संतान के नही होने से अक्सर कुत्ते पालने की प्रथा परिवारों मे होती है जैसे ही पुत्र संतान का आगमन होता है कुत्ता मर जाता है,लेकिन पुत्र के पैदा होने के तेरह महिने के अन्दर दूसरा कुत्ता जरूर पाल लेना चाहिये.


เคฌीเคœ เคจंเคคเคฐो เคฎें เค•ैเคธे เคฆेเค–े เคญเค—เคตाเคจ , Beej mantro mei kaise kare bhagwan darsha

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हमारे भारत वर्ष में अक्षर पूजा की मान्यता रही है,अक्षरों को मूर्तियों में उकेर कर और उनके रूप को सजाकर विभिन्न नाम दिये गये है। समय की धारा में मूर्ति को ही भगवान मान लिया गया और उन्ही की श्रद्धा से पूजा की जाने लगी,हनुमान जी की पूजा का अर्थ भी यही लिया गया। अक्षर "ह" को सजाकर और ब्रह्मविद्या से जोड कर देखा जाये तो "हं" की उत्पत्ति होती है। मुँह को खोलने के बाद ही अक्षर "ह" का उच्चारण किया जा सकता है। अक्षर "हं" को उच्चारित करते समय नाक और मुंह के अलावा नाभि से लेकर सिर के सर्वोपरि भाग में उपस्थित ब्रह्मरन्ध तक हवा का संचार हो जाता है। "हं हनुमतये नम:" का जाप करते करते गला जीभ और व्यान अपान सभी वायु निकल कर शरीर से बाहर हो जाती हैं। इसी प्रकार मारक अक्षर "क" का सम्बोधन करने पर और बीजाक्षर "क्रीं" को सजाने पर मारक शक्ति काली का रूप सामने आता है,लेकिन बीज "क्रां" को सजाने पर पर्वत को धारण किये हुये हनुमान जी का रूप सामने आजाता है,ग्रहों के बीजाक्षरों को उच्चारण करने पर     उन्ही अक्षरों के प्रयोग को सकारात्मक,नकारात्मक और द्विशक्ति बीजों का उच्चारण किया जाता है। जैसे मंगल जिनके देवता स्वयं हनुमान जी है,के बीजात्मक मंत्र के लिये "ऊँ क्रां क्रीं क्रौं स: भोमाय नम:" का उच्चारण किया जाता है,इस बीज मंत्र में "क्र" आक्रामक रूप में सामने होता है,बडे आ की मात्रा लगाने पर समर्थ होता है और बिन्दु का प्रयोग करने पर ब्रह्माण्डीय शक्तियों का प्रवेश होता है।


इसी प्रकार से अगर शिव जी के मंत्र को जपा जाता है तो "ऊँ नम: शिवाय" का जाप किया जाता है,अक्षर "श" को ध्यानपूर्वक देखने पर बैठे हुये भगवान शिव का रूप सामने आता है,लेकिन जबतक "इ" की मात्रा नही लगती है,तब तक शब्द "शव" ही रहता है,इ की मात्रा लगते ही "शिव" शक्ति से पूर्ण हो जाता है,शनि देव का रंग काला है और ग्रहों के लिये इनका प्रयोग शक्ति वाले श का प्रयोग किया गया है,अगर शनि के बीज मंत्र को ध्यान से देखें तो "शं" बीज का प्रयोग किया गया है,"ऊँ शं शनिश्चराय नम:" का जाप करने पर भगवान शनि के द्वारा दिये गये कठिन समय को आराम से निकाला जा सकता है।


लेकिन अक्षर "शं" को साकार रूप में सजाने पर मुरली बजाते हुये भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति भी मिलती है,और उस मूर्ति का रंग भी काला है,वृंदावन में कोकिलावन की उपस्थिति इसी बात का द्योतक मानी जा सकती है। शब्द हरि को अगर सजा दिया जाये तो लिटाकर रखने पर सागर के अन्दर लेटी हुयी भगवान विष्णु की प्रतिमा को माना जा सकता है। "श्रीं" शब्द को सजाकर देखा जाये तो लक्ष्मी जी का रूप साक्षात देखा जा सकता है।


ह्रीं को सजाकर देखने पर माता सरस्वती को देखा जा सकता है,इसी प्रकार से विभिन्न अक्षरों को सजाकर देखने पर उन भगवान के दर्शन होते है।