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Wednesday 14 August 2019

कुतूबमीनार या विष्णू स्तम्भ

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कुतुबुद्दीन ऐबक, और क़ुतुबमीनार  की सच्चाई!

किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संसकृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें । इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बे हिसाब जुल्म किये थे ।

अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को बनवाया या विष्णू स्तम्भ (कुतूबमीनार) से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?

दो खरीदे हुए गुलाम
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कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाबी रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया ।

ढाई दिन का झोपड़ा
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अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा  ।

कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह "अढाई दिन का झोपड़ा" के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी "कुतुबुद्दीन" को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति "बख्तियार खिलजी" (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था ।

दोनों गुलाम को शासन
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कुतुबुद्दीन कुल चार साल ( 1206 से 1210 तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाय ।

विष्णु स्तम्भ
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जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेदशाला थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर "विक्रम संवत" का आविष्कार किया था. यहाँ पर 27 छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो 27 नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णू स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था ।

दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन 27 मंदिरों को तोड दिया. विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया. तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता.

कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत का सच
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अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की. इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है ।

कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया.

एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" चुना.

कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" घोडे पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक घोडे ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर कई बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया ।

शुभ्रत मरकर भी अमर हो गया
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इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक घोडे पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा ।

वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं ।


इस्लाम में जीव हत्या, कितनी सही कितनी गलत

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क्या बकरा ईद पर कुर्बानी देने का आदेश खुदा का है या खुदा के नाम पर बेजुबान जानवरों की कुर्बानी देकर समस्त मुसलमान भाई दोजख जाने की तैयारी कर रहे है ??

मांस खाना और शराब पीना इस्लाम में हराम है। इस्लाम इसका फरमान नहीं देता पर  वर्तमान में यह दोनों कार्य इस्लाम में बहुत अधिकता से किए जा रहे है।

मैं काजी मुल्लाओं से भी कहना चाहूंगा कि बेजुबान जानवरों को मारकर खाने का आदेश खुदा का है तो पाक कुरान शरीफ की आयत से दलील पेश करो। भोले मुसलमान भाइयों अल्लाह ने अपने प्यारे जीवो को मारने का आदेश कभी नहीं फरमाया है और ना ही उनके भेजे गए नबियों ने कभी मांस खाया है। ये कार्य शैतान फरिश्ते ने मुल्ला काजियों के शरीर में प्रवेश करके शुरु करवाया है...फिर आगे जीभ के स्वाद के लिए भ्रष्ट काजी, मुल्लाओं ने अल्लाह और नबियों के नाम पर जीव हत्या करवानी जारी रखी।

"कुरान शरीफ में कुर्बानी देने के लिए बोला गया है लेकिन किसी बेजुबान जीव की नहीं बल्कि अल्लाह की राह पर चलने के लिए अपनी बुराइयों की कुर्बानी देने की बात कही है।"

मुसलमान भाई पूरे दिन भूखे प्यासे रहकर पांच वक्त की नमाज पढ़ते हैं और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफी मांगते हैं और शाम को पेट भरने और जीभ के स्वाद में मासूम जीवो को मारकर खा जाते है। सुबह तो अल्लाह से गुनाहों की माफ़ी मांगी और शाम को एक और गुनाह कर बैठे।

हजरत मोहम्मद जी के जीवन चरित्र में लिखा है कि मोहम्मद जी ने कभी भी खून खराबा करने का आदेश नहीं दिया, मतलब साफ है कि बकरे काटने का फरमान न अल्लाह का है, न नबी मोहम्मद साहेब का है।

अल्लाह तो दयालु और रहमान है। सभी जीव अल्लाह की प्यारी संतान है। वह अपनी एक संतान द्वारा दूसरी संतान को मारने का आदेश कैसे दे सकता है?

अल्लाह के बनाए विधान को तोड़ने वाला महा अपराधी होगा। वह दोजख की आग में डाला जाएगा।

पवित्र कुरान शरीफ में जीव हत्या कर मांस खाने के लिए अल्लाह का कोई फरमान नहीं है और जो मांस खाने को कहें वह अल्लाह का ज्ञान नहीं हो सकता। मांस खाने का आदेश अल्लाह का नहीं, शैतान का है।

मुस्लिम धर्म में यह मान्यता है कि बकरीद पर बकरे को हलाल कर उसका मांस खाने से जन्नत प्राप्ति होती है।
यदि बकरे को कलमा पढ़कर हलाल करने से उसकी रूह जन्नत में जाती है तो आपने अभी तक स्वयं को और अपने परिवार को जन्नत में क्यों नहीं भेजा ??

जिस प्रकार हमें जरा सी खरोच भी लगती है तो बहुत पीड़ा होती है, ठीक उसी प्रकार उन बेजुबान जानवरों को भी असहनीय पीड़ा होती है जिसे आप धर्म की आड़ में हलाल करते हो वह बेजुबान जीव तड़फ-तड़फ कर प्राण त्यागता है कभी सोचा है कि उस जीव की आपको कितनी हाय बद्दुआ लगी है।

रहम कीजिए उन बेजुबानो पर जो बोल नहीं सकते। वह भी हम सब की तरह खुदा के बनाए प्यारे जीव है। उन्हें मारे नहीं, उनसे प्यार कीजिए।

हजरत मोहम्मद साहब ने हदीस में फरमाया है... "सभी प्राणियों के साथ प्रेम से बर्ताव करो। संसार के सभी प्राणियों पर रहम करो क्योंकि खुदा ने तुम पर बड़ी मेहरबानियां की है।

विचार करें यदि मांस खाना अल्लाह का आदेश होता तो आदरणीय हजरत मोहम्मद जी ने‌ मांस क्यों नहीं खाया ??

इस्लाम की पुस्तकों में लिखा है कि सभी प्राणियों पर दया करना सबसे बड़ा धर्म है। इस्लाम में प्रत्येक जीव एवं प्राणी के प्रति स्नेह और दया करने का निर्देश दिया गया है। मुस्लिम भाइयों को जीव हत्या करना तो दूर सोचना भी नहीं है।

एक चीज सोचने को मजबूर करती है कि जिस बकरे ने जिंदगी भर घास खाई उसका अंत इतना भयानक हुआ तो उस इंसान के साथ क्या होगा जो इसको मारकर खा रहा है?

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कृष्ण नाम के जाप का प्रभाव

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एक बकरी की बड़ी दिलचस्प कहानी.

*‼निरंतर कृष्ण नाम के जाप का प्रभाव‼*

किसी गांव में एक आदमी के पास बहुत सारी बकरियां थी वह बकरियों का दूध बेचकर ही अपना गुजारा करता था। एक दिन उसके गांव में बहुत से महात्मा आकर यज्ञ कर रहे थे और वह वृक्षों के पत्तों पर चंदन से कृष्ण कृष्ण का नाम लिखकर पूजा कर रहे थे।

वह जगह गांव से बाहर थी। वह आदमी बकरियों को वही रोज घास चराने जाता था। साधु हवन यज्ञ करके वहां से जा चुके थे, लेकिन वह पत्ते वहीं पड़े रह गए। तभी पास चरती बकरियों में से एक बकरी ने वो कृष्ण नाम रूपी पत्तों को खा लिया।

जब आदमी सभी बकरियों को घर लेकर गया तो सभी बकरियां अपने बाड़े में जाकर मैं मैं करने लगी लेकिन वह बकरी जिसने कृष्ण नाम को अपने अंदर ले लिया था वह मैं मैं की जगह *कृष्ण कृष्ण* करने लगी क्योंकि उसके अंदर *कृष्ण* वास करने लगे। उसका मैं यानी अहम तो अपने आप ही दूर हो जाता है।
जब सब बकरियां उसको *कृष्ण कृष्ण* कहते सुनती है तो वह कहती यह क्या कह रही हो? अपनी भाषा छोड़ कर यह क्या बोले जा रही है ?? मैं मैं बोल।

तो वह कहती *कृष्ण* नाम रूपी पता मेरे अंदर चला गया। मेरा तो मैं भी चला गया। सभी बकरियां उसको अपनी भाषा में बहुत कुछ समझाती परंतु वह टस से मस ना हुई और *कृष्ण कृष्ण* रटती रही। सभी बकरियों ने यह निर्णय किया कि इसको अपनी टोली से बाहर ही कर देते हैं। वह सब उसको सीग और धक्के मार कर बाड़े से बाहर निकाल देती हैं । सुबह जब मालिक आता है तो उसको बाड़े से बाहर देखता है, तो उसको पकड़ कर फिर अंदर कर देता है परंतु बकरियां उसको फिर सींग मार कर बाहर कर देती हैं । मालिक को कुछ समझ नहीं आता यह सब इसकी दुश्मन क्यों हो गई। मालिक सोचता है कि जरूर इसको कोई बीमारी होगी जो सब बकरियां इसको अपने पास भी आने नहीं दे रही, तो वह सोचता है कि यह ना हो कि एक बकरी के कारण सभी बीमार पड़ जाए।

वह रात को उस बकरी को जंगल में छोड़ देता है। सुबह जब जंगल में अकेली खड़ी बकरी को एक व्यक्ति जो कि चोर होता है, देखता है तो वह उस बकरी को लेकर जल्दी से भाग जाता है और दूर गांव जाकर उसे किसी एक किसान को बेच देता है। किसान जो कि बहुत ही भोला भाला और भला मानस होता है उसको कोई फर्क नहीं पड़ता की बकरी मै मैं कर रही है या *कृष्ण कृष्ण*। वह बकरी सारा दिन *कृष्ण कृष्ण* जपती रहती। अब वह किसान उस बकरी का दूध बेच कर अपना गुजारा करता है। *कृष्ण* नाम के प्रभाव से बकरी बहुत ही ज्यादा और मीठा दूध देती है । दूर-दूर से लोग उसका दूध उस किसान से लेने आते हैं । किसान जो की बहुत ही गरीब था बकरी के आने और उसके दूध की बिक्री होने से उसके घर की दशा अब सुधरने लगी।

एक दिन राजा के मंत्री और कुछ सैनिक उस गांव से होकर गुजर रहे थे उसको बहुत भूख लगी तभी उन्हें किसान का घर दिखाई दिया किसान ने उसको बकरी का दूध पिलाया इतना मीठा और अच्छा दूध पीकर मंत्री और सैनिक बहुत खुश हुए। उन्होंने किसान को कहा कि हमने इससे पहले ऐसा दूध कभी नहीं पिया , किसान ने कहा यह तो इस बकरी का दूध है जो सारा दिन *कृष्ण कृष्ण* करती रहती है। मंत्री उस बकरी को देखकर और *कृष्ण* नाम जपते देखकर हैरान हो गया। वो किसान का धन्यवाद करके वापस नगर में राज महल चले गए।

उन दिनों राजमाता जो कि काफी बीमार थी कई वैद्य के उपचार के बाद भी वह ठीक ना हुई। राजगुरु ने कहा माताजी का स्वस्थ होना मुश्किल है, अब तो भगवान इनको बचा सकते हैं। राजगुरु ने कहा कि अब आप माता जी के पास बैठकर ज्यादा से ज्यादा ठाकुर जी का नाम लो , राजा जो कि काफी व्यस्त रहता था वह सारा दिन राजपाट संभाले या माताजी के पास बैठे।

नगर में किसी के पास भी इतना समय नहीं की राजमाता के पास बैठकर भगवान का नाम ले सके, तभी मंत्री को वह बकरी याद आई जो कि हमेशा *कृष्ण कृष्ण* का जाप करती थी।
मंत्री ने राजा को इसके बारे में बताया। पहले तो राजा को विश्वास ना हुआ परंतु मंत्री जब राजा को अपने साथ उस किसान के घर ले गया तो राजा ने बकरी को *कृष्ण* नाम का जाप करते हुए सुना तो वह हैरान हो गया। राजा किसान से बोला कि आप यह बकरी मुझे दे दो। किसान बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर राजा से बोला कि इसके कारण ही तो मेरे घर के हालात ठीक हुए, अगर मैं यह आपको दे दूंगा तो मैं फिर से भूखा मरूगा। राजा ने कहा कि आप फिकर ना करो, मैं आपको इतना धन दे दूंगा कि आप की गरीबी दूर हो जाएगी। तब किसान ने खुशी-खुशी बकरी को राजा को दे दिया।

अब तो बकरी राज महल में राजमाता के पास बैठकर निरंतर *कृष्ण कृष्ण* का जाप करती। *कृष्ण* नाम के कानों में पड़ने से और बकरी का मीठा और स्वच्छ दूध पीने से राजमाता की सेहत में सुधार होने लगा और धीरे-धीरे वह बिल्कुल ठीक हो गई।

अब तो बकरी राज महल में राजा के पास ही रहने लगी उसकी संगत से पूरा राजमहल *कृष्ण कृष्ण* का जाप करने लगा ।अब पूरे राज महल और पूरे नगर में *कृष्ण* रूपी माहौल हो गया ।

*एक बकरी जो कि एक पशु है... कृष्ण नाम के प्रभाव से जो सीधे राज महल में पहुंच गई और उसकी " मैं " यानी अहम खत्म हो गई तो क्या हम इंसान निरंतर कृष्ण का जाप करने से अहम भाव से पार नहीं हो जाएंगे ❓*

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*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥*
(( श्री कृष्णमयी चिंतन का आनंद लीजिए))
*🙏|| जय श्री कृष्ण: ||🙏*


श्री राम वंशावली

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श्री राम के दादा परदादा का नाम क्या था?
नहीं तो जानिये-
1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,
2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,
3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,
4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,
5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |
6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,
7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,
8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,
9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,
10- अनरण्य से पृथु हुए,
11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,
12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,
13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,
14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,
15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,
16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,
17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,
18- भरत के पुत्र असित हुए,
19- असित के पुत्र सगर हुए,
20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,
21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,
22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,
23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |
24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |
25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,
26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,
27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,
28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,
29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,
30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,
31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,
32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,
33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,
34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,
35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,
36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,
37- अज के पुत्र दशरथ हुए,
38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |
इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ | शेयर करे ताकि हर हिंदू इस जानकारी को जाने..

🏹रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्य🏹

1:~लंका में राम जी = 111 दिन रहे।
2:~लंका में सीताजी = 435 दिन रहीं।
3:~मानस में श्लोक संख्या = 27 है।
4:~मानस में चोपाई संख्या = 4608 है।
5:~मानस में दोहा संख्या = 1074 है।
6:~मानस में सोरठा संख्या = 207 है।
7:~मानस में छन्द संख्या = 86 है।

8:~सुग्रीव में बल था = 10000 हाथियों का।
9:~सीता रानी बनीं = 33वर्ष की उम्र में।
10:~मानस रचना के समय तुलसीदास की उम्र = 77 वर्ष थी।
11:~पुष्पक विमान की चाल = 400 मील/घण्टा थी।
12:~रामादल व रावण दल का युद्ध = 87 दिन चला।
13:~राम रावण युद्ध = 32 दिन चला।
14:~सेतु निर्माण = 5 दिन में हुआ।

15:~नलनील के पिता = विश्वकर्मा जी हैं।
16:~त्रिजटा के पिता = विभीषण हैं।

17:~विश्वामित्र राम को ले गए =10 दिन के लिए।
18:~राम ने रावण को सबसे पहले मारा था = 6 वर्ष की उम्र में।
19:~रावण को जिन्दा किया = सुखेन बेद ने नाभि में अमृत रखकर।

यह जानकारी  महीनों के परिश्रम केबाद आपके सम्मुख प्रस्तुत है ।
तीन को भेज कर धर्म लाभ कमाये ।।


सत्य कथाये , जो बदल दे ज़िंदगी जीने का अंदाज़

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*दो ऐसी सत्य कथाऐं जिनको पढ़ने के बाद शायद आप भी अपनी  ज़िंदगी जीने का अंदाज़ बदलना चाहें:-*

*पहली*

दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद ऐक बार नेल्सन मांडेला अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ एक रेस्तरां में खाना खाने गए। सबने अपनी अपनी पसंद का खाना  आर्डर किया और खाना आने का इंतजार करने लगे।
उसी समय मांडेला की सीट के सामने वाली सीट पर एक व्यक्ति अपने खाने का इंतजार कर रहा था। मांडेला ने अपने सुरक्षा कर्मी से कहा कि उसे भी अपनी टेबल पर बुला लो। ऐसा ही हुआ। खाना आने के बाद सभी खाने लगे, *वो आदमी भी अपना खाना खाने लगा, पर उसके हाथ खाते हुए कांप रहे थे।*
खाना खत्म कर वो आदमी सिर झुका कर रेस्तरां से बाहर निकल गया। उस आदमी के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी ने मंडेला से कहा कि वो व्यक्ति शायद बहुत बीमार था, खाते वख़्त उसके हाथ लगातार कांप रहे थे और वह ख़ुद भी कांप रहा था।
मांडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है। *वह उस जेल का जेलर था, जिसमें मुझे कैद रखा गया था। जब कभी मुझे यातनाएं दी जाती थीं  और मै कराहते हुए पानी मांगता था तो ये मेरे ऊपर पेशाब करता था।*

मांडेला ने कहा *मै अब राष्ट्रपति बन गया हूं, उसने समझा कि मै भी उसके साथ शायद वैसा ही व्यवहार करूंगा। पर मेरा चरित्र ऐसा नहीं है। मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है। वहीं धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता हमें विकास की ओर ले जाती है।*

*दूसरी*

मुंबई से बैंगलुरू जा रही ट्रेन में सफ़र के दौरान टीसी ने सीट के नीचे छिपी लगभग तेरह/चौदह साल की ऐक लड़की से कहा

टीसी "टिकट कहाँ है?"
काँपती हुई लडकी "नहीं है साहब।"
टी सी "तो गाड़ी से उतरो।"

*इसका टिकट मैं दे रही हूँ।............पीछे से ऐक सह यात्री ऊषा भट्टाचार्य की आवाज आई जो पेशे से प्रोफेसर थी ।*

ऊषा जी - "तुम्हें कहाँ जाना है ?"
लड़की - "पता नहीं मैम!"
ऊषा जी - "तब मेरे साथ चलो, बैंगलोर तक!"
ऊषा जी - "तुम्हारा नाम क्या है?"
लड़की - "चित्रा"

बैंगलुरू पहुँच कर ऊषाजी ने चित्रा को अपनी जान पहचान की ऐक स्वंयसेवी संस्था को सौंप दिया और ऐक अच्छे स्कूल में भी एडमीशन करवा दिया। जल्द ही ऊषा जी का ट्रांसफर दिल्ली हो गया जिसके कारण चित्रा से संपर्क टूट गया, कभी-कभार केवल फोन पर बात हो जाया करती थी।

करीब बीस साल बाद ऊषाजी को एक लेक्चर के लिए सेन फ्रांसिस्को (अमरीका) बुलाया गया । लेक्चर के बाद जब वह होटल का बिल देने रिसेप्सन पर गईं तो पता चला पीछे खड़े एक खूबसूरत दंपत्ति ने बिल चुका  दिया था।

ऊषाजी "तुमने मेरा बिल क्यों भरा?"
*मैम, यह मुम्बई से बैंगलुरू तक के रेल टिकट के सामने कुछ भी नहीं है ।*
ऊषाजी "अरे चित्रा!" ...

चित्रा और कोई नहीं बल्कि  *इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरमैन सुधा मुर्ति थीं जो  इंफोसिस के संस्थापक श्री नारायण मूर्ति की पत्नी हैं।*
यह लघु कथा उन्ही की लिखी पुस्तक "द डे आई स्टाॅप्ड ड्रिंकिंग मिल्क" से ली गई है।

*कभी कभी आपके द्वारा  की गई किसी की सहायता, किसी का जीवन बदल सकती है।*
यदि जीवन में कुछ कमाना है तो पुण्य अर्जित कीजिये, क्योंकि यही वो मार्ग है जो स्वर्ग तक जाता है.... 🌹🌹