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Sunday, 11 November 2018

मानस के मन्त्र

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मानस के मन्त्र
1.   प्रभु की कृपा पाने का मन्त्र
“मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।”
विधि-प्रभु राम की पूजा करके गुरूवार के दिन से कमलगट्टे की माला पर २१ दिन तक प्रातः और सांय नित्य एक माला (१०८ बार) जप करें।
लाभ-प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। दुर्भाग्य का अन्त हो जाता है।

2.   रामजी की अनुकम्पा पाने का मन्त्र
“बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।”
विधि-रविवार के दिन से रुद्राक्ष की माला पर १००० बार प्रतिदिन ४० दिन तक जप करें।
लाभ- निष्काम भक्तों के लिये प्रभु श्रीराम की अनुकम्पा पाने का अमोघ मन्त्र है।


3 ॰ हनुमान जी की कृपा पाने का मन्त्र
“प्रनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।”
विधि- भगवान् हनुमानजी की सिन्दूर युक्त प्रतिमा की पूजा करके लाल चन्दन की माला से मंगलवार से प्रारम्भ करके २१ दिन तक नित्य १००० जप करें।
लाभ- हनुमानजी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। अला-बला, किये-कराये अभिचार का अन्त होता है।

4 ॰ वशीकरण के लिये मन्त्र
“जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेहि।।”
विधि- सूर्यग्रहण के समय पूर्ण ‘पर्वकाल’ के दौरान इस मन्त्र को जपता रहे, तो मन्त्र सिद्ध हो जायेगा। इसके पश्चात् जब भी आवश्यकता हो इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर गोरोचन का तिलक लगा लें।
लाभ- इस प्रकार करने से वशीकरण होता है।

5 ॰ सफलता पाने का मन्त्र
“प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।”
विधि- प्रतिदिन इस मन्त्र के १००८ पाठ करने चाहियें। इस मन्त्र के प्रभाव से सभी कार्यों में अपुर्व सफलता मिलती है।


6 .  रामजी की पूजा अर्चना का मन्त्र
“अब नाथ करि करुना, बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म, बस तहँ रामपद अनुरागऊँ।।”
विधि- प्रतिदिन मात्र ७ बार पाठ करने मात्र से ही लाभ मिलता है।
लाभ- इस मन्त्र से जन्म-जन्मान्तर में श्रीराम की पूजा-अर्चना का अधिकार प्राप्त हो जाता है।


7 .  मन की शांति के लिये राम मन्त्र
“राम राम कहि राम कहि। राम राम कहि राम।।”
विधि- जिस आसन में सुगमता से बैठ सकते हैं, बैठ कर ध्यान प्रभु श्रीराम में केन्द्रित कर यथाशक्ति अधिक-से-अधिक जप करें। इस प्रयोग को २१ दिन तक करते रहें।
लाभ- मन को शांति मिलती है।


8 .  पापों के क्षय के लिये मन्त्र
“मोहि समान को पापनिवासू।।”
विधि- रुद्राक्ष की माला पर प्रतिदिन १००० बार ४० दिन तक जप करें तथा अपने नाते-रिश्तेदारों से कुछ सिक्के भिक्षा के रुप में प्राप्त करके गुरुवार के दिन विष्णुजी के मन्दिर में चढ़ा दें।
लाभ- मन्त्र प्रयोग से समस्त पापों का क्षय हो जाता है।


9.  श्रीराम प्रसन्नता का मन्त्र
“अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन।।”
विधि- इस मन्त्र को यथाशक्ति अधिक-से-अधिक संख्या में ४० दिन तक जप करते रहें और प्रतिदिन प्रभु श्रीराम की प्रतिमा के सन्मुख भी सात बार जप अवश्य करें।
लाभ- जन्म-जन्मान्तर तक श्रीरामजी की पूजा का स्मरण रहता है और प्रभुश्रीराम प्रसन्न होते हैं।


10 .  संकट नाशन मन्त्र
“दीन दयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
विधि- लाल चन्दन की माला पर २१ दिन तक निरन्तर १०००० बार जप करें।
लाभ- विकट-से-विकट संकट भी प्रभु श्रीराम की कृपा से दूर हो जाते हैं।


11.   विघ्ननाशक गणेश मन्त्र
“जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोई बुद्धिरासी सुभ गुन सदन।।”
विधि- गणेशजी को सिन्दूर का चोला चढ़ायें और प्रतिदिन लाल चन्दन की माला से प्रातःकाल १०८० (१० माला) इस मन्त्र का जाप ४० दिन तक करते रहें।
लाभ- सभी विघ्नों का अन्त होकर गणेशजी का अनुग्रह प्राप्त होता है।

विवाह बाधा समाप्ति के लिए तथा यात्रा में सफलता के लिए रामचरित मानस के मंत्र

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विवाह बाधा समाप्ति के लिए  तथा यात्रा में सफलता के लिए मंत्र रामचरित 
विवाह के लिए 
तब जनक पाई वसिष्ठ आयसु ब्याह साज संवारि कै।
मांडवी श्रुतकी रति उरमिला कूंअरी लई हंकारी कै।।

यात्रा सफल होने के लिए
प्रविसिनगर कीजै सब वाजा।
हृदये राशि कोसलपुर राजा।।

प्रेम बढ़ाने के लिए
सब नर करहि परस्पर प्रीति।
चलहि स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।

शत्रु नाश के लिए रामचरित मानस के कुछ मंत्र

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रामचरित मानस गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध ग्रन्थ है यह ग्रन्थ स्थानीय अवधी भाषा में  लिखा गया था।  उस समय के सभी विद्वानों ने तथा प्रकृष्ट पंडितो ने इस ग्रन्थ का भरपूर विरोध किया था। क्युकी उनका मानना था  संस्कृत भाषा के आलावा और किसी भाषा में पूजा अर्चना व् देव स्तुति नहीं की जा सकती।  परन्तु गोस्वामी तुलसीदास केवल  लेखक , पंडित और ज्ञानी नहीं थे अपितु श्री राम के दृढ़ भक्त भी थे और ऐसा कैसे हो सकता है के प्रभु अपने भक्तो के प्रेम और मान की रक्षा न करे।  धीरे धीरे इस  ख्याति दूर तक फ़ैल गई और स्थानीय भाषा और हिंदी में रचित दोहे सभी लोगो को बहुत भाये।  आज हम इसी ग्रन्थ के कुछ महत्व पूर्ण मंत्रो के बारे  में बताने जा रहे है।  यह मंत्र शत्रु  करेंगे।  निम्नलिखित मंत्रो का जाप आपको शत्रु  की बाधाओं से सुरक्षा प्रदान करेंगे। 

शत्रुता समाप्ति के लि
गरल सुधा रिपु करहि मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।

शत्रुनाश के लिए
बयरु न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।

शत्रु का सामना करने के लिए
कर सारंग कटि माथा।
अरि दल दलन चले रघुनाथा।


प्रयोजन में विजय पाने के लिए
तेहि अवसर सनि सिवधनुभंगा।
आयऽभृगुकुलकमल पतंगा।।

रामचरित मानस के चमत्कारी मंत्र

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 पूर्ण भक्ति एवं श्रद्धा के साथ किसी भी शास्त्र के मंत्र या चौपाई का उपयोग किया जाए तो फल प्राप्ति की संभावना शत-प्रतिशत है। रोग निवारण, भय व शत्रु से मुक्ति के मंत्र से साधक में एक अनोखी शक्ति एवं साहस, समस्या-समाधान करने की सूझ-बूझ व विवेक, बुद्धि और प्रयत्न, परिश्रम व संघर्ष करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे अनुकूल फलों की प्राप्ति होती है। श्री गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस के कुछ मंत्र पाठकों के उपयोगार्थ प्रस्तुत हैं।

इनमें से जो मंत्र जप करना हो, उसके लिए हवन करना आवश्यक है। हवन कुंड बनाकर उसमें अग्रि प्रज्ज्वलित कर दें और नीचे दी गई 16 वस्तुओं में से कम से कम 8 वस्तुओं से 108 आहूतियां देकर मंत्र को सिद्ध कर लेना चाहिए। हवन तो सिर्फ एक बार ही करना होता है लेकिन मंत्र जप रोजाना 108 बार करना आवश्यक है, इससे इष्टफल की प्राप्ति संभव होती है।

हवन के लिए आवश्यक वस्तुएं : चंदन का बूरा, तिल, घी, दाल, अगर, तगर, कपूर, शुद्ध केसर, नागर मोथा, जव, चावल, पंचमेवा, पिस्ता, बादाम, अंगूर, काजू। इनमें से कम से कम 8 वस्तुएं आवश्यक हैं। मंत्र जप सोमवार, वीरवार और शुक्रवार से प्रारंभ करें।


मानसिक शांति के लिए
रामचरण दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्हें तनु त्याग।
सुमन माल जिभि कुंठ ते गिरन न जावई बाग।।

रक्षामंत्र
मामभिरक्षय रघुकुलनायक।
घृतवरचाप रुचिकर सायक।।

विपत्तिनाश के लिए
राजीवनयन धरे धनुसायक।
भगत विपत्तिभंजन सुखदायक।।

संकटनाश के लिए
जो प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपति नामु जन आरत भारी। मिटङ्क्षह कुसंकट होहीं सुखारी।।
दीनदयाल बिरिदु संभारी। हरहुनाथ मम संकट भारी।।

क्लेश नाश के लिए
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू।
महामोह निसि दलन दिनेसू।

विघ्न शांति के लिए
सकल विघ्न व्यापहि नहीं तेही।
राम सुकृपा विलोकहिं जेही।।

दु:खनाश के लिए
जब ते समु व्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बधाए।

महामारी से रक्षा के लिए
जय रघुबंस बनज बनभानू।
गहन दनुज कुल दहन कृसानू।।

रोग तथा उपद्रव शांति के लिए
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
रामराज नहीं काहुहि व्यापा।।

अकाल मृत्यु निवारण के लिए
नाम पाहस दिवस निसि ध्यान तुम्हारा कपाट।
लोचन निज पढज़ंत्रित जाङ्क्षह प्रान केहिं बाट।।

नजर न लगने के लिए
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी।
ताकर नाम भरत आस होई।

दारिद्रय नाश के लिए
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के।
कामद धन दारिद्र दबारि के।।

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए
जिमि सरिता सागर महुं जाही। जद्यपि ताहि कामना नाही।।
तिमि सुख सम्पत्ति बिनहि बालाएं। धरम सील पहि जाहि सुभाएं।

पुत्र प्राप्ति के लिए
प्रेम मगन कौशल्या निसि दिन जात न जान।
सुख स्नेह बस माता बालचरित कर गान।।

संपत्ति लाभ के लिए
जे सकाम नर सुनही जे गावहि।
सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।

सुख प्राप्ति के लिए
सुनहि विमुक्त बिरत अरु विषई।
लहहि भगति गति संपत्ति नई।।

मनोरथ सिद्धि के लिए
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरू नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहि त्रिपुरारि।।

Sunday, 13 August 2017

मुह की दुर्गन्ध के लिए मन्त्र

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मुह की दुर्गन्ध के लिए मन्त्र

सनिवार के दिन एक नयी साबुन नहाने वाली और एक चाकू खरीद ले.फिर सनिवार की रात १२-१ के भीतर साबुन को रेपर हटा के दाये हाथ मैं ले और बाये हाथ मैं चाकू लेके इस मंत्र का जाप करते हुए बीच मैं से काट के दो तुकरे कर दे.
मन्त्र ओम सम सनीच्राय नमह.

साबुन के दोनों टुकरो को पानी से भरी बाल्टी मैं दाल दे .सुबह तक साबुन गल जायेगी फिर सुबह इस पानी को किसी नाले तालाब मैं फेंक दे. आपको मुह की दुर्गन्ध से आज़ादी मिल जायेगी .

दूकान की बिक्री बढ़ाने का मन्त्र

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दुकान की बिक्री बढ़ाने हेतु मन्त्र आप मेहनत कर रहे हैं दुकान में पूरा सामान है परन्तु बिक्री नही हो रही हो अपनी दुकान में लक्ष्मी जी का चित्र लगाकर उनके आगे धूप व दीप जलाकर प्रणाम करें प्रणाम करके 108 बार ॐ नम:कमलवासिन्यै स्वाहा मंत्र का जाप करने के बाद अपना कार्य आरंभ करें या दुकानदारी शुरू करें. कारोबार में वृद्धि होगी, ग्राहक आने लगेंगे और काम भी बढ़ेगा.

यात्रा को सफल बनाता है ये बजरंग बाली का ये मन्त्र

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यात्रा को सफल बनाए बजरंगबली का यह मंत्र यदि आप या आपका कोई अपना किसी महत्वपूर्ण कार्य हेतु यात्रा पर जा रहा है, तो यात्रा की सफलता के लिए निम्न मंत्र का जाप करें... मंत्र :- रामलखन कौशिक सहित, सुमिरहु करहु पयान। लच्छि लाभ लौ जगत यश, मंगल सगुन प्रमान।। मंत्र :- प्रविसि नगर कीजे सब काजा। हृदय राखि कौसल पुर राजा।। जिस स्थान की यात्रा करनी हो, वहां पहुंचते ही उक्त मंत्र सात बार बोलें, उस स्थान से लाभ प्राप्त होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। अधिक प्रभाव के लिए ग्रहण काल, हनुमान जयंती, रामनवमी, होली, दीपावली या नवरात्रि के अवसर पर उक्त मंत्र का हनुमानजी के मंदिर में एक हजार आठ (1008) बार जप करके उसे सिद्ध कर लें। फिर जब भी यात्रा पर जाएं, यह मंत्र सात बार बोलकर घर से निकलें। सफलता प्राप्त होगी।

समस्त आर्थिक मनोकामनाएं पूर्ण करता है ये श्री कृष्ण मन्त्र

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नन्दपुत्राय श्यामलांगाय बालवपुषे कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

यह बत्तीस (32) अक्षरों वाला श्रीकृष्ण मंत्र है। इस श्रीकृष्ण मंत्र का जो भी साधक एक लाख बार जाप करता है तथा पायस, दुग्ध व शक्कर से निर्मित खीर द्वारा दशांश हवन करता है उसकी समस्त आर्थिक मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

Friday, 11 August 2017

मंत्रो से करे मधुमेह का इलाज, cure diabetoes by using mantras

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डायबिटीज रोग कैसा होता है, यह तो इससे पीड़ित रोगी ही अच्छी तरह समझ सकते हैं। दिखने में तो यह सामान्य है, लेकिन जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है, तो व्यक्ति अनेक प्रकार की बिमारियों से घिर जाता है तथा मृत्यु के समान कष्ट पाता है। इसी कारण इसको खतरनाक बिमारी कहा गया है। आप इस रोग का पूर्ण समाधान प्राप्त कर सकते है, यदि आप दवाओं के साथ साथ इस प्रयोग को भी संपन्न कर लें।

रविवार के दिन पूर्व दिशा की ओर मुख कर सफेद आसन पर बैठ जाएं। सर्वप्रथम गुरु पूजन संपन्न करे तथा गुरूजी से पूर्ण स्वास्थ्य का आशीर्वाद प्राप्त करें। इसके पश्चात सफेद रंग के वस्त्र पर कुंकुम से स्वस्तिक बनाकर उस पर 'अभीप्सा' को स्थापित करे दें, फिर उसके समक्ष १५ दिन तक नित्य मंत्र का ८ बार उच्चारण करें -

मंत्र
॥ ॐ ऐं ऐं सौः क्लीं क्लीं ॐ फट ॥
प्रयोग समाप्ति के बाद 'अभीप्सा' को नदी मैं प्रवाहित कर देन

आँख के काले मोतिय का तांत्रिक उपाय

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आँखों में यदि काला मोतिया हो तो ताम्बे के पात्र में जल लेकर उसमें ताम्बे का सिक्का व गुड डालकर प्रतिदिन सूर्य को अर्ध्य दें। यह उपाय शुक्ल पक्ष के प्रथम रविवार से शुरू कर चौदह रविवार करें। अर्ध्य देते समय रोग से मुक्ति की प्रार्थना करते रहें। इसके अतिरिक्त पांच प्रकार के फल लाल कपडे में बांधकर किसी भी मन्दिर में दें। यह उपाय निष्ठापूर्वक करें, लाभ होगा।

Wednesday, 26 July 2017

गोविंद दामोदर स्तोत्र (कृष्ण स्तोत्र), govindam damodar stortar

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गोविंद दामोदर स्तोत्र (कृष्ण स्तोत्र)

Govind Damodar Stotra, Stotram, (कृष्ण स्तोत्र)


गोविंद दामोदर स्तोत्र


अग्रे कुरूनाम् अथ पाण्डवानां दुःशासनेनाहृत वस्त्रकेशा ।
कृष्णा तदाक्रोशदनन्यनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ॥
श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे ।
त्रायस्व माम् केशव लोकनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ॥
विक्रेतुकाम अखिल गोपकन्या मुरारी पदार्पित चित्तवृत्त्यः ।
दध्योदकं मोहवसादवोचद् गोविंद दामोदर माधवेति ॥
जगधोय दत्तो नवनीत पिण्डः गृहे यशोदा विचिकित्सयानि ।
उवाच सत्यं वद हे मुरारे गोविंद दामोदर माधवेति ॥
जिह्वे रसाग्रे मधुरा प्रिया त्वं सत्यं हितं त्वं परमं वदामि ।
अवर्णयेत मधुराक्षराणि गोविंद दामोदर माधवेति ॥
गोविंद गोविंद हरे मुरारे गोविंद गोविंद मुकुंद कृष्ण ।
गोविंद गोविंद रथांगपाणे गोविंद दामोदर माधवेति ॥
सुखावसाने त्विदमेव सारं दुःखावसाने त्विदमेव गेयम् ।
देहावसाने त्विदमेव जप्यं गोविंद दामोदर माधवेति ॥
वक्तुं समर्थोपि नवक्ति कश्चित् अहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम् ।
जिह्वे पिबस्वमृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥



सन्तानगोपाल स्तोत्र, santan gopal strota

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 सन्तानगोपाल स्तोत्र

॥ सन्तानगोपाल स्तोत्र ॥
सन्तानगोपाल मूल मन्त्र: ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।



सन्तानगोपालस्तोत्रं
श्रीशं कमलपत्राक्षं देवकीनन्दनं हरिम् ।
सुतसंप्राप्तये कृष्णं नमामि मधुसूदनम् ॥१॥
नमाम्यहं वासुदेवं सुतसंप्राप्तये हरिम् ।
यशोदाङ्कगतं बालं गोपालं नन्दनन्दनम्॥२॥
अस्माकं पुत्रलाभाय गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
नमाम्यहं वासुदेवं देवकीनन्दनं सदा ॥३॥
गोपालं डिम्भकं वन्दे कमलापतिमच्युतम् ।
पुत्रसंप्राप्तये कृष्णं नमामि यदुपुङ्गवम् ॥४॥
पुत्रकामेष्टिफलदं कञ्जाक्षं कमलापतिम् ।
देवकीनन्दनं वन्दे सुतसम्प्राप्तये मम ॥५॥
पद्मापते पद्मनेत्रे पद्मनाभ जनार्दन ।
देहि मे तनयं श्रीश वासुदेव जगत्पते ॥६॥
यशोदाङ्कगतं बालं गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
अस्माकं पुत्र लाभाय नमामि श्रीशमच्युतम् ॥७॥
श्रीपते देवदेवेश दीनार्तिर्हरणाच्युत ।
गोविन्द मे सुतं देहि नमामि त्वां जनार्दन ॥८॥
भक्तकामद गोविन्द भक्तं रक्ष शुभप्रद ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥९॥
रुक्मिणीनाथ सर्वेश देहि मे तनयं सदा ।
भक्तमन्दार पद्माक्ष त्वामहं शरणं गतः ॥१०॥

देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥११॥
वासुदेव जगद्वन्द्य श्रीपते पुरुषोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥१२॥
कञ्जाक्ष कमलानाथ परकारुणिकोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥१३॥
लक्ष्मीपते पद्मनाभ मुकुन्द मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥१४॥
कार्यकारणरूपाय वासुदेवाय ते सदा ।
नमामि पुत्रलाभार्थ सुखदाय बुधाय ते ॥१५॥
राजीवनेत्र श्रीराम रावणारे हरे कवे ।
तुभ्यं नमामि देवेश तनयं देहि मे हरे ॥१६॥
अस्माकं पुत्रलाभाय भजामि त्वां जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव रमापते ॥१७॥
श्रीमानिनीमानचोर गोपीवस्त्रापहारक ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ॥१८॥
अस्माकं पुत्रसंप्राप्तिं कुरुष्व यदुनन्दन ।
रमापते वासुदेव मुकुन्द मुनिवन्दित ॥१९॥
वासुदेव सुतं देहि तनयं देहि माधव ।
पुत्रं मे देहि श्रीकृष्ण वत्सं देहि महाप्रभो ॥२०॥

डिम्भकं देहि श्रीकृष्ण आत्मजं देहि राघव ।
भक्तमन्दार मे देहि तनयं नन्दनन्दन ॥२१॥
नन्दनं देहि मे कृष्ण वासुदेव जगत्पते ।
कमलनाथ गोविन्द मुकुन्द मुनिवन्दित ॥२२॥
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
सुतं देहि श्रियं देहि श्रियं पुत्रं प्रदेहि मे ॥२३॥
यशोदास्तन्यपानज्ञं पिबन्तं यदुनन्दनं ।
वन्देऽहं पुत्रलाभार्थं कपिलाक्षं हरिं सदा ॥२४॥
नन्दनन्दन देवेश नन्दनं देहि मे प्रभो ।
रमापते वासुदेव श्रियं पुत्रं जगत्पते ॥२५॥
पुत्रं श्रियं श्रियं पुत्रं पुत्रं मे देहि माधव ।
अस्माकं दीनवाक्यस्य अवधारय श्रीपते ॥२६॥
गोपाल डिम्भ गोविन्द वासुदेव रमापते ।
अस्माकं डिम्भकं देहि श्रियं देहि जगत्पते ॥२७॥
मद्वाञ्छितफलं देहि देवकीनन्दनाच्युत ।
मम पुत्रार्थितं धन्यं कुरुष्व यदुनन्दन ॥२८॥
याचेऽहं त्वां श्रियं पुत्रं देहि मे पुत्रसंपदम्।
भक्तचिन्तामणे राम कल्पवृक्ष महाप्रभो ॥२९॥
आत्मजं नन्दनं पुत्रं कुमारं डिम्भकं सुतम् ।
अर्भकं तनयं देहि सदा मे रघुनन्दन ॥३०॥

वन्दे सन्तानगोपालं माधवं भक्तकामदम् ।
अस्माकं पुत्रसंप्राप्त्यै सदा गोविन्दमच्युतम् ॥३१॥
ॐकारयुक्तं गोपालं श्रीयुक्तं यदुनन्दनम् ।
क्लींयुक्तं देवकीपुत्रं नमामि यदुनायकम् ॥३२॥
वासुदेव मुकुन्देश गोविन्द माधवाच्युत ।
देहि मे तनयं कृष्ण रमानाथ महाप्रभो ॥३३॥
राजीवनेत्र गोविन्द कपिलाक्ष हरे प्रभो ।
समस्तकाम्यवरद देहि मे तनयं सदा ॥३४॥
अब्जपद्मनिभं पद्मवृन्दरूप जगत्पते ।
देहि मे वरसत्पुत्रं रमानायक माधव ॥३५॥
नन्दपाल धरापाल गोविन्द यदुनन्दन ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥३६॥
दासमन्दार गोविन्द मुकुन्द माधवाच्युत ।
गोपाल पुण्डरीकाक्ष देहि मे तनयं श्रियम् ॥३७॥
यदुनायक पद्मेश नन्दगोपवधूसुत ।
देहि मे तनयं कृष्ण श्रीधर प्राणनायक ॥३८॥
अस्माकं वाञ्छितं देहि देहि पुत्रं रमापते ।
भगवन् कृष्ण सर्वेश वासुदेव जगत्पते ॥३९॥
रमाहृदयसंभारसत्यभामामनः प्रिय ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥४०॥

चन्द्रसूर्याक्ष गोविन्द पुण्डरीकाक्ष माधव ।
अस्माकं भाग्यसत्पुत्रं देहि देव जगत्पते ॥४१॥
कारुण्यरूप पद्माक्ष पद्मनाभसमर्चित ।
देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनन्दनन्दन ॥४२॥
देवकीसुत श्रीनाथ वासुदेव जगत्पते ।
समस्तकामफलद देहि मे तनयं सदा ॥४३॥
भक्तमन्दार गम्भीर शङ्कराच्युत माधव ।
देहि मे तनयं गोपबालवत्सल श्रीपते ॥४४॥
श्रीपते वासुदेवेश देवकीप्रियनन्दन ।
भक्तमन्दार मे देहि तनयं जगतां प्रभो ॥४५॥
जगन्नाथ रमानाथ भूमिनाथ दयानिधे ।
वासुदेवेश सर्वेश देहि मे तनयं प्रभो ॥४६॥
श्रीनाथ कमलपत्राक्ष वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥४७॥
दासमन्दार गोविन्द भक्तचिन्तामणे प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥४८॥
गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रमानाथ महाप्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥४९॥
श्रीनाथ कमलपत्राक्ष गोविन्द मधुसूदन ।
मत्पुत्रफलसिद्ध्यर्थं भजामि त्वां जनार्दन ॥५०॥

स्तन्यं पिबन्तं जननीमुखांबुजं विलोक्य मन्दस्मितमुज्ज्वलाङ्गम् ।
स्पृशन्तमन्यस्तनमङ्गुलीभिर्वन्दे यशोदाङ्कगतं मुकुन्दम् ॥५१॥
याचेऽहं पुत्रसन्तानं भवन्तं पद्मलोचन ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥५२॥
अस्माकं पुत्रसम्पत्तेश्चिन्तयामि जगत्पते ।
शीघ्रं मे देहि दातव्यं भवता मुनिवन्दित ॥५३॥
वासुदेव जगन्नाथ श्रीपते पुरुषोत्तम ।
कुरु मां पुत्रदत्तं च कृष्ण देवेन्द्रपूजित ॥५४॥
कुरु मां पुत्रदत्तं च यशोदाप्रियनन्दनम् ।
मह्यं च पुत्रसन्तानं दातव्यंभवता हरे ॥५५॥
वासुदेव जगन्नाथ गोविन्द देवकीसुत ।
देहि मे तनयं राम कौशल्याप्रियनन्दन ॥५६॥
पद्मपत्राक्ष गोविन्द विष्णो वामन माधव ।
देहि मे तनयं सीताप्राणनायक राघव ॥५७॥
कञ्जाक्ष कृष्ण देवेन्द्रमण्डित मुनिवन्दित ।
लक्ष्मणाग्रज श्रीराम देहि मे तनयं सदा ॥५८॥
देहि मे तनयं राम दशरथप्रियनन्दन ।
सीतानायक कञ्जाक्ष मुचुकुन्दवरप्रद ॥५९॥
विभीषणस्य या लङ्का प्रदत्ता भवता पुरा ।
अस्माकं तत्प्रकारेण तनयं देहि माधव ॥६०॥

भवदीयपदांभोजे चिन्तयामि निरन्तरम् ।
देहि मे तनयं सीताप्राणवल्लभ राघव ॥६१॥
राम मत्काम्यवरद पुत्रोत्पत्तिफलप्रद ।
देहि मे तनयं श्रीश कमलासनवन्दित ॥६२॥
राम राघव सीतेश लक्ष्मणानुज देहि मे ।
भाग्यवत्पुत्रसन्तानं दशरथप्रियनन्दन ।
देहि मे तनयं राम कृष्ण गोपाल माधव ॥६४॥
कृष्ण माधव गोविन्द वामनाच्युत शङ्कर ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥६५॥
गोपबाल महाधन्य गोविन्दाच्युत माधव ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ॥६६॥
दिशतु दिशतु पुत्रं देवकीनन्दनोऽयं
दिशतु दिशतु शीघ्रं भाग्यवत्पुत्रलाभम् ।
दिशतु दिशतु शीघ्रं श्रीशो राघवो रामचन्द्रो
दिशतु दिशतु पुत्रं वंश विस्तारहेतोः ॥६७॥
दीयतां वासुदेवेन तनयोमत्प्रियः सुतः ।
कुमारो नन्दनः सीतानायकेन सदा मम ॥६८॥
राम राघव गोविन्द देवकीसुत माधव ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥६९॥
वंशविस्तारकं पुत्रं देहि मे मधुसूदन ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७०॥

ममाभीष्टसुतं देहि कंसारे माधवाच्युत ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७१॥
चन्द्रार्ककल्पपर्यन्तं तनयं देहि माधव ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७२॥
विद्यावन्तं बुद्धिमन्तं श्रीमन्तं तनयं सदा ।
देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनन्दन प्रभो ॥७३॥
नमामि त्वां पद्मनेत्र सुतलाभाय कामदम् ।
मुकुन्दं पुण्डरीकाक्षं गोविन्दं मधुसूदनम् ॥७४॥
भगवन् कृष्ण गोविन्द सर्वकामफलप्रद ।
देहि मे तनयं स्वामिंस्त्वामहं शरणं गतः ॥७५॥
स्वामिंस्त्वं भगवन् राम कृष्न माधव कामद ।
देहि मे तनयं नित्यं त्वामहं शरणं गतः ॥७६॥
तनयं देहिओ गोविन्द कञ्जाक्ष कमलापते ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७७॥
पद्मापते पद्मनेत्र प्रद्युम्न जनक प्रभो ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७८॥
शङ्खचक्रगदाखड्गशार्ङ्गपाणे रमापते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥७९॥
नारायण रमानाथ राजीवपत्रलोचन ।
सुतं मे देहि देवेश पद्मपद्मानुवन्दित ॥८०॥

राम राघव गोविन्द देवकीवरनन्दन ।
रुक्मिणीनाथ सर्वेश नारदादिसुरार्चित ॥८१॥
देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥८२॥
मुनिवन्दित गोविन्द रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८३॥
गोपिकार्जितपङ्केजमरन्दासक्तमानस ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८४॥
रमाहृदयपङ्केजलोल माधव कामद ।
ममाभीष्टसुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥८५॥
वासुदेव रमानाथ दासानां मङ्गलप्रद ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८६॥
कल्याणप्रद गोविन्द मुरारे मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८७॥
पुत्रप्रद मुकुन्देश रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८८॥
पुण्डरीकाक्ष गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८९॥
दयानिधे वासुदेव मुकुन्द मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥९०॥

पुत्रसम्पत्प्रदातारं गोविन्दं देवपूजितम् ।
वन्दामहे सदा कृष्णं पुत्र लाभ प्रदायिनम् ॥९१॥
कारुण्यनिधये गोपीवल्लभाय मुरारये ।
नमस्ते पुत्रलाभाय देहि मे तनयं विभो ॥९२॥
नमस्तस्मै रमेशाय रुमिणीवल्लभाय ते ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥९३॥
नमस्ते वासुदेवाय नित्यश्रीकामुकाय च ।
पुत्रदाय च सर्पेन्द्रशायिने रङ्गशायिने ॥९४॥
रङ्गशायिन् रमानाथ मङ्गलप्रद माधव ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥९५॥
दासस्य मे सुतं देहि दीनमन्दार राघव ।
सुतं देहि सुतं देहि पुत्रं देहि रमापते ॥९६॥
यशोदातनयाभीष्टपुत्रदानरतः सदा ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥९७॥
मदिष्टदेव गोविन्द वासुदेव जनार्दन ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥९८॥
नीतिमान् धनवान् पुत्रो विद्यावांश्च प्रजापते ।
भगवंस्त्वत्कृपायाश्च वासुदेवेन्द्रपूजित ॥९९॥
यःपठेत् पुत्रशतकं सोऽपि सत्पुत्रवान् भवेत ।
श्रीवासुदेवकथितं स्तोत्ररत्नं सुखाय च ॥१००॥

जपकाले पठेन्नित्यं पुत्रलाभं धनं श्रियम् ।
ऐश्वर्यं राजसम्मानं सद्यो याति न संशयः ॥१०१॥


नोट: उत्तम संतान की प्राप्ति व संतान सुख हेतु संतान गोपाल स्तोत्र का नियमित पाठ करने से शीघ्र लाभ प्राप्त होता हैं।

श्री शिव सहस्रनाम स्तोत्रम्, SHIVA SAHASRA NAMA STOTRAM

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रचन: वेद व्यास
स्थिरः स्थाणुः प्रभुर्भानुः प्रवरो वरदो वरः ।
सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः ॥ 1 ॥
जटी चर्मी शिखण्डी च सर्वाङ्गः सर्वाङ्गः सर्वभावनः ।
हरिश्च हरिणाक्शश्च सर्वभूतहरः प्रभुः ॥ 2 ॥
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नियतः शाश्वतो ध्रुवः ।
श्मशानचारी भगवानः खचरो गोचरो‌உर्दनः ॥ 3 ॥
अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूत भावनः ।
उन्मत्तवेषप्रच्छन्नः सर्वलोकप्रजापतिः ॥ 4 ॥
महारूपो महाकायो वृषरूपो महायशाः ।
महा‌உ‌உत्मा सर्वभूतश्च विरूपो वामनो मनुः ॥ 5 ॥
लोकपालो‌உन्तर्हितात्मा प्रसादो हयगर्दभिः ।
पवित्रश्च महांश्चैव नियमो नियमाश्रयः ॥ 6 ॥
सर्वकर्मा स्वयम्भूश्चादिरादिकरो निधिः ।
सहस्राक्शो विरूपाक्शः सोमो नक्शत्रसाधकः ॥ 7 ॥
चन्द्रः सूर्यः गतिः केतुर्ग्रहो ग्रहपतिर्वरः ।
अद्रिरद्{}र्यालयः कर्ता मृगबाणार्पणो‌உनघः ॥ 8 ॥
महातपा घोर तपा‌உदीनो दीनसाधकः ।
संवत्सरकरो मन्त्रः प्रमाणं परमं तपः ॥ 9 ॥
योगी योज्यो महाबीजो महारेता महातपाः ।
सुवर्णरेताः सर्वघ्य़ः सुबीजो वृषवाहनः ॥ 10 ॥
दशबाहुस्त्वनिमिषो नीलकण्ठ उमापतिः ।
विश्वरूपः स्वयं श्रेष्ठो बलवीरो‌உबलोगणः ॥ 11 ॥
गणकर्ता गणपतिर्दिग्वासाः काम एव च ।
पवित्रं परमं मन्त्रः सर्वभाव करो हरः ॥ 12 ॥
कमण्डलुधरो धन्वी बाणहस्तः कपालवानः ।
अशनी शतघ्नी खड्गी पट्टिशी चायुधी महानः ॥ 13 ॥
स्रुवहस्तः सुरूपश्च तेजस्तेजस्करो निधिः ।
उष्णिषी च सुवक्त्रश्चोदग्रो विनतस्तथा ॥ 14 ॥
दीर्घश्च हरिकेशश्च सुतीर्थः कृष्ण एव च ।
सृगाल रूपः सर्वार्थो मुण्डः कुण्डी कमण्डलुः ॥ 15 ॥
अजश्च मृगरूपश्च गन्धधारी कपर्द्यपि ।
उर्ध्वरेतोर्ध्वलिङ्ग उर्ध्वशायी नभस्तलः ॥ 16 ॥
त्रिजटैश्चीरवासाश्च रुद्रः सेनापतिर्विभुः ।
अहश्चरो‌உथ नक्तं च तिग्ममन्युः सुवर्चसः ॥ 17 ॥
गजहा दैत्यहा लोको लोकधाता गुणाकरः ।
सिंहशार्दूलरूपश्च आर्द्रचर्माम्बरावृतः ॥ 18 ॥
कालयोगी महानादः सर्ववासश्चतुष्पथः ।
निशाचरः प्रेतचारी भूतचारी महेश्वरः ॥ 19 ॥
बहुभूतो बहुधनः सर्वाधारो‌உमितो गतिः ।
नृत्यप्रियो नित्यनर्तो नर्तकः सर्वलासकः ॥ 20 ॥
घोरो महातपाः पाशो नित्यो गिरि चरो नभः ।
सहस्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यनिन्दितः ॥ 21 ॥
अमर्षणो मर्षणात्मा यघ्य़हा कामनाशनः ।
दक्शयघ्य़ापहारी च सुसहो मध्यमस्तथा ॥ 22 ॥
तेजो‌உपहारी बलहा मुदितो‌உर्थो‌உजितो वरः ।
गम्भीरघोषो गम्भीरो गम्भीर बलवाहनः ॥ 23 ॥
न्यग्रोधरूपो न्यग्रोधो वृक्शकर्णस्थितिर्विभुः ।
सुदीक्श्णदशनश्चैव महाकायो महाननः ॥ 24 ॥
विष्वक्सेनो हरिर्यघ्य़ः संयुगापीडवाहनः ।
तीक्श्ण तापश्च हर्यश्वः सहायः कर्मकालवितः ॥ 25 ॥
विष्णुप्रसादितो यघ्य़ः समुद्रो वडवामुखः ।
हुताशनसहायश्च प्रशान्तात्मा हुताशनः ॥ 26 ॥
उग्रतेजा महातेजा जयो विजयकालवितः ।
ज्योतिषामयनं सिद्धिः सन्धिर्विग्रह एव च ॥ 27 ॥
शिखी दण्डी जटी ज्वाली मूर्तिजो मूर्धगो बली ।
वैणवी पणवी ताली कालः कालकटङ्कटः ॥ 28 ॥
नक्शत्रविग्रह विधिर्गुणवृद्धिर्लयो‌உगमः ।
प्रजापतिर्दिशा बाहुर्विभागः सर्वतोमुखः ॥ 29 ॥
विमोचनः सुरगणो हिरण्यकवचोद्भवः ।
मेढ्रजो बलचारी च महाचारी स्तुतस्तथा ॥ 30 ॥
सर्वतूर्य निनादी च सर्ववाद्यपरिग्रहः ।
व्यालरूपो बिलावासी हेममाली तरङ्गवितः ॥ 31 ॥
त्रिदशस्त्रिकालधृकः कर्म सर्वबन्धविमोचनः ।
बन्धनस्त्वासुरेन्द्राणां युधि शत्रुविनाशनः ॥ 32 ॥
साङ्ख्यप्रसादो सुर्वासाः सर्वसाधुनिषेवितः ।
प्रस्कन्दनो विभागश्चातुल्यो यघ्य़भागवितः ॥ 33 ॥
सर्वावासः सर्वचारी दुर्वासा वासवो‌உमरः ।
हेमो हेमकरो यघ्य़ः सर्वधारी धरोत्तमः ॥ 34 ॥
लोहिताक्शो महा‌உक्शश्च विजयाक्शो विशारदः ।
सङ्ग्रहो निग्रहः कर्ता सर्पचीरनिवासनः ॥ 35 ॥
मुख्यो‌உमुख्यश्च देहश्च देह ऋद्धिः सर्वकामदः ।
सर्वकामप्रसादश्च सुबलो बलरूपधृकः ॥ 36 ॥
सर्वकामवरश्चैव सर्वदः सर्वतोमुखः ।
आकाशनिधिरूपश्च निपाती उरगः खगः ॥ 37 ॥
रौद्ररूपों‌உशुरादित्यो वसुरश्मिः सुवर्चसी ।
वसुवेगो महावेगो मनोवेगो निशाचरः ॥ 38 ॥
सर्वावासी श्रियावासी उपदेशकरो हरः ।
मुनिरात्म पतिर्लोके सम्भोज्यश्च सहस्रदः ॥ 39 ॥
पक्शी च पक्शिरूपी चातिदीप्तो विशाम्पतिः ।
उन्मादो मदनाकारो अर्थार्थकर रोमशः ॥ 40 ॥
वामदेवश्च वामश्च प्राग्दक्शिणश्च वामनः ।
सिद्धयोगापहारी च सिद्धः सर्वार्थसाधकः ॥ 41 ॥
भिक्शुश्च भिक्शुरूपश्च विषाणी मृदुरव्ययः ।
महासेनो विशाखश्च षष्टिभागो गवाम्पतिः ॥ 42 ॥
वज्रहस्तश्च विष्कम्भी चमूस्तम्भनैव च ।
ऋतुरृतु करः कालो मधुर्मधुकरो‌உचलः ॥ 43 ॥
वानस्पत्यो वाजसेनो नित्यमाश्रमपूजितः ।
ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी सुचारवितः ॥ 44 ॥
ईशान ईश्वरः कालो निशाचारी पिनाकधृकः ।
निमित्तस्थो निमित्तं च नन्दिर्नन्दिकरो हरिः ॥ 45 ॥
नन्दीश्वरश्च नन्दी च नन्दनो नन्दिवर्धनः ।
भगस्याक्शि निहन्ता च कालो ब्रह्मविदांवरः ॥ 46 ॥
चतुर्मुखो महालिङ्गश्चारुलिङ्गस्तथैव च ।
लिङ्गाध्यक्शः सुराध्यक्शो लोकाध्यक्शो युगावहः ॥ 47 ॥
बीजाध्यक्शो बीजकर्ता‌உध्यात्मानुगतो बलः ।
इतिहास करः कल्पो गौतमो‌உथ जलेश्वरः ॥ 48 ॥
दम्भो ह्यदम्भो वैदम्भो वैश्यो वश्यकरः कविः ।
लोक कर्ता पशु पतिर्महाकर्ता महौषधिः ॥ 49 ॥
अक्शरं परमं ब्रह्म बलवानः शक्र एव च ।
नीतिर्ह्यनीतिः शुद्धात्मा शुद्धो मान्यो मनोगतिः ॥ 50 ॥
बहुप्रसादः स्वपनो दर्पणो‌உथ त्वमित्रजितः ।
वेदकारः सूत्रकारो विद्वानः समरमर्दनः ॥ 51 ॥
महामेघनिवासी च महाघोरो वशीकरः ।
अग्निज्वालो महाज्वालो अतिधूम्रो हुतो हविः ॥ 52 ॥
वृषणः शङ्करो नित्यो वर्चस्वी धूमकेतनः ।
नीलस्तथा‌உङ्गलुब्धश्च शोभनो निरवग्रहः ॥ 53 ॥
स्वस्तिदः स्वस्तिभावश्च भागी भागकरो लघुः ।
उत्सङ्गश्च महाङ्गश्च महागर्भः परो युवा ॥ 54 ॥
कृष्णवर्णः सुवर्णश्चेन्द्रियः सर्वदेहिनामः ।
महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः ॥ 55 ॥
महामूर्धा महामात्रो महानेत्रो दिगालयः ।
महादन्तो महाकर्णो महामेढ्रो महाहनुः ॥ 56 ॥
महानासो महाकम्बुर्महाग्रीवः श्मशानधृकः ।
महावक्शा महोरस्को अन्तरात्मा मृगालयः ॥ 57 ॥
लम्बनो लम्बितोष्ठश्च महामायः पयोनिधिः ।
महादन्तो महादंष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः ॥ 58 ॥
महानखो महारोमा महाकेशो महाजटः ।
असपत्नः प्रसादश्च प्रत्ययो गिरि साधनः ॥ 59 ॥
स्नेहनो‌உस्नेहनश्चैवाजितश्च महामुनिः ।
वृक्शाकारो वृक्श केतुरनलो वायुवाहनः ॥ 60 ॥
मण्डली मेरुधामा च देवदानवदर्पहा ।
अथर्वशीर्षः सामास्य ऋकःसहस्रामितेक्शणः ॥ 61 ॥
यजुः पाद भुजो गुह्यः प्रकाशो जङ्गमस्तथा ।
अमोघार्थः प्रसादश्चाभिगम्यः सुदर्शनः ॥ 62 ॥
उपहारप्रियः शर्वः कनकः काझ्ण्चनः स्थिरः ।
नाभिर्नन्दिकरो भाव्यः पुष्करस्थपतिः स्थिरः ॥ 63 ॥
द्वादशस्त्रासनश्चाद्यो यघ्य़ो यघ्य़समाहितः ।
नक्तं कलिश्च कालश्च मकरः कालपूजितः ॥ 64 ॥
सगणो गण कारश्च भूत भावन सारथिः ।
भस्मशायी भस्मगोप्ता भस्मभूतस्तरुर्गणः ॥ 65 ॥
अगणश्चैव लोपश्च महा‌உ‌உत्मा सर्वपूजितः ।
शङ्कुस्त्रिशङ्कुः सम्पन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः ॥ 66 ॥
आश्रमस्थः कपोतस्थो विश्वकर्मापतिर्वरः ।
शाखो विशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यमुजालः सुनिश्चयः ॥ 67 ॥
कपिलो‌உकपिलः शूरायुश्चैव परो‌உपरः ।
गन्धर्वो ह्यदितिस्तार्क्श्यः सुविघ्य़ेयः सुसारथिः ॥ 68 ॥
परश्वधायुधो देवार्थ कारी सुबान्धवः ।
तुम्बवीणी महाकोपोर्ध्वरेता जलेशयः ॥ 69 ॥
उग्रो वंशकरो वंशो वंशनादो ह्यनिन्दितः ।
सर्वाङ्गरूपो मायावी सुहृदो ह्यनिलो‌உनलः ॥ 70 ॥
बन्धनो बन्धकर्ता च सुबन्धनविमोचनः ।
सयघ्य़ारिः सकामारिः महादंष्ट्रो महा‌உ‌உयुधः ॥ 71 ॥
बाहुस्त्वनिन्दितः शर्वः शङ्करः शङ्करो‌உधनः ।
अमरेशो महादेवो विश्वदेवः सुरारिहा ॥ 72 ॥
अहिर्बुध्नो निरृतिश्च चेकितानो हरिस्तथा ।
अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्कुरजितः शिवः ॥ 73 ॥
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः स्कन्दो वैश्रवणस्तथा ।
धाता शक्रश्च विष्णुश्च मित्रस्त्वष्टा ध्रुवो धरः ॥ 74 ॥
प्रभावः सर्वगो वायुरर्यमा सविता रविः ।
उदग्रश्च विधाता च मान्धाता भूत भावनः ॥ 75 ॥
रतितीर्थश्च वाग्मी च सर्वकामगुणावहः ।
पद्मगर्भो महागर्भश्चन्द्रवक्त्रोमनोरमः ॥ 76 ॥
बलवांश्चोपशान्तश्च पुराणः पुण्यचझ्ण्चुरी ।
कुरुकर्ता कालरूपी कुरुभूतो महेश्वरः ॥ 77 ॥
सर्वाशयो दर्भशायी सर्वेषां प्राणिनाम्पतिः ।
देवदेवः मुखो‌உसक्तः सदसतः सर्वरत्नवितः ॥ 78 ॥
कैलास शिखरावासी हिमवदः गिरिसंश्रयः ।
कूलहारी कूलकर्ता बहुविद्यो बहुप्रदः ॥ 79 ॥
वणिजो वर्धनो वृक्शो नकुलश्चन्दनश्छदः ।
सारग्रीवो महाजत्रु रलोलश्च महौषधः ॥ 80 ॥
सिद्धार्थकारी सिद्धार्थश्चन्दो व्याकरणोत्तरः ।
सिंहनादः सिंहदंष्ट्रः सिंहगः सिंहवाहनः ॥ 81 ॥
प्रभावात्मा जगत्कालस्थालो लोकहितस्तरुः ।
सारङ्गो नवचक्राङ्गः केतुमाली सभावनः ॥ 82 ॥
भूतालयो भूतपतिरहोरात्रमनिन्दितः ॥ 83 ॥
वाहिता सर्वभूतानां निलयश्च विभुर्भवः ।
अमोघः संयतो ह्यश्वो भोजनः प्राणधारणः ॥ 84 ॥
धृतिमानः मतिमानः दक्शः सत्कृतश्च युगाधिपः ।
गोपालिर्गोपतिर्ग्रामो गोचर्मवसनो हरः ॥ 85 ॥
हिरण्यबाहुश्च तथा गुहापालः प्रवेशिनामः ।
प्रतिष्ठायी महाहर्षो जितकामो जितेन्द्रियः ॥ 86 ॥
गान्धारश्च सुरालश्च तपः कर्म रतिर्धनुः ।
महागीतो महानृत्तोह्यप्सरोगणसेवितः ॥ 87 ॥
महाकेतुर्धनुर्धातुर्नैक सानुचरश्चलः ।
आवेदनीय आवेशः सर्वगन्धसुखावहः ॥ 88 ॥
तोरणस्तारणो वायुः परिधावति चैकतः ।
संयोगो वर्धनो वृद्धो महावृद्धो गणाधिपः ॥ 89 ॥
नित्यात्मसहायश्च देवासुरपतिः पतिः ।
युक्तश्च युक्तबाहुश्च द्विविधश्च सुपर्वणः ॥ 90 ॥
आषाढश्च सुषाडश्च ध्रुवो हरि हणो हरः ।
वपुरावर्तमानेभ्यो वसुश्रेष्ठो महापथः ॥ 91 ॥
शिरोहारी विमर्शश्च सर्वलक्शण भूषितः ।
अक्शश्च रथ योगी च सर्वयोगी महाबलः ॥ 92 ॥
समाम्नायो‌உसमाम्नायस्तीर्थदेवो महारथः ।
निर्जीवो जीवनो मन्त्रः शुभाक्शो बहुकर्कशः ॥ 93 ॥
रत्न प्रभूतो रक्ताङ्गो महा‌உर्णवनिपानवितः ।
मूलो विशालो ह्यमृतो व्यक्ताव्यक्तस्तपो निधिः ॥ 94 ॥
आरोहणो निरोहश्च शलहारी महातपाः ।
सेनाकल्पो महाकल्पो युगायुग करो हरिः ॥ 95 ॥
युगरूपो महारूपो पवनो गहनो नगः ।
न्याय निर्वापणः पादः पण्डितो ह्यचलोपमः ॥ 96 ॥
बहुमालो महामालः सुमालो बहुलोचनः ।
विस्तारो लवणः कूपः कुसुमः सफलोदयः ॥ 97 ॥
वृषभो वृषभाङ्काङ्गो मणि बिल्वो जटाधरः ।
इन्दुर्विसर्वः सुमुखः सुरः सर्वायुधः सहः ॥ 98 ॥
निवेदनः सुधाजातः सुगन्धारो महाधनुः ।
गन्धमाली च भगवानः उत्थानः सर्वकर्मणामः ॥ 99 ॥
मन्थानो बहुलो बाहुः सकलः सर्वलोचनः ।
तरस्ताली करस्ताली ऊर्ध्व संहननो वहः ॥ 100 ॥
छत्रं सुच्छत्रो विख्यातः सर्वलोकाश्रयो महानः ।
मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डि मुण्डो विकुर्वणः ॥ 101 ॥
हर्यक्शः ककुभो वज्री दीप्तजिह्वः सहस्रपातः ।
सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वदेवमयो गुरुः ॥ 102 ॥
सहस्रबाहुः सर्वाङ्गः शरण्यः सर्वलोककृतः ।
पवित्रं त्रिमधुर्मन्त्रः कनिष्ठः कृष्णपिङ्गलः ॥ 103 ॥
ब्रह्मदण्डविनिर्माता शतघ्नी शतपाशधृकः ।
पद्मगर्भो महागर्भो ब्रह्मगर्भो जलोद्भवः ॥ 104 ॥
गभस्तिर्ब्रह्मकृदः ब्रह्मा ब्रह्मविदः ब्राह्मणो गतिः ।
अनन्तरूपो नैकात्मा तिग्मतेजाः स्वयम्भुवः ॥ 105 ॥
ऊर्ध्वगात्मा पशुपतिर्वातरंहा मनोजवः ।
चन्दनी पद्ममाला‌உग्{}र्यः सुरभ्युत्तरणो नरः ॥ 106 ॥
कर्णिकार महास्रग्वी नीलमौलिः पिनाकधृकः ।
उमापतिरुमाकान्तो जाह्नवी धृगुमाधवः ॥ 107 ॥
वरो वराहो वरदो वरेशः सुमहास्वनः ।
महाप्रसादो दमनः शत्रुहा श्वेतपिङ्गलः ॥ 108 ॥
प्रीतात्मा प्रयतात्मा च संयतात्मा प्रधानधृकः ।
सर्वपार्श्व सुतस्तार्क्श्यो धर्मसाधारणो वरः ॥ 109 ॥
चराचरात्मा सूक्श्मात्मा सुवृषो गो वृषेश्वरः ।
साध्यर्षिर्वसुरादित्यो विवस्वानः सविता‌உमृतः ॥ 110 ॥
व्यासः सर्वस्य सङ्क्शेपो विस्तरः पर्ययो नयः ।
ऋतुः संवत्सरो मासः पक्शः सङ्ख्या समापनः ॥ 111 ॥
कलाकाष्ठा लवोमात्रा मुहूर्तो‌உहः क्शपाः क्शणाः ।
विश्वक्शेत्रं प्रजाबीजं लिङ्गमाद्यस्त्वनिन्दितः ॥ 112 ॥
सदसदः व्यक्तमव्यक्तं पिता माता पितामहः ।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्शद्वारं त्रिविष्टपमः ॥ 113 ॥
निर्वाणं ह्लादनं चैव ब्रह्मलोकः परागतिः ।
देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः ॥ 114 ॥
देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः ।
देवासुरमहामात्रो देवासुरगणाश्रयः ॥ 115 ॥
देवासुरगणाध्यक्शो देवासुरगणाग्रणीः ।
देवातिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः ॥ 116 ॥
देवासुरेश्वरोदेवो देवासुरमहेश्वरः ।
सर्वदेवमयो‌உचिन्त्यो देवता‌உ‌உत्मा‌உ‌உत्मसम्भवः ॥ 117 ॥
उद्भिदस्त्रिक्रमो वैद्यो विरजो विरजो‌உम्बरः ।
ईड्यो हस्ती सुरव्याघ्रो देवसिंहो नरर्षभः ॥ 118 ॥
विबुधाग्रवरः श्रेष्ठः सर्वदेवोत्तमोत्तमः ।
प्रयुक्तः शोभनो वर्जैशानः प्रभुरव्ययः ॥ 119 ॥
गुरुः कान्तो निजः सर्गः पवित्रः सर्ववाहनः ।
शृङ्गी शृङ्गप्रियो बभ्रू राजराजो निरामयः ॥ 120 ॥
अभिरामः सुरगणो विरामः सर्वसाधनः ।
ललाटाक्शो विश्वदेहो हरिणो ब्रह्मवर्चसः ॥ 121 ॥
स्थावराणाम्पतिश्चैव नियमेन्द्रियवर्धनः ।
सिद्धार्थः सर्वभूतार्थो‌உचिन्त्यः सत्यव्रतः शुचिः ॥ 122 ॥
व्रताधिपः परं ब्रह्म मुक्तानां परमागतिः ।
विमुक्तो मुक्ततेजाश्च श्रीमानः श्रीवर्धनो जगतः ॥ 123 ॥
श्रीमानः श्रीवर्धनो जगतः ॐ नम इति ॥
इति श्री महाभारते अनुशासन पर्वे श्री शिव सहस्रनाम स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥