Jeevan Dharm

Jeevan-dharm is about our daily life routine, society, culture, entertainment, lifestyle.

Thursday 27 July 2017

मासिक धर्म से जुडी पौराणिक कथा ( mythological story related to mensuration)

No comments :
मासिक धर्म  से जुडी पौराणिक  कथा 
क्या आप जानते हैं कि महिलाओं को होने वाले मासिक धर्म का पुराणों में उल्लेख शामिल है? उन्हें मासिक धर्म क्यों होता है इस पर एक पौराणिक कथा भी मौजूद है जो इन्द्र देव से सम्बन्धित है। भागवत पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार एक बार ‘बृहस्पति’ जो देवताओं के गुरु थे, वे इन्द्र देव से काफी नाराज़ हो गए। इस के चलते असुरों ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया और इन्द्र को अपनी गद्दी छोड़ कर भागना पड़ा।
असुरों से खुद को बचाते हुए वे सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे मदद मांगने लगे। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें बताया कि उन्हें एक ब्रह्म-ज्ञानी की सेवा करनी चाहिए, यदि वह प्रसन्न हो जाए तभी उन्हें उनकी गद्दी वापस प्राप्त होगी। आज्ञानुसार इन्द्र देव एक ब्रह्म-ज्ञानी की सेवा में लग गए। लेकिन वे इस बात से अनजान थे कि उस ज्ञानी की माता एक असुर थी इसलिए उसके मन में असुरों के लिए एक विशेष स्थान था।
इन्द्र देव द्वारा अर्पित की गई सारी हवन की सामग्री जो देवताओं को चढ़ाई जाती है, वह ज्ञानी उसे असुरों को चढ़ा रहा था। इससे उनकी सारी सेवा भंग हो रही थी। जब इन्द्र देव को सब पता लगा तो वे बेहद क्रोधित हो गए और उन्होंने उस ब्रह्म-ज्ञानी की हत्या कर डाली।
एक गुरु की हत्या करना घोर पाप था, जिस कारण उन पर ब्रह्म-हत्या का पाप आ गाया। ये पाप एक भयानक राक्षस के रूप में इन्द्र का पीछा करने लगा। किसी तरह इन्द्र ने खुद को एक फूल के अंदर छुपाया और एक लाख साल तक भगवान विष्णु की तपस्या की।
तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने इन्द्र देव को बचा तो लिया लेकिन उनके ऊपर लगे पाप की मुक्ति के लिए एक सुझाव दिया। इसके लिए इन्द्र को पेड़, जल, भूमि और स्त्री को अपने पाप का थोड़ा-थोड़ा अंश देना था। इन्द्र के आग्रह पर सब राज़ी तो हो गए लेकिन उन्होंने बदले में इन्द्र देव से उन्हें एक वरदान देने को कहा।
सबसे पहले पेड़ ने उस पाप का एक-चौथाई हिस्सा ले लिया जिसके बदले में इन्द्र ने उसे एक वरदान दिया। वरदान के अनुसार पेड़ चाहे तो स्वयं ही अपने आप को जीवित कर सकता है।
इसके बाद जल को पाप का हिस्सा देने पर इन्द्र देव ने उसे अन्य वस्तुओं को पवित्र करने की शक्ति प्रदान की।
यही कारण है कि हिन्दू धर्म में आज भी जल को पवित्र मानते हुए पूजा-पाठ में इस्तेमाल किया जाता है।

तीसरा पाप इन्द्र देव ने भूमि को दिया इसके वरदान स्वरूप उन्होंने भूमि से कहा कि उस पर आई कोई भी चोट हमेशा भर जाएगी।
अब आखिरी बारी स्त्री की थी। इस कथा के अनुसार स्त्री को पाप का हिस्सा देने के फलस्वरूप उन्हें हर महीने मासिक धर्म होता है। लेकिन उन्हें वरदान देने के लिए इन्द्र ने कहा की “महिलाएं, पुरुषों से कई गुना ज्यादा काम का आनंद उठाएंगी”।
इस दौरान वे ब्रह्म-हत्या यानी कि अपने गुरु की हत्या का पाप ढो रही होती हैं, इसलिए उन्हें अपने गुरु तथा भगवान से दूर रहने को कहा जाता है। यही कारण है कि प्राचीन समय से ही मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को मंदिर जाने की मनाही थी।
mythological story related to mensuration

नारद की समस्या

No comments :
एक बार देवर्षि नारद अपने पिता ब्रम्हा जी के सामने “नारायण-नारायण” का जप करते हुए उपस्थित हुए और पूज्य पिताजी को दंडवत प्रणाम किया ।  नारद जी को सामने देख ब्रम्हा जी ने पुछा, “नारद! आज कैसे आना हुआ ? तुम्हारे मुख के भाव कुछ कह रहे हैं! कोई विशेष प्रयोजन है अथवा कोई नई समस्या ?”
नारद जी ने उत्तर देते हुए कहा, “ पिताश्री ऐसा कोई विशेष प्रयोजन तो नहीं है, कई दिनों से एक प्रश्न मन में खटक रहा है । आज आपसे इसका उत्तर जानने के लिए उपस्थित हुआ हूँ । 

“तो फिर विलम्ब कैसा? मन की शंकाओं का समाधान शीघ्रता से कर लेना ही ठीक रहता है! इसलिए निः संकोच अपना प्रश्न पूछो!”   – ब्रम्हाजी ने कहा ।
नारद जी ने उत्तर देते हुए कहा, “ पिताश्री ऐसा कोई विशेष प्रयोजन तो नहीं है, कई दिनों से एक प्रश्न मन में खटक रहा है । आज आपसे इसका उत्तर जानने के लिए उपस्थित हुआ हूँ । ”
“पिताश्री आप सारे सृष्टि के परमपिता है, देवता और दानव आप की  ही संतान हैं । भक्ति और ज्ञान में देवता श्रेष्ठ हैं तो शक्ति तथा तपाचरण में दानव श्रेष्ठ हैं! परन्तु मैं इसी प्रश्न में उलझा हुआ हूँ कि इन दोनों में कौन अधिक श्रेष्ठ है। और आपने देवों को स्वर्ग और दानवों को पाताल लोक में जगह दी ऐसा क्यों? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए मैं आपकी शरण में आया हूँ” – नारद ने ब्रम्हाजी से अपना प्रश्न बताते हुए कहा ।
नारद का प्रश्न सुन ब्रम्हदेव बोले, नारद इस प्रश्न का उत्तर देना तो कठिन है और इसका उत्तर मैं नहीं दे पाऊँगा क्योंकि देव और दानव दोनों ही मेरे पुत्र हैं एवं अपने ही दो पुत्रों की तुलना अपने ही मुख से करना उचित नहीं होगा! लेकिन फिर भी तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ढूंढने में मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ ।  तुम आज ही देवों और दानवों दोनों को मेरी और से भोजन का निमंत्रण भेजो ।  कल ही हम उनके लिए भोज का आयोजन करेंगे ।  और  कल ही तुम्हे तुम्हारे प्रश्न कि देव क्यों स्वर्ग-लोक में हैं तथा दानव पाताल-लोक में ; का उत्तर भी मिल जायेगा!
नारद तत्काल ही असुरों और देवों को निमंत्रण दे आये।
दुसरे दिन दानव ब्रम्ह-लोक में भोजन का आनंद लेने के लिए पहुँच गए और उन्होंने पहले पहुँचने के कारण भोजन की पहली शुरूआत खुद से करने के लिए ब्रम्हा जी से आग्रह किया ।
भोजन की थालियाँ परोसी गई, दानव भोजन करने के लिए बैठे, वे भोजन शुरू करने ही वाले थे कि ब्रम्हा जी हाथ में कुछ लकड़ियाँ लेकर उनके समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने कहा, “आज के भोजन की एक छोटी-सी शर्त है मैं यहाँ उपस्थित हर एक अतिथि के दोनों हाथों में इस प्रकार से लकड़ी बांधूंगा कि वो कोहनी से मुड़ नहीं पाए और इसी स्थिति में सभी को भोजन करना होगा । ”
कुछ देर बाद सभी असुरों के हाथों में लकड़ियाँ बंध चुकीं थीं। अब असुरों ने खाना शुरू किया , पर ऐसी स्थिति में कोई कैसे खा सकता था। कोई असुर सीधे थाली में मुँह डालकर खाने का प्रयास करने लगा तो कोई भोजन को हवा में उछालकर मुँह में डालने का प्रयत्न करने लगा ।  दानवों की ऐसी स्थिति देखकर नारद जी अपनी हंसी नहीं रोक पाए !
अपने सारे प्रयास विफल होते देख दानव बिना खाए ही उठ गए और क्रोधित होते हुए बोले, “हमारी यही दशा ही करनी थी तो हमें भोजन पर बुलाया ही क्यों? कुछ देर पश्चात् देव भी यहाँ पहुँचने वाले हैं ऐसी ही लकड़ियाँ आप उनके हाथों में भी बांधियेगा ताकि हम भी उनकी दुर्दशा का आनदं ले सकें…. ”
कुछ देर पश्चात् देव भी वहाँ पहुँच गए और अब देव भोजन के लिए बैठे, देवों के भोजन मंत्र पढ़ते ही ब्रम्हा जी ने सभी के हाथों में लकड़ियाँ बाँधी और भोजन की शर्त भी रखी ।

हाथों में लकड़ियाँ बंधने पर भी देव शांत रहे , वे समझ चुके थे कि खुद अपने हाथ से भोजन करना संभव नहीं है अतः वे थोड़ा आगे खिसक गए और थाली से अन्न उठा सामने वाले को खिलाकर भोजन आरम्भ किया । बड़े ही स्नेह के साथ वे एक दूसरे को खिला रहे थे, और भोजन का आनंद ले रहे थे, उन्होंने भोजन का भरपूर स्वाद लिया साथ ही दूसरों के प्रति अपना स्नेह, और सम्मान जाहिर किया ।
यह कल्पना हमे क्यों नहीं सूझी इसी विचार के साथ दानव बहुत दुखी होने लगे । नारद जी यह देखकर मुस्कुरा रहे थे । नारद जी ने ब्रम्हा जी से कहा, “पिताश्री  आपकी लीला अगाध है । युक्ति, शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग स्वार्थ हेतु करने की अपेक्षा परमार्थ के लिए करने वाले का जीवन ही श्रेष्ठ होता है । दूसरों की भलाई में ही अपनी भलाई है यह आपने सप्रमाण दिखा दिया और मुझे अपने प्रश्नों का उत्तर मिल गया है ।  ब्रम्हा जी को सबने प्रणाम किया और वहाँ से विदा ली ।

बालक ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कहानी

No comments :
बालक ध्रुव के ध्रुव  तारा बनने की कहानी 
स्वयंभुव मनु और शतरुपा के दो पुत्र थे-प्रियवत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नियां थीं। राजा उत्तानपाद को सुनीति से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। यद्पि सुनीति बड़ी रानी थी परन्तु उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था। एक बार सुनीति का पुत्र ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठा खेल रहा था। इतने में सुरुचि वहां आ पहुंची।
ध्रुव को उत्तानपाद की गोद में खेलते देख उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। सौतन के पुत्र को अपने पति की गोद में वह बर्दाश्त न कर सकी। उसका मन ईष्र्या से जल उठा। उसने झपट कर बालक ध्रुव को राजा की गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उसकी गोद में बिठा दिया तथा बालक ध्रुव से बोली, अरे मूर्ख! राजा की गोद में वही बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ हो।
तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है। इसलिए तुझे इनकी गोद में या राजसिंहासन पर बैठने का कोई अधिकार नहीं है। पांच वर्ष के ध्रुव को अपनी सौतेली मां के व्यवहार पर क्रोध आया। वह भागते हुए अपनी मां सुनीति के पास आए तथा सारी बात बताई। सुनीति बोली, बेटा! तेरी सौतेली माता सुरुचि से अधिक प्रेम के कारण तुम्हारे पिता हम लोगों से दूर हो गए हैं।

तुम भगवान को अपना सहारा बनाओ। माता के वचन सुनकर ध्रुव को कुछ ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह भगवान की भक्ति करने के लिए पिता के घर को छोड़ कर चल पड़े। मार्ग में उनकी भेंट देवार्षि नारद से हुई।  देवार्षि ने बालक ध्रुव को समझाया, किन्तु ध्रुव नहीं माना। नारद ने उसके दृढ़ संकल्प को देखते हुए ध्रुव को मंत्र की दीक्षा दी। इसके बाद  देवार्षि राजा उत्तानपाद के पास गए।
राजा उत्तानपाद को ध्रुव के चले जाने से बड़ा पछतावा हो रहा था। देवार्षि नारद को वहां पाकर उन्होंने उनका सत्कार किया। देवॢष ने राजा को ढांढस बंधाया कि भगवान उनके रक्षक हैं। भविष्य में वह अपने यश को सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैलाएंगे। उनके प्रभाव से आपकी कीर्ति इस संसार में फैलेगी। नारद जी के इन शब्दों से राजा उत्तानपाद को कुछ तसल्ली हुई।
उधर बालक ध्रुव यमुना के तट पर जा पहुंचे तथा महॢष नारद से मिले मंत्र से भगवान नारायण की तपस्या आरम्भ कर दी। तपस्या करते हुए ध्रुव को अनेक प्रकार की समस्याएं आईं परन्तु वह अपने संकल्प पर अडिग रहे। उनका मनोबल विचलित नहीं हुआ। उनके तप का तेज तीनों लोकों में फैलने लगा। ओम नमो भगवते वासुदेवाय की ध्वनि वैकुंठ में भी गूंज उठी।
तब भगवान नारायण भी योग निद्रा से उठ बैठे। ध्रुव को इस अवस्था में तप करते देख नारायण प्रसन्न हो गए तथा उन्हें दर्शन देने के लिए प्रकट हुए। नारायण बोले, हे राजकुमार! तुम्हारी समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी। तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वह लोक प्रदान कर रहा हूं, जिसके चारों ओर ज्योतिष चक्र घूमता है तथा जिसके आधार पर सब ग्रह नक्षत्र घूमते हैं।
प्रलयकाल में भी जिसका कभी नाश नहीं होता। सप्तऋषि भी नक्षत्रों के साथ जिस की प्रदक्षिणा करते हैं। तुम्हारे नाम पर वह लोक ध्रुव लोक कहलाएगा। इस लोक में छत्तीस सहस्र वर्ष तक तुम पृथ्वी पर शासन करोगे। समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अंत समय में तुम मेरे लोक को प्राप्त करोगे। बालक ध्रुव को ऐसा वरदान देकर नारायण अपने लोक लौट गए। नारायण के वरदान स्वरूप ध्रुव समय पाकर ध्रुव तारा बन गए .

जानिए क्यों किया सीता जी ने स्वयं कुम्भकरण के पुत्र का वध (why sita jee killed the son of kumbkaran)

No comments :
जानिए  क्यों  किया सीता जी  ने स्वयं कुम्भकरण के पुत्र का वध

रावण का अंत तथा विभीषण को लंका  का  राजा घोषित  कर श्रीराम अयोध्या वापिस आ चुके थे। एक दिन की बात है। उनके पास विभीषण पहुंचे। वह रावण के छोटे भाई थे। उन्होंने प्रभु राम से कहा, 'कुंभकर्ण का एक पुत्र मूलकासुर था, जो मूल नक्षत्र में पैदा हुआ था। तब उसे वन में रहने भेज दिया था। जहां उसे मधुमक्खियों ने पाल-पोस कर बढ़ा किया था।
लेकिन अब वो वापिस आ गया है। और मुझे मारकर अपने पिता की मौत का बदला लेना चाहता है। मैंने उसके साथ लगभग 6 माह तक युद्ध किया लेकिन अंततः उसकी विजयी हुई। तब मैं किसी तरह आपके पास न्याय के लिए मौजूद हुआ हूं।'
श्रीराम ने यह व्यथा सुन, अपने पुत्र लव-कुश और भाई लक्ष्‍मण से कहा, 'आप तुरंत सेना तैयार करें, हम लंका पुनः कूच, करेंगे।' इस तरह श्रीराम पुष्पक विमान से लंका की ओर चल निकले। जब मूलकासुर को पता चला कि श्रीराम आ रहे हैं तब वह अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए रणभूमि में पहुंच गया।
दोनों तरफ से युद्ध सात 7 तक चलता रहा। जो भी घायल होता उसे हनुमानजी संजीवनी बूटी से स्‍वस्‍थ करते लेकिन युद्ध मूलकासुर की तरफ से भारी दिख रहा था। तब चिंतित होकर श्रीराम ने एक वृक्ष के नीचे बैठकर ब्रह्मा जी का ध्यान किया।
ब्रह्माजी प्रकट हुए और उन्होंने श्रीराम से कहा, 'हे राम मैंने मूलकासुर को किसी स्त्री के हाथ मृत्यु का वरदान दिया है। मूलकासुर का वध सीता जी ही कर सकती हैं।'
तब श्रीराम ने युद्ध भूमि में लाने को हनुमानजी और विनतानंदन गरुड़ को सीता जी को युद्ध भूमि में लाने के लिए भेजा। सीता जी वहां पहुंची तो उन्होंने चंडिकास्त्र चलाकर मूलकासुर का वध कर दिया।

॥ कालीकवचम् ॥ kaali kavacham

No comments :
॥ कालीकवचम् ॥

भैरव् उवाच -
कालिका या महाविद्या कथिता भुवि दुर्लभा ।
तथापि हृदये शल्यमस्ति देवि कृपां कुरु ॥ १॥

कवचन्तु महादेवि कथयस्वानुकम्पया ।
यदि नो कथ्यते मातर्व्विमुञ्चामि तदा तनुं ॥ २॥

श्रीदेव्युवाच -
शङ्कापि जायते वत्स तव स्नेहात् प्रकाशितं ।
न वक्तव्यं न द्रष्टव्यमतिगुह्यतरं महत् ॥ ३॥

कालिका जगतां माता शोकदुःखविनाशिनी ।
विशेषतः कलियुगे महापातकहारिणी ॥ ४॥

काली मे पुरतः पातु पृष्ठतश्च कपालिनी ।
कुल्ला मे दक्षिणे पातु कुरुकुल्ला तथोत्तरे ॥ ५॥

विरोधिनी शिरः पातु विप्रचित्ता तु चक्षुषी ।
उग्रा मे नासिकां पातु कर्णौ चोग्रप्रभा मता ॥ ६॥

वदनं पातु मे दीप्ता नीला च चिबुकं सदा ।
घना ग्रीवां सदा पातु बलाका बाहुयुग्मकं ॥ ७॥

मात्रा पातु करद्वन्द्वं वक्षोमुद्रा सदावतु ।
मिता पातु स्तनद्वन्द्वं योनिमण्डलदेवता ॥ ८॥

ब्राह्मी मे जठरं पातु नाभिं नारायणी तथा ।
ऊरु माहेश्वरी नित्यं चामुण्डा पातु लिङ्गकं ॥ ९॥

कौमारी च कटीं पातु तथैव जानुयुग्मकं ।
अपराजिता च पादौ मे वाराही पातु चाङ्गुलीन् ॥ १०॥

सन्धिस्थानं नारसिंही पत्रस्था देवतावतु ।
रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु ॥ ११॥

तत्सर्वं रक्ष मे देवि कालिके घोरदक्षिणे ।
ऊर्द्धमधस्तथा दिक्षु पातु देवी स्वयं वपुः ॥ १२॥

हिंस्रेभ्यः सर्वदा पातु साधकञ्च जलाधिकात् ।
दक्षिणाकालिका देवी व्यपकत्वे सदावतु ॥ १३॥

इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद्देवदक्षिणां ।
न पूजाफलमाप्नोति विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ १४॥

कवचेनावृतो नित्यं यत्र तत्रैव गच्छति ।
तत्र तत्राभयं तस्य न क्षोभं विद्यते क्वचित् ॥ १५॥

इति कालीकुलसर्वस्वे कालीकवचं समाप्तम् ॥

bhairav uvAcha \-
kAlikA yA mahAvidyA kathitA bhuvi durlabhA |
tathApi hR^idaye shalyamasti devi kR^ipA.n kuru || 1||
kavachantu mahAdevi kathayasvAnukampayA |
yadi no kathyate mAtarvvimu~nchAmi tadA tanu.n || 2||
shrIdevyuvAcha \-
sha~NkApi jAyate vat.hsa tava snehAt.h prakAshita.n |
na vaktavya.n na draShTavyamatiguhyatara.n mahat.h || 3||
kAlikA jagatA.n mAtA shokaduHkhavinAshinI |
visheShataH kaliyuge mahApAtakahAriNI || 4||
kAlI me purataH pAtu pR^iShThatashcha kapAlinI |
kullA me daxiNe pAtu kurukullA tathottare || 5||
virodhinI shiraH pAtu viprachittA tu chaxuShI |
ugrA me nAsikA.n pAtu karNau chograprabhA matA || 6||
vadana.n pAtu me dIptA nIlA cha chibuka.n sadA |
ghanA grIvA.n sadA pAtu balAkA bAhuyugmaka.n || 7||
mAtrA pAtu karadvandva.n vaxomudrA sadAvatu |
mitA pAtu stanadvandva.n yonimaNDaladevatA || 8||
brAhmI me jaThara.n pAtu nAbhi.n nArAyaNI tathA |
Uru mAheshvarI nitya.n chAmuNDA pAtu li~Ngaka.n || 9||
kaumArI cha kaTI.n pAtu tathaiva jAnuyugmaka.n |
aparAjitA cha pAdau me vArAhI pAtu chA~NgulIn.h || 10||
sandhisthAna.n nArasi.nhI patrasthA devatAvatu |
raxAhInantu yat.hsthAna.n varjita.n kavachena tu || 11||
tat.hsarva.n raxa me devi kAlike ghoradaxiNe |
UrddhamadhastathA dixu pAtu devI svaya.n vapuH || 12||
hi.nsrebhyaH sarvadA pAtu sAdhaka~ncha jalAdhikAt.h |
daxiNAkAlikA devI vyapakatve sadAvatu || 13||
ida.n kavachamaj~nAtvA yo japeddevadaxiNA.n |
na pUjAphalamApnoti vighnastasya pade pade || 14||
kavachenAvR^ito nitya.n yatra tatraiva gachChati |
tatra tatrAbhaya.n tasya na xobha.n vidyate kvachit.h || 15||
iti kAlIkulasarvasve kAlIkavacha.n samAptam.h ||

॥ वैरिनाशनं कालीकवचम् ॥ vairinashanam kaalikavacham

No comments :
॥ वैरिनाशनं कालीकवचम् ॥

अथ वैरिनाशनं कालीकवचं ।

कैलास शिखरारूढं शङ्करं वरदं शिवम् ।
देवी पप्रच्छ सर्वज्ञं सर्वदेव महेश्वरम् ॥ १॥

श्रीदेव्युवाच
भगवन् देवदेवेश देवानां भोगद प्रभो ।
प्रब्रूहि मे महादेव गोप्यमद्यापि यत् प्रभो ॥ २॥

शत्रूणां येन नाशः स्यादात्मनो रक्षणं भवेत् ।
परमैश्वर्यमतुलं लभेद्येन हि तद् वद ॥ ३॥

वक्ष्यामि ते महादेवि सर्वधर्मविदाम्वरे ।
अद्भुतं कवचं देव्याः सर्वकामप्रसाधकम् ॥ ४॥

विशेषतः शत्रुनाशं सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
सर्वारिष्टप्रशमनंअभिचारविनाशनम् ॥ ५॥

सुखदं भोगदं चैव वशीकरणमुत्तमम् ।
शत्रुसङ्घाः क्षयं यान्ति भवन्ति व्याधिपीडिताः ।
दुःखिनो ज्वरिणश्चैव स्वानिष्टपतितास्तथा ॥ ६॥

विनियोगः
ॐ अस्य श्रीकालिकाकवचस्य भैरवऋषये नमः, शिरसि ।
गायत्री छन्दसे नमः, मुखे । श्रीकालिकादेवतायै नमः, हृदि ।
ह्रीं बीजाय नमः, गुह्ये । ह्रूँ शक्तये नमः, पादयोः ।
क्लीं कीलकाय नमः, सर्वाङ्गे ।
शत्रुसङ्घनाशनार्थे पाठे विनियोगः ।
इति विन्यस्य क्रां क्रीं क्रूं क्रैं क्रौं क्रः ।
इति करषडङ्गन्यासादिकं कुर्यात् ।

ध्यानम्
ध्यायेत् कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिणीम् ।
चतुर्भुजां ललज्जिह्वां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ॥ ७॥

नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसङ्घविदारिणीम् ।
नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं वरदं तथा ॥ ८॥

विभ्राणां रक्तवदनां दंष्ट्रालीं घोररूपिणीम् ।
अट्टाट्टहासनिरतां सर्वदा च दिगम्बराम् ॥ ९॥

शवासनस्थितां देवीं मुण्डमालाविभूषणाम् ।
इति ध्यात्वा महादेवीं ततस्तु कवचं पठेत् ॥ १०॥

कालिका घोररूपाद्या सर्वकामफलप्रदा ।
सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे ॥११॥

ॐ ह्रीं स्वरूपिणीं चैव ह्राँ ह्रीं ह्रूँ रूपिणी तथा । 
ह्राँ ह्रीं ह्रैं ह्रौं स्वरूपा च सदा शत्रून् प्रणश्यतु ॥ १२॥

श्रीं ह्रीं ऐं रूपिणी देवी भवबन्धविमोचिनी ।
ह्रीं सकलां ह्रीं रिपुश्च सा हन्तु सर्वदा मम ॥ १३॥

यथा शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः ।
वैरिनाशाय वन्दे तां कालिकां शङ्करप्रियाम् ॥ १४॥

ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका ।
कौमार्यैन्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विद्विषः ॥ १५॥

सुरेश्वरी घोररूपा चण्डमुण्डविनाशिनी ।
मुण्डमाला धृताङ्गी च सर्वतः पातु मा सदा ॥ १६॥

अथ मन्त्रः - ह्रां ह्रीं कालिके घोरदंष्ट्रे च रुधिरप्रिये ।
रूधिरापूर्णवक्त्रे च रूधिरेणावृतस्तनि ॥ १७॥

मम सर्वशत्रून् खादय खादय हिंस हिंस मारय मारय भिन्धि भिन्धि
छिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय विद्रावय विद्रावय शोषय शोषय
स्वाहा ।
ह्रां ह्रीं कालिकायै मदीयशत्रून् समर्पय स्वाहा ।
ॐ जय जय किरि किरि किट किट मर्द मर्द मोहय मोहय हर हर मम
रिपून् ध्वंसय ध्वंसय भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुधानान्
चामुण्डे सर्वजनान् राजपुरुषान् स्त्रियो मम वश्याः कुरु कुरु अश्वान् गजान्
दिव्यकामिनीः पुत्रान् राजश्रियं देहि देहि तनु तनु धान्यं धनं यक्षं
क्षां क्षूं क्षैं क्षौं क्षं क्षः स्वाहा । इति मन्त्रः ।

फलश्रुतिः
इत्येतत् कवचं पुण्यं कथितं शम्भुना पुरा । 
ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नश्यन्ति वैरिणः ॥ १८॥

वैरिणः प्रलयं यान्ति व्याधिताश्च भवन्ति हि ।
बलहीनाः पुत्रहीनाः शत्रुवस्तस्य सर्वदा ॥ १९॥

सहस्रपठनात् सिद्धिः कवचस्य भवेत्तथा ।
ततः कार्याणि सिध्यन्ति यथाशङ्करभाषितम् ॥ २०॥

श्मशानाङ्गारमादाय चूर्णं कृत्वा प्रयत्नतः ।
पादोदकेन पिष्टा च लिखेल्लोहशलाकया ॥ २१॥

भूमौ शत्रून् हीनरूपानुत्तराशिरसस्तथा ।
हस्तं दत्त्वा तु हृदये कवचं तु स्वयं पठेत् ॥ २२॥

प्राणप्रतिष्ठां कृत्वा वै तथा मन्त्रेण मन्त्रवित् ।
हन्यादस्त्रप्रहारेण शत्रो गच्छ यमक्षयम् ॥ २३॥

ज्वलदङ्गारलेपेन भवन्ति ज्वरिता भृशम् ।
प्रोङ्क्षयेद्वामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ॥ २४॥

वैरिनाशकरं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् ।
परमैश्वर्यदं चैव पुत्र पौत्रादि वृद्धिदम् ॥ २५॥

प्रभातसमये चैव पूजाकाले प्रयत्नतः ।
सायङ्काले तथा पाठात् सर्वसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ २६॥

शत्रुरुच्चाटनं याति देशाद् वा विच्युतो भवेत् ।
पश्चात् किङ्करतामेति सत्यं सत्यं न संशयः ॥ २७॥

शत्रुनाशकरं देवि सर्वसम्पत्करं शुभम् ।
सर्वदेवस्तुते देवि कालिके त्वां नमाम्यहम् ॥ २८॥

इति वैरिनाशनं कालीकवचं सम्पूर्णम् ।

atha vairinAshanaM kAlIkavachaM |

kailAsa shikharArUDhaM sha~NkaraM varadaM shivam |
devI paprachCha sarvaj~naM sarvadeva maheshvaram || 1||
shrIdevyuvAcha
bhagavan devadevesha devAnAM bhogada prabho |
prabrUhi me mahAdeva gopyamadyApi yat prabho || 2||
shatrUNAM yena nAshaH syAdAtmano rakShaNaM bhavet |
paramaishvaryamatulaM labhedyena hi tad vada || 3||
vakShyAmi te mahAdevi sarvadharmavidAmvare |
adbhutaM kavachaM devyAH sarvakAmaprasAdhakam || 4||
visheShataH shatrunAshaM sarvarakShAkaraM nR^iNAm |
sarvAriShTaprashamanaMabhichAravinAshanam || 5||
sukhadaM bhogadaM chaiva vashIkaraNamuttamam |
shatrusa~NghAH kShayaM yAnti bhavanti vyAdhipIDitAH |
duHkhino jvariNashchaiva svAniShTapatitAstathA || 6||

viniyogaH
OM asya shrIkAlikAkavachasya bhairavaR^iShaye namaH\, shirasi |
gAyatrI Chandase namaH\, mukhe | shrIkAlikAdevatAyai namaH\, hR^idi |
hrIM bIjAya namaH\, guhye | hrU.N shaktaye namaH\, pAdayoH |
klIM kIlakAya namaH\, sarvA~Nge |
shatrusa~NghanAshanArthe pAThe viniyogaH |
iti vinyasya krAM krIM krUM kraiM krauM kraH |
iti karaShaDa~NganyAsAdikaM kuryAt |

dhyAnam
dhyAyet kAlIM mahAmAyAM trinetrAM bahurUpiNIm |
chaturbhujAM lalajjihvAM pUrNachandranibhAnanAm || 7||
nIlotpaladalashyAmAM shatrusa~NghavidAriNIm |
naramuNDaM tathA khaDgaM kamalaM varadaM tathA || 8||
vibhrANAM raktavadanAM daMShTrAlIM ghorarUpiNIm |
aTTATTahAsaniratAM sarvadA cha digambarAm || 9||
shavAsanasthitAM devIM muNDamAlAvibhUShaNAm |
iti dhyAtvA mahAdevIM tatastu kavachaM paThet || 10||
kAlikA ghorarUpAdyA sarvakAmaphalapradA |
sarvadevastutA devI shatrunAshaM karotu me ||11||
OM hrIM svarUpiNIM chaiva hrA.N hrIM hrU.N rUpiNI tathA | 
hrA.N hrIM hraiM hrauM svarUpA cha sadA shatrUn praNashyatu || 12||
shrIM hrIM aiM rUpiNI devI bhavabandhavimochinI |
hrIM sakalAM hrIM ripushcha sA hantu sarvadA mama || 13||
yathA shumbho hato daityo nishumbhashcha mahAsuraH |
vairinAshAya vande tAM kAlikAM sha~NkarapriyAm || 14||
brAhmI shaivI vaiShNavI cha vArAhI nArasiMhikA |
kaumAryaindrI cha chAmuNDA khAdantu mama vidviShaH || 15||
sureshvarI ghorarUpA chaNDamuNDavinAshinI |
muNDamAlA dhR^itA~NgI cha sarvataH pAtu mA sadA || 16||

atha mantraH \- hrAM hrIM kAlike ghoradaMShTre cha rudhirapriye |
rUdhirApUrNavaktre cha rUdhireNAvR^itastani || 17||
mama sarvashatrUn khAdaya khAdaya hiMsa hiMsa mAraya mAraya bhindhi bhindhi
Chindhi Chindhi uchchATaya uchchATaya vidrAvaya vidrAvaya shoShaya shoShaya
svAhA |
hrAM hrIM kAlikAyai madIyashatrUn samarpaya svAhA |
OM jaya jaya kiri kiri kiTa kiTa marda marda mohaya mohaya hara hara mama
ripUn dhvaMsaya dhvaMsaya bhakShaya bhakShaya troTaya troTaya yAtudhAnAn
chAmuNDe sarvajanAn rAjapuruShAn striyo mama vashyAH kuru kuru ashvAn gajAn
divyakAminIH putrAn rAjashriyaM dehi dehi tanu tanu dhAnyaM dhanaM yakShaM
kShAM kShUM kShaiM kShauM kShaM kShaH svAhA | iti mantraH |

phalashrutiH
ityetat kavachaM puNyaM kathitaM shambhunA purA | 
ye paThanti sadA teShAM dhruvaM nashyanti vairiNaH || 18||
vairiNaH pralayaM yAnti vyAdhitAshcha bhavanti hi |
balahInAH putrahInAH shatruvastasya sarvadA || 19||
sahasrapaThanAt siddhiH kavachasya bhavettathA |
tataH kAryANi sidhyanti yathAsha~NkarabhAShitam || 20||
shmashAnA~NgAramAdAya chUrNaM kR^itvA prayatnataH |
pAdodakena piShTA cha likhellohashalAkayA || 21||
bhUmau shatrUn hInarUpAnuttarAshirasastathA |
hastaM dattvA tu hR^idaye kavachaM tu svayaM paThet || 22||
prANapratiShThAM kR^itvA vai tathA mantreNa mantravit |
hanyAdastraprahAreNa shatro gachCha yamakShayam || 23||
jvalada~NgAralepena bhavanti jvaritA bhR^isham |
pro~NkShayedvAmapAdena daridro bhavati dhruvam || 24||
vairinAshakaraM proktaM kavachaM vashyakArakam |
paramaishvaryadaM chaiva putra pautrAdi vR^iddhidam || 25||
prabhAtasamaye chaiva pUjAkAle prayatnataH |
sAya~NkAle tathA pAThAt sarvasiddhirbhaved dhruvam || 26||
shatruruchchATanaM yAti deshAd vA vichyuto bhavet |
pashchAt ki~NkaratAmeti satyaM satyaM na saMshayaH || 27||
shatrunAshakaraM devi sarvasampatkaraM shubham |
sarvadevastute devi kAlike tvAM namAmyaham || 28||

iti vairinAshanaM kAlIkavachaM sampUrNam |
 

॥ श्रीकालिकाकवचम् २ ॥ shri kaalikaa kavacham 2

No comments :
॥ श्रीकालिकाकवचम् २ ॥

श्रीसदाशिव उवाच -

कथितं परमं ब्रह्म प्रकृतेः स्तवनं महत् ।
आद्यायाः श्रीकालिकायाः कवचं शृणु साम्प्रतम् ॥ १॥

त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य ऋषिः शिवः ।
छन्दोऽनुष्टुब्देवता च आद्या काली प्रकीर्तिता ॥ २॥

मायाबीजं बीजमिति रमा शक्त्तिरुदाहृता ।
क्रीं कीलकं काम्यसिद्धौ विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ३॥

ह्रीमाद्या मे शिरः पातु श्रीं काली वदनं मम ।
हृदयं क्रीं परा शक्त्तिः पायात्कण्ठं परात्परा ॥ ४॥

नेत्रे पातु जगद्धात्री कर्णौ रक्षतु शङ्करी ।
घ्राणं पातु महामाया रसनां सर्वमङ्गला ॥ ५॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कपोलौ कमलालया ।
ओष्ठाधरौ क्षमा रक्षेच्चिबुकं चारुहासिनी ॥ ६॥

ग्रीवां पायात्कुलेशानी ककुत्पातु कृपामयी ।
द्वौ बाहू बाहुदा रक्षेत्करौ कैवल्यदायिनी ॥ ७॥

स्कन्धौ कपर्दिनी पातु पृष्ठं त्रैलोक्यतारिणी ।
पार्श्वे पायादपर्णा मे कटिं मे कमठासना ॥ ८॥

नाभौ पातु विशालाक्षी प्रजस्थानं प्रभावती ।
ऊरू रक्षतु कल्याणी पादौ मे पातु पार्वती ॥ ९॥

जयदुर्गावतु प्राणान्सर्वाङ्गं सर्वसिध्दिदा ।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन च ॥ १०॥

तत्सर्वं मे सदा रक्षेदाद्या काली सनातनी ।
इति ते कथितं दिव्यं त्रैलोक्यविजयाभिधम् ॥ ११॥

कवचं कालिकादेव्या आद्यायाः परमाद्भुतम् ।
पूजाकाले पठेत्यस्तु आद्याधिकृतमानसः ॥ १२॥

इति महानिर्वाणतन्त्रे सप्तम उल्लासे ५५-६६ श्लोकपर्यन्तं
श्रीकालिकाकवचम् सम्पूर्णम् ।


॥ श्रीकालिकाकवचम् २ ॥ shri kaalikaa kavacham 2

shrIsadAshiva uvAcha 

kathitaM paramaM brahma prakR^iteH stavanaM mahat |
AdyAyAH shrIkAlikAyAH kavachaM shR^iNu sAmpratam || 1||

trailokyavijayasyAsya kavachasya R^iShiH shivaH |
Chando.anuShTubdevatA cha AdyA kAlI prakIrtitA || 2||

mAyAbIjaM bIjamiti ramA shakttirudAhR^itA |
krIM kIlakaM kAmyasiddhau viniyogaH prakIrtitaH || 3||

hrImAdyA me shiraH pAtu shrIM kAlI vadanaM mama |
hR^idayaM krIM parA shakttiH pAyAtkaNThaM parAtparA || 4||

netre pAtu jagaddhAtrI karNau rakShatu sha~NkarI |
ghrANaM pAtu mahAmAyA rasanAM sarvama~NgalA || 5||

dantAn rakShatu kaumArI kapolau kamalAlayA |
oShThAdharau kShamA rakShechchibukaM chAruhAsinI || 6||

grIvAM pAyAtkuleshAnI kakutpAtu kR^ipAmayI |
dvau bAhU bAhudA rakShetkarau kaivalyadAyinI || 7||

skandhau kapardinI pAtu pR^iShThaM trailokyatAriNI | 
pArshve pAyAdaparNA me kaTiM me kamaThAsanA || 8||

nAbhau pAtu vishAlAkShI prajasthAnaM prabhAvatI |
UrU rakShatu kalyANI pAdau me pAtu pArvatI || 9||

jayadurgAvatu prANAnsarvA~NgaM sarvasidhdidA |
rakShAhInaM tu yatsthAnaM varjitaM kavachena cha || 10||

tatsarvaM me sadA rakShedAdyA kAlI sanAtanI |
iti te kathitaM divyaM trailokyavijayAbhidham || 11||

kavachaM kAlikAdevyA AdyAyAH paramAdbhutam |
pUjAkAle paThetyastu AdyAdhikR^itamAnasaH || 12||


 

॥ वैरिनाशनं कालिकाकवचम् ॥ vairinashanam kaalika kavacham

No comments :
॥ वैरिनाशनं कालिकाकवचम् ॥

श्रीगणेशाय नमः ।
कैलासशिखरासीनं देवदेवं जगद्गुरुम् ।
शङ्करं परिपप्रच्छ पार्वती परमेश्वरम् ॥ १॥

 var 
कैलासशिखरारूढं शङ्करं वरदं शिवम् ।
देवी पप्रच्छ सर्वज्ञं सर्वदेव महेश्वरम् ॥ १॥

पार्वत्युवाच
भगवन् देवदेवेश देवानां भोगद प्रभो ।
प्रब्रूहि मे महादेव गोप्यं चेद्यदि हे प्रभो ॥ २॥

शत्रूणां येन नाशः स्यादात्मनो रक्षणं भवेत् ।
परमैश्वर्यमतुलं लभेद्येन हि तद्वद ॥ ३॥

भैरव उवाच
वक्ष्यामि ते महादेवि सर्वधर्मविदां वरे ।
अद्भुतं कवचं देव्याः सर्वकामप्रसाधकम् ॥ ४॥

विशेषतः शत्रुनाशं सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
सर्वारिष्टप्रशमनं सर्वाभद्रविनाशनम् ॥ ५॥

सुखदं भोगदं चैव वशीकरणमुत्तमम् ।
शत्रुसंघाः क्षयं यान्ति भवन्ति व्याधिपीडिअताः ॥ ६॥

दुःखिनो ज्वरिणश्चैव स्वाभीष्टद्रोहिणस्तथा ।
भोगमोक्षप्रदं चैव कालिकाकवचं पठेत् ॥ ७॥

ॐ अस्य श्रीकालिकाकवचस्य भैरव ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः ।
श्रीकालिका देवता । शत्रुसंहारार्थ जपे विनियोगः ।
ध्यानम्
ॐ ध्यायेत्कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिणीम् ।
चतुर्भुजां ललज्जिह्वां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ॥ ८॥

नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसंघविदारिणीम् ।
नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं च वरं तथा ॥ ९॥

निर्भयां रक्तवदनां दंष्ट्रालीघोररूपिणीम् ।
साट्टहासाननां देवीं सर्वदां च दिगम्बरीम् ॥ १०॥

शवासनस्थितां कालीं मुण्डमालाविभूषिताम् ।
इति ध्यात्वा महाकालीं ततस्तु कवचं पठेत् ॥ ११॥

ॐ कालिका घोररूपा सर्वकामप्रदा शुभा ।
सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे ॥ १२॥

ॐ ह्रीं ह्रींरूपिणीं चैव ह्रां ह्रीं ह्रांरूपिणीं तथा ।
ह्रां ह्रीं क्षों क्षौंस्वरूपा सा सदा शत्रून्विदारयेत् ॥ १३॥

श्रीं-ह्रीं ऐंरूपिणी देवी भवबन्धविमोचनी ।
हुंरूपिणी महाकाली रक्षास्मान् देवि सर्वदा ॥ १४॥

यया शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः ।
वैरिनाशाय वन्दे तां कालिकां शङ्करप्रियाम् ॥ १५॥

ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका ।
कौमार्यैन्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विद्विषः ॥ १६॥

सुरेश्वरी घोररूपा चण्डमुण्डविनाशिनी ।
मुण्डमालावृताङ्गी च सर्वतः पातु मां सदा ॥ १७॥

ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे दंष्ट्रेव रुधिरप्रिये ।
रुधिरापूर्णवक्त्रे च रुधिरेणावृतस्तनि ॥ १८॥

मम शत्रून् खादय खादय हिंस हिंस मारय मारय भिन्धि भिन्धि
छिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय द्रावय द्रावय शोषय शोषय स्वाहा ।
ह्रां ह्रीं कालिकायै मदीयशत्रून् समर्पयामि स्वाहा ।
ॐ जय जय किरि किरि किटि किटि कट कट मर्द मर्द मोहय मोहय
हर हर मम रिपून ध्वंस ध्वंस
भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुधानान्
चामुण्डे सर्वजनान् राज्ञो राजपुरुषान् स्त्रियो मम वश्यान् कुरु कुरु
तनु तनु धान्यं धनं मेऽश्वान् गजान् रत्नानि दिव्यकामिनीः पुत्रान्
राजश्रियं देहि यच्छ क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः स्वाहा ।
इत्येतत् कवचं दिव्यं कथितं शम्भुना पुरा ।
ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नश्यन्ति शत्रवः ॥ १९॥

वैरिणः प्रलयं यान्ति व्याधिता या भवन्ति हि ।
बलहीनाः पुत्रहीनाः शत्रवस्तस्य सर्वदा ॥ २०॥

सहस्रपठनात्सिद्धिः कवचस्य भवेत्तदा ।
तत्कार्याणि च सिध्यन्ति यथा शङ्करभाषितम् ॥ २१॥

श्मशानाङ्गारमादाय चूर्णं कृत्वा प्रयत्नतः ।
पादोदकेन पिष्ट्वा तल्लिखेल्लोहशलाकया ॥ २२॥

भूमौ शत्रून् हीनरूपानुत्तराशिरसस्तथा ।
हस्तं दत्त्वा तु हृदये कवचं तु स्वयं पठेत् ॥ २३॥

शत्रोः प्राणप्रियष्ठां तु कुर्यान्मन्त्रेण मन्त्रवित् ।
हन्यादस्त्रं प्रहारेण शत्रो गच्छ यमक्षयम् ॥ २४॥

ज्वलदङ्गारतापेन भवन्ति ज्वरिता भृशम् ।
प्रोञ्छनैर्वामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ॥ २५॥

वैरिनाशकरं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् ।
परमैश्वर्यदं चैव पुत्रपौत्रादिवृद्धिदम् ॥ २६॥

प्रभातसमये चैव पूजाकाले च यत्नतः ।
सायङ्काले तथा पाठात्सर्वसिद्धिर्भवेद्ध्रुवम् ॥ २७॥

शत्रुरुच्चाटनं याति देशाद्वा विच्युतो भवेत् ।
पश्चात्किङ्करतामेति सत्यं सत्यं न संशयः ॥ २८॥

शत्रुनाशकरे देवि सर्वसम्पत्करे शुभे ।
सर्वदेवस्तुते देवि कालिके! त्वां नमाम्यहम् ॥ २९॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले कालिकाकल्पे कालिकाकवचं सम्पूर्णम् ॥


shrIgaNeshAya namaH |
kailAsashikharAsInaM devadevaM jagadgurum |
sha~NkaraM paripaprachCha pArvatI parameshvaram || 1||
pArvatyuvAcha
bhagavan devadevesha devAnAM bhogada prabho |
prabrUhi me mahAdeva gopyaM chedyadi he prabho || 2||
shatrUNAM yena nAshaH syAdAtmano rakShaNaM bhavet |
paramaishvaryamatulaM labhedyena hi tadvada || 3||
bhairava uvAcha
vakShyAmi te mahAdevi sarvadharmavidAM vare |
adbhutaM kavachaM devyAH sarvakAmaprasAdhakam || 4||
visheShataH shatrunAshaM sarvarakShAkaraM nR^iNAm |
sarvAriShTaprashamanaM sarvAbhadravinAshanam || 5||
sukhadaM bhogadaM chaiva vashIkaraNamuttamam |
shatrusa.nghAH kShayaM yAnti bhavanti vyAdhipIDiatAH || 6||
duHkhino jvariNashchaiva svAbhIShTadrohiNastathA |
bhogamokShapradaM chaiva kAlikAkavachaM paThet || 7||
OM asya shrIkAlikAkavachasya bhairava R^iShiH | anuShTup ChandaH |
shrIkAlikA devatA | shatrusa.nhArArtha jape viniyogaH |
dhyAnam
OM dhyAyetkAlIM mahAmAyAM trinetrAM bahurUpiNIm |
chaturbhujAM lalajjihvAM pUrNachandranibhAnanAm || 8||
nIlotpaladalashyAmAM shatrusa.nghavidAriNIm |
naramuNDaM tathA khaDgaM kamalaM cha varaM tathA || 9||
nirbhayAM raktavadanAM da.nShTrAlIghorarUpiNIm |
sATTahAsAnanAM devIM sarvadAM cha digambarIm || 10||
shavAsanasthitAM kAlIM muNDamAlAvibhUShitAm |
iti dhyAtvA mahAkAlIM tatastu kavachaM paThet || 11||
OM kAlikA ghorarUpA sarvakAmapradA shubhA |
sarvadevastutA devI shatrunAshaM karotu me || 12||
OM hrIM hrI.nrUpiNIM chaiva hrAM hrIM hrA.nrUpiNIM tathA |
hrAM hrIM kShoM kShau.nsvarUpA sA sadA shatrUnvidArayet || 13||
shrIM\-hrIM ai.nrUpiNI devI bhavabandhavimochanI |
hu.nrUpiNI mahAkAlI rakShAsmAn devi sarvadA || 14||
yayA shumbho hato daityo nishumbhashcha mahAsuraH |
vairinAshAya vande tAM kAlikAM sha~NkarapriyAm || 15||
brAhmI shaivI vaiShNavI cha vArAhI nArasi.nhikA |
kaumAryaindrI cha chAmuNDA khAdantu mama vidviShaH || 16||
sureshvarI ghorarUpA chaNDamuNDavinAshinI |
muNDamAlAvR^itA~NgI cha sarvataH pAtu mAM sadA || 17||
hrIM hrIM hrIM kAlike ghore da.nShTreva rudhirapriye |
rudhirApUrNavaktre cha rudhireNAvR^itastani || 18||
mama shatrUn khAdaya khAdaya hi.nsa hi.nsa mAraya mAraya bhindhi bhindhi
Chindhi Chindhi uchchATaya uchchATaya drAvaya drAvaya shoShaya shoShaya svAhA |
hrAM hrIM kAlikAyai madIyashatrUn samarpayAmi svAhA |
OM jaya jaya kiri kiri kiTi kiTi kaTa kaTa marda marda mohaya mohaya
hara hara mama ripUna dhva.nsa dhva.nsa bhakShaya bhakShaya troTaya troTaya yAtudhAnAn
chAmuNDe sarvajanAn rAj~no rAjapuruShAn striyo mama vashyAn kuru kuru
tanu tanu dhAnyaM dhanaM me.ashvAn gajAn ratnAni divyakAminIH putrAn
rAjashriyaM dehi yachCha kShAM kShIM kShUM kShaiM kShauM kShaH svAhA |
ityetat kavachaM divyaM kathitaM shambhunA purA |
ye paThanti sadA teShAM dhruvaM nashyanti shatravaH || 19||
vairiNaH pralaya.n yAnti vyAdhitA yA bhavanti hi |
balahInAH putrahInAH shatravastasya sarvadA || 20||
sahasrapaThanAtsiddhiH kavachasya bhavettadA |
tatkAryANi cha sidhyanti yathA sha~NkarabhAShitam || 21||
shmashAnA~NgAramAdAya chUrNaM kR^itvA prayatnataH |
pAdodakena piShTvA tallikhellohashalAkayA || 22||
bhUmau shatrUn hInarUpAnuttarAshirasastathA |
hastaM dattvA tu hR^idaye kavachaM tu svayaM paThet || 23||
shatroH prANapriyaShThAM tu kuryAnmantreNa mantravit |
hanyAdastraM prahAreNa shatro gachCha yamakShayam || 24||
jvalada~NgAratApena bhavanti jvaritA bhR^isham |
pro~nChanairvAmapAdena daridro bhavati dhruvam || 25||
vairinAshakaraM proktaM kavachaM vashyakArakam |
paramaishvaryadaM chaiva putrapautrAdivR^iddhidam || 26||
prabhAtasamaye chaiva pUjAkAle cha yatnataH |
sAya~NkAle tathA pAThAtsarvasiddhirbhaveddhruvam || 27||
shatruruchchATanaM yAti deshAdvA vichyuto bhavet |
pashchAtki~NkaratAmeti satyaM satyaM na sa.nshayaH || 28||
shatrunAshakare devi sarvasampatkare shubhe |
sarvadevastute devi kAlike! tvAM namAmyaham || 29||
|| iti shrIrudrayAmale kAlikAkalpe kAlikAkavachaM sampUrNam ||

॥ कामाख्या कवचम् ॥ kamakhya kavacham

No comments :
॥ कामाख्या कवचम् ॥
           कामाख्या ध्यानम्
रविशशियुतकर्णा कुंकुमापीतवर्णा
मणिकनकविचित्रा लोलजिह्वा त्रिनेत्रा ।
अभयवरदहस्ता साक्षसूत्रप्रहस्ता
प्रणतसुरनरेशा सिद्धकामेश्वरी सा ॥ १॥

अरुणकमलसंस्था रक्तपद्मासनस्था
नवतरुणशरीरा मुक्तकेशी सुहारा ।
शवहृदि पृथुतुङ्गा स्वाङ्घ्रियुग्मा मनोज्ञा
शिशुरविसमवस्त्रा सर्वकामेश्वरी सा ॥ २॥

विपुलविभवदात्री स्मेरवक्त्रा सुकेशी
दलितकरकदन्ता सामिचन्द्रावतंसा ।
मनसिज-दृशदिस्था योनिमुद्रालसन्ती
पवनगगनसक्ता संश्रुतस्थानभागा ।
चिन्ता चैवं दीप्यदग्निप्रकाशा
धर्मार्थाद्यैः साधकैर्वाञ्छितार्था ॥ ३॥

         कामाख्या-कवचम्
ॐ कामाख्याकवचस्य मुनिर्बृहस्पतिः स्मृतः ।
देवी कामेश्वरी तस्य अनुष्टुप्छन्द इष्यते ॥

विनियोगः सर्वसिद्धौ तञ्च शृण्वन्तु देवताः ।
शिराः कामेश्वरी देवी कामाख्या चक्षूषी मम ॥

शारदा कर्णयुगलं त्रिपुरा वदनं तथा ।
कण्ठे पातु माहामाया हृदि कामेश्वरी पुनः ॥

कामाख्या जठरे पातु शारदा पातु नाभितः ।
त्रिपुरा पार्श्वयोः पातु महामाया तु मेहने ॥

गुदे कामेश्वरी पातु कामाख्योरुद्वये तु माम् ।
जानुनोः शारदा पातु त्रिपुरा पातु जङ्घयोः ॥

माहामाया पादयुगे नित्यं रक्षतु कामदा ।
केशे कोटेश्वरि पातु नासायां पातु दीर्घिका ॥

भैरवी (शुभगा)  दन्तसङ्घाते मातङ्ग्यवतु चाङ्गयोः ।
बाह्वोर्मे ललिता पातु पाण्योस्तु वनवासिनी ॥

विन्ध्यवासिन्यङ्गुलीषु श्रीकामा नखकोटिषु ।
रोमकूपेषु सर्वेषु गुप्तकामा सदावतु ॥

पादाङ्गुली पार्ष्णिभागे पातु मां भुवनेश्वरी ।
जिह्वायां पातु मां सेतुः कः कण्टाभ्यन्तरेऽवतु ॥

पातु नश्चान्तरे वक्षः ईः पातु जठरान्तरे ।
सामीन्दुः पातु मां वस्तौ विन्दुर्विन्द्वन्तरेऽवतु ॥

ककारस्त्वचि मां पातु रकारोऽस्थिषु सर्वदा ।
लकारः सर्वनाडिषु ईकारः सर्वसन्धिषु ॥

चन्द्रः स्नायुषु मां पातु विन्दुर्मज्जासु सन्ततम् ।
पूर्वस्यां दिशि चाग्नेय्यां दक्षिणे नैरृते तथा ॥

वारुणे चैव वायव्यां कौबेरे हरमन्दिरे ।
अकाराद्यास्तु वैष्णव्याः अष्टौ वर्णास्तु मन्त्रगाः ॥

पान्तु तिष्ठन्तु सततं समुद्भवविवृद्धये ।
ऊर्द्ध्वाधः पातु सततं मां तु सेतुद्वये सदा ॥

नवाक्षराणि मन्त्रेषु शारदा मन्त्रगोचरे ।
नवस्वरास्तु मां नित्यं नासादिषु समन्ततः ॥

वातपित्तकफेभ्यस्तु त्रिपुरायास्तु त्र्यक्षरम् ।
नित्यं रक्षतु भूतेभ्यः पिशाचेभ्यस्तथैव च ॥

तत् सेतु सततं पातु क्रव्याद्भ्यो मान्निवारकम् 
नमः कामेश्वरीं देवीं महामायां जगन्मयीम् ।
या भूत्वा प्रकृतिर्नित्या तनोति जगदायतम् ॥

कामाख्यामक्षमालाभयवरदकरां सिद्धसूत्रैकहस्तां
श्वेतप्रेतोपरिस्थां मणिकनकयुतां कुङ्कमापीतवर्णाम् ।
ज्ञानध्यानप्रतिष्ठामतिशयविनयां ब्रह्मशक्रादिवन्द्या-
मग्नौ विन्द्वन्तमन्त्रप्रियतमविषयां नौमि विन्ध्याद्र्यतिस्थाम् ॥  
मध्ये मध्यस्य भागे सततविनमिता भावहारावली या
लीलालोकस्य कोष्ठे सकलगुणयुता व्यक्तरूपैकनम्रा ।
विद्या विद्यैकशान्ता शमनशमकरी क्षेमकर्त्री वरास्या
नित्यं पायात् पवित्रप्रणववरकरा कामपूर्वेश्वरी नः ॥

इति हरेः कवचं तनुकेस्थितं शमयति वै शमनं तथा यदि ।
इह गृहाण यतस्व विमोक्षणे सहित एष विधिः सह चामरैः ॥

इतीदं कवचं यस्तु कामाख्यायाः पठेद्बुधः ।
सुकृत् तं तु महादेवी तनु व्रजति नित्यदा ॥

नाधिव्याधिभयं तस्य न क्रव्याद्भ्यो भयं तथा ।
नाग्नितो नापि तोयेभ्यो न रिपुभ्यो न राजतः ॥

दीर्घायुर्बहुभोगी च पुत्रपौत्रसमन्वितः ।
आवर्तयन् शतं देवीमन्दिरे मोदते परे ॥

यथा तथा भवेद्बद्धः सङ्ग्रामेऽन्यत्र वा बुधः ।
तत्क्षणादेव मुक्तः स्यात् स्मारणात् कवचस्य तु ॥

kamakhya kavacham

kAmAkhyA dhyAnam
ravishashiyutakarNA kuMkumApItavarNA
maNikanakavichitrA lolajihvA trinetrA |
abhayavaradahastA sAkShasUtraprahastA
praNatasuranareshA siddhakAmeshvarI sA || 1||
aruNakamalasamsthA raktapadmAsanasthA
navataruNasharIrA muktakeshI suhArA |
shavahR^idi pR^ithutu~NgA svA~NghriyugmA manoj~nA
shishuravisamavastrA sarvakAmeshvarI sA || 2||
vipulavibhavadAtrI smeravaktrA sukeshI
dalitakarakadantA sAmichandrAvataMsA |
manasija\-dR^ishadisthA yonimudrAlasantI
pavanagaganasaktA sa.nshrutasthAnabhAgA |
chintA chaivaM dIpyadagniprakAshA
dharmArthAdyaiH sAdhakairvA~nChitArthA || 3||

         kAmAkhyA\-kavacham
OM kAmAkhyAkavachasya munirbR^ihaspatiH smR^itaH |
devI kAmeshvarI tasya anuShTupchhanda iShyate ||
viniyogaH sarvasiddhau ta~ncha shR^iNvantu devatAH |
shirAH kAmeshvarI devI kAmAkhyA chakShUShI mama ||
shAradA karNayugalaM tripurA vadanaM tathA |
kaNThe pAtu mAhAmAyA hR^idi kAmeshvarI punaH ||
kAmAkhyA jaThare pAtu shAradA pAtu nAbhitaH |
tripurA pArshvayoH pAtu mahAmAyA tu mehane ||
gude kAmeshvarI pAtu kAmAkhyorudvaye tu mAm |
jAnunoH shAradA pAtu tripurA pAtu ja~NghayoH ||
mAhAmAyA pAdayuge nityaM rakShatu kAmadA |
keshe koTeshvari pAtu nAsAyAM pAtu dIrghikA ||
bhairavI ##(##shubhagA##) ## dantasa~NghAte mAta~Ngyavatu chA~NgayoH |
bAhvorme lalitA pAtu pANyostu vanavAsinI ||
vindhyavAsinya~NgulIShu shrIkAmA nakhakoTiShu |
romakUpeShu sarveShu guptakAmA sadAvatu ||
pAdA~NgulI pArShNibhAge pAtu mAM bhuvaneshvarI |
jihvAyAM pAtu mAM setuH kaH kaNTAbhyantare.avatu ||
pAtu nashchAntare vakShaH IH pAtu jaTharAntare |
sAmInduH pAtu mAM vastau vindurvindvantare.avatu ||
kakArastvachi mAM pAtu rakAro.asthiShu sarvadA |
lakAraH sarvanADiShu IkAraH sarvasandhiShu ||
chandraH snAyuShu mAM pAtu vindurmajjAsu santatam |
pUrvasyAM dishi chAgneyyAM dakShiNe nairR^ite tathA ||
vAruNe chaiva vAyavyAM kaubere haramandire |
akArAdyAstu vaiShNavyAH aShTau varNAstu mantragAH ||
pAntu tiShThantu satataM samudbhavavivR^iddhaye |
UrddhvAdhaH pAtu satataM mAM tu setudvaye sadA ||
navAkSharANi mantreShu shAradA mantragochare |
navasvarAstu mAM nityaM nAsAdiShu samantataH ||
vAtapittakaphebhyastu tripurAyAstu tryakSharam |
nityaM rakShatu bhUtebhyaH pishAchebhyastathaiva cha ||
tat setu satataM pAtu kravyAdbhyo mAnnivArakam 
namaH kAmeshvarIM devIM mahAmAyAM jaganmayIm |
yA bhUtvA prakR^itirnityA tanoti jagadAyatam ||
kAmAkhyAmakShamAlAbhayavaradakarAM siddhasUtraikahastAM
shvetapretoparisthAM maNikanakayutAM ku~NkamApItavarNAm |
j~nAnadhyAnapratiShThAmatishayavinayAM brahmashakrAdivandyA\-
magnau vindvantamantrapriyatamaviShayAM naumi vindhyAdryatisthAm ||  
madhye madhyasya bhAge satatavinamitA bhAvahArAvalI yA
lIlAlokasya koShThe sakalaguNayutA vyaktarUpaikanamrA |
vidyA vidyaikashAntA shamanashamakarI kShemakartrI varAsyA
nityaM pAyAt pavitrapraNavavarakarA kAmapUrveshvarI naH ||
iti hareH kavachaM tanukesthitaM shamayati vai shamanaM tathA yadi |
iha gR^ihANa yatasva vimokShaNe sahita eSha vidhiH saha chAmaraiH ||
itIdaM kavachaM yastu kAmAkhyAyAH paThedbudhaH |
sukR^it taM tu mahAdevI tanu vrajati nityadA ||
nAdhivyAdhibhayaM tasya na kravyAdbhyo bhayaM tathA |
nAgnito nApi toyebhyo na ripubhyo na rAjataH ||
dIrghAyurbahubhogI cha putrapautrasamanvitaH |
Avartayan shataM devImandire modate pare ||
yathA tathA bhavedbaddhaH sa~NgrAme.anyatra vA budhaH |
tatkShaNAdeva muktaH syAt smAraNAt kavachasya tu ||

॥ श्रीकमलाकवचम् ॥ shri kamla kavacham

No comments :
॥ श्रीकमलाकवचम् ॥

श्रीगणेशाय नमः ।
ॐ अस्याश्चतुरक्षराविष्णुवनितायाः
कवचस्य श्रीभगवान् शिव ऋषीः ।
अनुष्टुप्छन्दः । वाग्भवा देवता ।
वाग्भवं बीजम् । लज्जा शक्तिः ।
रमा कीलकम् । कामबीजात्मकं कवचम् ।
मम सुकवित्वपाण्डित्यसमृद्धिसिद्धये पाठे विनियोगः ।
ऐङ्कारो मस्तके पातु वाग्भवां सर्वसिद्धिदा ।
ह्रीं पातु चक्षुषोर्मध्ये चक्षुर्युग्मे च शाङ्करी ॥ १॥

जिह्वायां मुखवृत्ते च कर्णयोर्दन्तयोर्नसि ।
ओष्ठाधारे दन्तपङ्क्तौ तालुमूले हनौ पुनः ॥ २॥

पातु मां विष्णुवनिता लक्ष्मीः श्रीवर्णरूपिणी ॥

कर्णयुग्मे भुजद्वन्द्वे स्तनद्वन्द्वे च पार्वती ॥ ३॥

हृदये मणिबन्धे च ग्रीवायां पार्श्वर्योद्वयोः ।
पृष्ठदेशे तथा गुह्ये वामे च दक्षिणे तथा ॥ ४॥

उपस्थे च नितम्बे च नाभौ जंघाद्वये पुनः ।
जानुचक्रे पदद्वन्द्वे घुटिकेऽङ्गुलिमूलके ॥ ५॥

स्वधा तु प्राणशक्त्यां वा सीमन्यां मस्तके तथा ।
सर्वाङ्गे पातु कामेशी महादेवी समुन्नतिः ॥ ६॥

पुष्टिः पातु महामाया उत्कृष्टिः सर्वदाऽवतु ।
ऋद्धिः पातु सदा देवी सर्वत्र शम्भुवल्लभा ॥ ७॥

वाग्भवा सर्वदा पातु पातु मां हरगेहिनी ।
रमा पातु महादेवी पातु माया स्वराट् स्वयम् ॥ ८॥

सर्वाङ्गे पातु मां लक्ष्मीर्विष्णुमाया सुरेश्वरी ।
विजया पातु भवने जया पातु सदा मम ॥ ९॥

शिवदूती सदा पातु सुन्दरी पातु सर्वदा ।
भैरवी पातु सर्वत्र भेरुण्डा सर्वदाऽवतु ॥ १०॥

त्वरिता पातु मां नित्यमुग्रतारा सदाऽवतु ।
पातु मां कालिका नित्यं कालरात्रिः सदाऽवतु ॥ ११॥

नवदुर्गाः सदा पातु कामाख्या सर्वदाऽवतु ।
योगिन्यः सर्वदा पातु मुद्राः पातु सदा सम ॥ १२॥

मात्राः पातु सदा देव्यश्चक्रस्था योगिनी गणाः ।
सर्वत्र सर्वकार्येषु सर्वकर्मसु सर्वदा ॥ १३॥

पातु मां देवदेवी च लक्ष्मीः सर्वसमृद्धिदा ॥

॥ इति विश्वसारतन्त्रे श्रीकमलाकवचं सम्पूर्णम् ॥

shri kamla kavacham

॥ एकाक्षरगणपतिकवचम् ॥ ekakshar ganpati kavacham

No comments :
॥ एकाक्षरगणपतिकवचम् ॥
त्रैलोक्यमोहनकवचम् ।

श्रीगणेशाय नमः ।
नमस्तस्मै गणेशाय सर्वविघ्नविनाशिने ।
कार्यारम्भेषु सर्वेषु पूजितो यः सुरैरपि ॥ १॥

पार्वत्युवाच ।
भगवन् देवदेवेश लोकानुग्रहकारकः ।
इदानी श्रोतृमिच्छामि कवचं यत्प्रकाशितम् ॥ २॥

एकाक्षरस्य मन्त्रस्य त्वया प्रीतेन चेतसा ।
वदैतद्विधिवद्देव यदि ते वल्लभास्म्यहम् ॥ ३॥

ईश्वर उवाच ।
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि नाख्येयमपि ते ध्रुवम् ।
एकाक्षरस्य मन्त्रस्य कवचं सर्वकामदम् ॥ ४॥

यस्य स्मरणमात्रेण न विघ्नाः प्रभवन्ति हि ।
त्रिकालमेककालं वा ये पठन्ति सदा नराः ॥ ५॥

तेषां क्वापि भयं नास्ति सङ्ग्रामे सङ्कटे गिरौ ।
भूतवेतालरक्षोभिर्ग्रहैश्चापि न बाध्यते ॥ ६॥

इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् गणनायकम् ।
न च सिद्धिमाप्नोति मूढो वर्षशतैरपि ॥ ७॥

अघोरो मे यथा मन्त्रो मन्त्राणामुत्तमोत्तमः ।
तथेदं कवचं देवि दुर्लभं भुवि मानवैः ॥ ८॥

गोपनीयं प्रयत्नेन नाज्येयं यस्य कस्यचित् ।
तव प्रीत्या महेशानि कवचं कथ्यतेऽद्भुतम् ॥ ९॥

एकाक्षरस्य मन्त्रस्य गणकश्चर्षिरीरितः ।
त्रिष्टुप् छन्दस्तु विघ्नेशो देवता परिकीर्तिता ॥ १०॥

गँ बीजं शक्तिरोङ्कारः सर्वकामार्थसिद्धये ।
सर्वविघ्नविनाशाय विनियोगस्तु कीर्तितः ॥ ११॥

ध्यानम् ।
रक्ताम्भोजस्वरूपं लसदरुणसरोजाधिरूढं त्रिनेत्रं पाशं
चैवाङ्कुशं वा वरदमभयदं बाहुभिर्धारयन्तम् ।
शक्त्या युक्तं गजास्यं पृथुतरजठरं नागयज्ञोपवीतं देवं
चन्द्रार्धचूडं सकलभयहरं विघ्नराजं नमामि ॥ १२॥

कवचम् ।
गणेशो मे शिरः पातु भालं पातु गजाननः ।
नेत्रे गणपतिः पातु गजकर्णः श्रुती मम ॥ १३॥

कपोलौ गणनाथस्तु घ्राणं गन्धर्वपूजितः ।
मुखं मे सुमुखः पातु चिबुकं गिरिजासुतः ॥ १४॥

जिह्वां पातु गणक्रीडो दन्तान् रक्षतु दुर्मुखः ।
वाचं विनायकः पातु कष्टं पातु महोत्कटः ॥ १५॥

स्कन्धौ पातु गजस्कन्धो बाहू मे विघ्ननाशनः ।
हस्तौ रक्षतु हेरम्बो वक्षः पातु महाबलः ॥ १६॥

हृदयं मे गणपतिरुदरं मे महोदरः ।
नाभि गम्भीरहृदयः पृष्ठं पातु सुरप्रियः ॥ १७॥

कटिं मे विकटः पातु गुह्यं मे गुहपूजितः ।
ऊरु मे पातु कौमारं जानुनी च गणाधिपः ॥ १८॥

जङ्घे गजप्रदः पातु गुल्फौ मे धूर्जटिप्रियः ।
चरणौ दुर्जयः पातुर्साङ्गं गणनायकः ॥ १९॥

आमोदो मेऽग्रतः पातु प्रमोदः पातु पृष्ठतः ।
दक्षिणे पातु सिद्धिशो वामे विघ्नधरार्चितः ॥ २०॥

प्राच्यां रक्षतु मां नित्यं चिन्तामणिविनायकः ।
आग्नेयां वक्रतुण्डो मे दक्षिणस्यामुमासुतः ॥ २१॥

नैऋत्यां सर्वविघ्नेशः पातु नित्यं गणेश्वरः ।
प्रतीच्यां सिद्धिदः पातु वायव्यां गजकर्णकः ॥ २२॥

कौबेर्यां सर्वसिद्धिशः ईशान्यामीशनन्दनः ।
ऊर्ध्वं विनायकः पातु अधो मूषकवाहनः ॥ २३॥

दिवा गोक्षीरधवलः पातु नित्यं गजाननः ।
रात्रौ पातु गणक्रीडः सन्ध्योः सुरवन्दितः ॥ २४॥

पाशाङ्कुशाभयकरः सर्वतः पातु मां सदा ।
ग्रहभूतपिशाचेभ्यः पातु नित्यं गजाननः ॥ २५॥

सत्वं रजस्तमो वाचं बुद्धिं ज्ञानं स्मृतिं दयाम् ।
धर्मचतुर्विधं लक्ष्मीं लज्जां कीर्तिं कुलं वपुः ॥ २६॥

धनं धान्यं गृहं दारान् पौत्रान् सखींस्तथा ।
एकदन्तोऽवतु श्रीमान् सर्वतः शङ्करात्मजः ॥ २७॥

सिद्धिदं कीर्तिदं देवि प्रपठेन्नियतः शुचिः ।
एककालं द्विकालं वापि भक्तिमान् ॥ २८॥

न तस्य दुर्लभं किञ्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो जायते भुवि मानवः ॥ २९॥

यं यं कामयते नित्यं सुदुर्लभमनोरथम् ।
तं तं प्राप्नोति सकलं षण्मासान्नात्र संशयः ॥ ३०॥

मोहनस्तम्भनाकर्षमारणोच्चाटनं वशम् ।
स्मरणादेव जायन्ते नात्र कार्या विचारणा ॥ ३१॥

सर्वविघ्नहरं देवं ग्रहपीडानिवारणम् ।
सर्वशत्रुक्षयकरं सर्वापत्तिनिवारणम् ॥ ३२॥

धृत्वेदं कवचं देवि यो जपेन्मन्त्रमुत्तमम् ।
न वाच्यते स विघ्नौघैः कदाचिदपि कुत्रचित् ॥ ३३॥

भूर्जे लिखित्वा विधिवद्धारयेद्यो नरः शुचिः ।
एकबाहो शिरः कण्ठे पूजयित्वा गणाधिपम् ॥ ३४॥

एकाक्षरस्य मन्त्रस्य कवचं देवि दुर्लभम् ।
यो धारयेन्महेशानि न विघ्नैरभिभूयते ॥ ३५॥

गणेशहृदयं नाम कवचं सर्वसिद्धिदम् ।
पठेद्वा पाठयेद्वापि तस्य सिद्धिः करे स्थिता ॥ ३६॥

न प्रकाश्यं महेशानि कवचं यत्र कुत्रचित् ।
दातव्यं भक्तियुक्ताय गुरुदेवपराय च ॥ ३७॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले एकाक्षरगणपतिकवचं अथवा
त्रैलोक्यमोहनकवचं सम्पूर्णम् ॥

Ekakshar Ganpati kavacham



॥ एकादशमुखहनुमत्कवचम् ॥ shri ekadashmukh hanumat kavacham)

No comments :
॥ एकादशमुखहनुमत्कवचम् ॥

श्रीगणेशाय नमः ।
लोपामुद्रा उवाच ।
कुम्भोद्भव दयासिन्धो श्रुतं हनुमतः परम् ।
यन्त्रमन्त्रादिकं सर्वं त्वन्मुखोदीरितं मया ॥ १॥

दयां कुरु मयि प्राणनाथ वेदितुमुत्सहे ।
कवचं वायुपुत्रस्य एकादशमुखात्मनः ॥ २॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा प्रियायाः प्रश्रयान्वितम् ।
वक्तुं प्रचक्रमे तत्र लोपामुद्रां प्रति प्रभुः ॥ ३॥

अगस्त्य उवाच ।
नमस्कृत्वा रामदूतां हनुमन्तं महामतिम् ।
ब्रह्मप्रोक्तं तु कवचं शृणु सुन्दरि सादरम् ॥ ४॥

सनन्दनाय सुमहच्चतुराननभाषितम् ।
कवचं कामदं दिव्यं रक्षःकुलनिबर्हणम् ॥ ५॥

सर्वसम्पत्प्रदं पुण्यं मर्त्यानां मधुरस्वरे ।
ॐ अस्य श्रीकवचस्यैकादशवक्त्रस्य धीमतः ॥ ६॥

हनुमत्स्तुतिमन्त्रस्य सनन्दन ऋषिः स्मृतः ।
प्रसन्नात्मा हनूमांश्च देवता परिकीर्तिता ॥ ७॥

छन्दोऽनुष्टुप् समाख्यातं बीजं वायुसुतस्तथा ।
मुख्यः प्राणः शक्तिरिति विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ८॥

सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थं जप एवमुदीरयेत् ।
ॐ स्फ्रें-बीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः ॥ ९॥

क्रौं-बीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः ।
क्षं-बीजरूपः कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः ॥ १०॥

ग्लौं-बीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः ।
वं-बीजार्थश्च कण्ठं मे पातु चाक्षयकारकः ॥ ११॥

ऐं-बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः ।
वं-बीजकीर्तितः पातु बाहू मे चाञ्जनीसुतः ॥ १२॥

ह्रां-बीजो राक्षसेन्द्रस्य दर्पहा पातु चोदरम् ।
ह्रसौं-बीजमयो मध्यं पातु लङ्काविदाहकः ॥ १३॥

ह्रीं-बीजधरः पातु गुह्यं देवेन्द्रवन्दितः ।
रं-बीजात्मा सदा पातु चोरू वार्धिलंघनः ॥ १४॥

सुग्रीवसचिवः पातु जानुनी मे मनोजवः ।
पादौ पादतले पातु द्रोणाचलधरो हरिः ॥ १५॥

आपादमस्तकं पातु रामदूतो महाबलः ।
पूर्वे वानरवक्त्रो मामाग्नेय्यां क्षत्रियान्तकृत् ॥ १६॥

दक्षिणे नारसिंहस्तु नैऋर्त्यां गणनायकः ।
वारुण्यां दिशि मामव्यात्खगवक्त्रो हरीश्वरः ॥ १७॥

वायव्यां भैरवमुखः कौबेर्यां पातु मां सदा ।
क्रोडास्यः पातु मां नित्यमैशान्यां रुद्ररूपधृक् ॥ १८॥

ऊर्ध्वं हयाननः पातु गुह्याधः सुमुखस्तथा ।
रामास्यः पातु सर्वत्र सौम्यरूपो महाभुजः ॥ १९॥

इत्येवं रामदूतस्य कवचं यः पठेत्सदा ।
एकादशमुखस्यैतद्गोप्यं वै कीर्तितं मया ॥ २०॥

रक्षोघ्नं कामदं सौम्यं सर्वसम्पद्विधायकम् ।
पुत्रदं धनदं चोग्रशत्रुसंघविमर्दनम् ॥ २१॥

स्वर्गापवर्गदं दिव्यं चिन्तितार्थप्रदं शुभम् ।
एतत्कवचमज्ञात्वा मन्त्रसिद्धिर्न जायते ॥ २२॥

चत्वारिंशत्सहस्राणि पठेच्छुद्धात्मको नरः ।
एकवारं पठेन्नित्यं कवचं सिद्धिदं पुमान् ॥ २३॥

द्विवारं वा त्रिवारं वा पठन्नायुष्यमाप्नुयात् ।
क्रमादेकादशादेवमावर्तनजपात्सुधीः ॥ २४॥

वर्षान्ते दर्शनं साक्षाल्लभते नात्र संशयः ।
यं यं चिन्तयते चार्थं तं तं प्राप्नोति पूरुषः ॥ २५॥

ब्रह्मोदीरितमेतद्धि तवाग्रे कथितं महत् ॥ २६॥

इत्येवमुक्त्वा वचनं महर्षिस्तूष्णीं बभूवेन्दुमुखीं निरीक्ष्य ।
संहृष्टचित्तापि तदा तदीयपादौ ननामातिमुदा स्वभर्तुः ॥ २७॥

॥ इत्यगस्त्यसारसंहितायामेकादशमुखहनुमत्कवचं सम्पूर्णम् ॥


shri ekadashmukh hanumat kavacham

॥ श्रीएकमुखी हनुमत्कवचम् ॥ shri ekmukhi hanumat kavacham

No comments :
॥ श्रीएकमुखी हनुमत्कवचम् ॥

अथ श्री एकमुखी हनुमत्कवचं प्रारभ्यते ।

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥

var श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥

श्रीहनुमते नमः
एकदा सुखमासीनं शङ्करं लोकशङ्करम् ।
पप्रच्छ गिरिजाकान्तं कर्पूरधवलं शिवम् ॥

पार्वत्युवाच
भगवन्देवदेवेश लोकनाथ जगद्गुरो ।
शोकाकुलानां लोकानां केन रक्षा भवेद्ध्रुवम् ॥

सङ्ग्रामे सङ्कटे घोरे भूतप्रेतादिके भये ।
दुःखदावाग्निसन्तप्तचेतसां दुःखभागिनाम् ॥

ईश्वर उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।
विभीषणाय रामेण प्रेम्णा दत्तं च यत्पुरा ॥

कवचं कपिनाथस्य वायुपुत्रस्य धीमतः ।
गुह्यं ते सम्प्रवक्ष्यामि विशेषाच्छृणु सुन्दरि ॥

ॐ अस्य श्रीहनुमत् कवचस्त्रोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः । श्रीमहावीरो हनुमान् देवता। मारुतात्मज इति बीजम् ॥

ॐ अञ्जनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रैं ह्रां ह्रौं इति कवचम् ।
स्वाहा इति कीलकम् । लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् ।
मम सकलकार्यसिद्ध्यर्थे जपे वीनियोगः ॥

अथ न्यासः
ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ अञ्जनीसूनवे हृदयाय नमः । ॐ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा ।
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् ।
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ब्रह्मास्त्रनिवारणाय अस्त्राय फट् ।

ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमही ।
तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॐ हुं फट् स्वाहा ॥ इति दिग्बन्धः ॥

अथ ध्यानम् ॥

ॐ ध्यायेद्बालदिवाकरधृतिनिभं देवारिदर्पापहं
देवेन्द्रप्रमुखप्रशस्तयशसं देदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालङ्कृतम् ॥ १॥

उद्यन्मार्तण्डकोटिप्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्थं
मौञ्जीयज्ञोपवीतारुणरुचिरशिखाशोभितं कुण्डलाङ्गम् ।
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं
ध्यायेद्देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्पदीभूतवार्धिम् ॥ २॥

वज्राङ्गं पिङ्गकेशाढ्यं स्वर्णकुण्डलमण्डितम् ।
नियुद्धकर्मकुशलं पारावारपराक्रमम् ॥ ३॥

वामहस्ते महावृक्षं दशास्यकरखण्डनम् ।
उद्यद्दक्षिणदोर्दण्डं हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥ ४॥

स्फटिकाभं स्वर्णकान्ति द्विभुजं च कृताञ्जलिम् ।
कुण्डलद्वयसंशोभिमुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥ ५॥

उद्यदादित्यसङ्काशमुदारभुजविक्रमम् ।
कन्दर्पकोटिलावण्यं सर्वविद्याविशारदम् ॥ ६॥

श्रीरामहृदयानन्दं भक्तकल्पमहीरूहम् ।
अभयं वरदं दोर्भ्यां कलये मारूतात्मजम् ॥ ७॥

अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित ।
प्रस्थानं च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥ ८॥

यो वारांनिधिमल्पपल्वलमिवोल्लङ्घ्य प्रतापान्वितो
वैदेहीघनशोकतापहरणो वैकुण्ठतत्त्वप्रियः ।
अक्षाद्यर्चितराक्षसेश्वरमहादर्पापहारी रणे ।
सोऽयं वानरपुङ्गवोऽवतु सदा युष्मान्समीरात्मजः ॥ ९॥

वज्राङ्गं पिङ्गकेशं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं
नाना विद्याधिनाथं करतलविधृतं पूर्णकुम्भं दृढं च
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं
त्रैलोक्यत्राणकारं सकलभुवनगं रामदूतं नमामि ॥ १०॥

उद्यल्लाङ्गूलकेशप्रलयजलधरं भीममूर्तिं कपीन्द्रं
वन्दे रामाङ्घ्रिपद्मभ्रमरपरिवृतं तत्त्वसारं प्रसन्नम् ।
वज्राङ्गं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं
दम्भोलिस्तम्भसारप्रहरणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ ११॥

वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकण्ठलग्नम् ।
दधानमासाद्य सुवर्णवर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डलरामदूतम् ॥ १२॥

पद्मरागमणिकुण्डलत्विषा पाटलीकृतकपोलमण्डलम् ।
दिव्यगेहकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥ १३॥

ईश्वर उवाच
इति वदति विशेषाद्राघवो राक्षसेन्द्रम्
प्रमुदितवरचित्तो रावणस्यानुजो ह्
रघुवरवरदूतं पूजयामास भूयः
स्तुतिभिरकृतार्थः स्वं परं मन्यमानः ॥ १४॥

वन्दे विद्युद्वलयसुभगस्वर्णयज्ञोपवीतं
कर्णद्वन्द्वे कनकरुचिरे कुण्डले धारयन्तम् ।
उच्चैर्हृष्यद्द्युमणिकिरणश्रेणिसम्भाविताङ्गं
सत्कौपीनं कपिवरवृतं कामरूपं कपीन्द्रम् ॥ १५॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं सततं स्मरामि ॥ १६॥

ॐ नमो भगवते हृदयाय नमः ।
ॐ आञ्जनेयाय शिरसे स्वाहा ।
ॐ रुद्रमूर्तये शिखायै वषट् ।
ॐ रामदूताय कवचाय हुम् ।
ॐ हनुमते नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ अग्निगर्भाय अस्त्राय फट् ।
ॐ नमो भगवते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ आञ्जनेयाय तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ रुद्रमूर्तये मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ वायुसूनवे अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ अग्निगर्भाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

अथ मन्त्र उच्यते
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः ।
ॐ ह्रीं ह्रौं ॐ नमो भगवते महाबलपराक्रमाय भूतप्रेतपिशाच
शाकिनी डाकिनी यक्षिणी पूतनामारी महामारी
भैरव-यक्ष-वेताल-राक्षस-ग्रहराक्षसादिकं
क्षणेन हन हन भञ्जय भञ्जय
मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामाहेश्वर रुद्रावतार हुं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते हनुमदाख्याय रुद्राय सर्वदुष्टजनमुखस्तम्भनं
कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रूं ठंठंठं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते अञ्जनीगर्भसम्भूताय रामलक्ष्मणानन्दकराय
कपिसैन्यप्रकाशनाय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवसाधकाय
रणोच्चाटनाय कुमारब्रह्मचारिणे गम्भीरशब्दोदयाय
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं सर्वदुष्टनिवारणाय स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते सर्वग्रहानुभूतभविष्यद्वर्तमानान् दूरस्थान्
समीपस्थान् सर्वकालदुष्टदुर्बुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय परबलानि
क्षोभय क्षोभय
मम सर्वकार्यं साधय साधय हनुमते
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् देहि ।
ॐ शिवं सिद्धं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते परकृतान् तन्त्रमन्त्र-पराहङ्कारभूतप्रेतपिशाच

परदृष्टिसर्वविघ्नदुर्जनचेटकविधान् सर्वग्रहान् निवारय निवारय
वध वध पच पच दल दल किल किल
सर्वकुयन्त्राणि दुष्टवाचं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि एहि
सर्वग्रहभूतानां शाकिनीडाकिनीनां विषं दुष्टानां सर्वविषयान्

आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय भेदय भेदय

मृत्युमुत्पाटयोत्पाटय शोषय शोषय ज्वल ज्वल प्रज्ज्वल प्रज्ज्वल

भूतमण्डलं प्रेतमण्डलं पिशाचमण्डलं निरासय निरासय
भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर विष्णुज्वर माहेश्वरज्वरान्
छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि

अक्षिशूल-वक्षःशूल-शरोभ्यन्तरशूल-गुल्मशूल-पित्तशूल-
ब्रह्मराक्षसकुल-परकुल-नागकुल-विषं नाशय नाशय
निर्विषं कुरु कुरु फट् स्वाहा ।
ॐ ह्रीं सर्वदुष्टग्रहान् निवारय फट् स्वाहा ॥

ॐ नमो हनुमते पवनपुत्राय वैश्वानरमुखाय
हन हन पापदृष्टिं षण्ढदृष्टिं हन हन
हनुमदाज्ञया स्फुर स्फुर फट् स्वाहा ॥

श्रीराम उवाच
हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः ।
प्रतीच्यां पातु रक्षोघ्न उत्तरस्यामब्धिपारगः ॥ १॥

उदीच्यामूर्ध्वगः पातु केसरीप्रियनन्दनः ।
अधश्च विष्णुभक्तस्तु पातु मध्ये च पावनिः ॥ २॥

अवान्तरदिशः पातु सीताशोकविनाशनः ।
लङ्काविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो निरन्तरम् ॥ ३॥

सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः ।
भालं पातु महावीरो भ्रुवोर्मध्ये निरन्तरम् ॥ ४॥

नेत्रे छायाऽपहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ।
कपोलकर्णमूले तु पातु श्रीरामकिङ्करः ॥ ५॥

नासाग्रे अञ्जनीसूनुर्वक्त्रं पातु हरीश्वरः ।
वाचं रूद्रप्रियः पातु जिह्वां पिङ्गललोचनः ॥ ६॥

पातु दन्तान् फाल्गुनेष्टश्चिबुकं दैत्यप्राणहृत् ।
var  ओष्ठं रामप्रियः पातु चिबुकं दैत्यकोटिहृत्
पातु कण्ठं च दैत्यारिः स्कन्धौ पातु सुरार्चितः ॥ ७॥

भुजौ पातु महातेजाः करौ तु चरणायुधः ।
नखान्नखायुधः पातु कुक्षिं पातु कपीश्वरः ॥ ८॥

वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः ।
लङ्काविभञ्जनः पातु पृष्ठदेशे निरन्तरम् ॥ ९॥

नाभिञ्च रामदूतस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ।
गुह्मं पातु महाप्राज्ञः सृक्किणी च शिवप्रियः ॥ १०॥

ऊरू च जानुनी पातु लङ्काप्रासादभञ्जनः ।
जङ्घे पातु महाबाहुर्गुल्फौ पातु महाबलः ॥ ११॥

अचलोद्धारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः ।
पादान्ते सर्वसत्वाढ्यः पातु पादाङ्गुलीस्तथा ॥ १२॥

सर्वाङ्गानि महावीरः पातु रोमाणि चात्मवान् ।
हनुमत्कवचं यस्तु पठेद्विद्वान् विचाक्षणः ॥ १३॥

स एव पुरूषश्रेष्ठो भक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।
त्रिकालमेककालं वा पठेन्मासत्रयं सदा ॥ १४॥

सर्वान् रिपून् क्षणे जित्वा स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तवारं पठेद्यदि ॥ १५॥

क्षयाऽपस्मारकुष्ठादितापत्रयनिवारणम् ।
आर्किवारेऽश्वत्थमूले स्थित्वा पठतिः यः पुमान् ॥ १६॥

अचलां श्रियमाप्नोति सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥ १७॥

यः करे धारयेन्नित्यं स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
विवाहे दिव्यकाले च द्यूते राजकुले रणे ॥ १८॥

भूतप्रेतमहादुर्गे रणे सागरसम्प्लवे ।
दशवारं पठेद्रात्रौ मिताहारी जितेन्द्रियः ॥ १९॥

विजयं लभते लोके मानवेषु नराधिपः ।
सिंहव्याघ्रभये चाग्नौ शरशस्त्रास्त्रयातने ॥ २०॥

शृङ्खलाबन्धने चैव काराग्रहनियन्त्रणे ।
कायस्तम्भे वह्निदाहे गात्ररोगे च दारूणे ॥ २१॥

शोके महारणे चैव ब्रह्मग्रहविनाशने ।
सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नोत्यसंशयम् ॥ २२॥

भूर्जे वा वसने रक्ते क्षौमे वा तालपत्रके ।
त्रिगन्धेनाथवा मस्या लिखित्वा धारयेन्नरः ॥ २३॥

पञ्चसप्तत्रिलौहैर्वा गोपितं कवचं शुभम् ।
गले कट्यां बाहुमूले वा कण्ठे शिरसि धारितम् ॥ २४॥

सर्वान् कामानवाप्नोति सत्यं श्रीरामभाषितम् ॥ २५॥

उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्निं जनकात्मजायाः ।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ॥ २६॥

ॐ हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः ।
श्रीरामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः ॥ २७॥

उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः ।
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ २८॥

द्वादशैतानि नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः ।
स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत् ॥ २९॥

तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् ।
धनधान्यं भवेत्तस्य दुःखं नैव कदाचन ॥ ३०॥

ॐ ब्रह्माण्डपुराणान्तर्गते नारद अगस्त्य संवादे ।
श्रीरामचन्द्रकथितपञ्चमुखे एकमुखी हनुमत् कवचम् ॥

उच्छिष्टगणेशकवचम् (uchchhisht ganesh kavacham)

No comments :
॥ उच्छिष्टगणेशकवचम् ॥

अथ श्रीउच्छिष्टगणेशकवचम् प्रारम्भः
देव्युवाच ॥

देवदेव जगन्नाथ सृष्टिस्थितिलयात्मक । 
विना ध्यानं विना मन्त्रं  विना होमं विना जपम् ॥ १॥

येन स्मरणमात्रेण लभ्यते चाशु चिन्तितम् । 
तदेव श्रोतुमिच्छामि कथयस्व जगत्प्रभो ॥ २॥

ईश्वर उवाच ॥

श्रुणु देवी प्रवक्ष्यामि गुह्याद्गुहृतरं महत् । 
उच्छिष्टगणनाथस्य कवचं सर्वसिद्धिदम् ॥ ३॥

अल्पायासैर्विना कष्टैर्जपमात्रेण सिद्धिदम् । 
एकान्ते निर्जनेऽरण्ये गह्वरे च रणाङ्गणे ॥  ४॥

सिन्धुतिरे च गङ्गायाः कूले वृक्षतले जले । 
सर्वदेवालये तीर्थे लब्ध्वा सम्यग् जपं चरेत् ॥ ५॥

स्नानशौचादिकं नास्ति नास्ति निर्वंधनं प्रिये । 
दारिद्र्यान्तकरं शीघ्रं सर्वतत्त्वं जनप्रिये ॥ ६॥ 
सहस्रशपथं कृत्वा यदि स्नेहोऽस्ति मां प्रति । 
निन्दकाय कुशिष्याय खलाय कुटिलाय च ॥ ७॥ 
दुष्टाय परशिष्याय घातकाय शठाय च । 
वञ्चकाय वरघ्नाय ब्राह्मणीगमनाय च ॥ ८॥

अशक्ताय च क्रूराय गुरूद्रोहरताय च । 
न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचन ॥ ९॥

गुरूभक्ताय दातव्यं सच्छिष्याय विशेषतः । 
तेषां सिध्यन्ति शीघ्रेण ह्यन्यथा न च सिध्यति ॥ १०॥ 
गुरूसन्तुष्टिमात्रेण कलौ प्रत्यक्षसिद्धिदम् । 
देहोच्छिष्टैः प्रजप्तव्यं तथोच्छिष्ठैर्महामनुः ॥ ११॥

आकाशे च फलं प्राप्तं नान्यथा वचनं मम । 
एषा राजवती विद्या विना पुण्यं न लभ्यते ॥ १२॥

अथ वक्ष्यामि देवेशि कवचं मन्त्रपूर्वकम् । 
येन विज्ञातमात्रेण राजभोगफलप्रदम् ॥ १३॥

ऋषिर्मे गणकः पातु शिरसि च निरन्तरम् । 
त्राहि मां देवि गायत्रीछन्दो ऋषिः सदा मुखे ॥ १४॥

हृदये पातु मां नित्यमुच्छिष्टगणदेवता । 
गुह्ये रक्षतु तद्बीजं स्वाहा शक्तिश्च पादयोः ॥ १५॥

कामकीलकसर्वाङ्गे विनियोगश्च सर्वदा । 
पाश्वर्द्वये सदा पातु स्वशक्तिं गणनायकः ॥ १६॥

शिखायां पातु तद्बीजं भ्रूमध्ये तारबीजकम् । 
हस्तिवक्त्रश्च शिरसी लम्बोदरो ललाटके ॥ १७॥

उच्छिष्टो नेत्रयोः पातु कर्णौ पातु महात्मने । 
पाशाङ्कुशमहाबीजं नासिकायां च रक्षतु ॥ १८॥

भूतीश्वरः परः पातु आस्यं जिह्वां स्वयंवपुः । 
तद्बीजं पातु मां नित्यं ग्रीवायां कण्ठदेशके ॥ १९॥

गम्बीजं च तथा रक्षेत्तथा त्वग्रे च पृष्टके । 
सर्वकामश्च हृत् पातु पातु मां च करद्वये ॥ २०॥

उच्छिष्टाय च हृदये वह्निबीजं तथोदरे । 
मायाबीजं तथा कट्यां द्वैआ ऊरू सिद्धिदायकः ॥ २१॥

जङ्घायां गणनाथश्च पादौ पातु विनायकः । 
शिरसः पादपर्यन्तमुच्छिष्ठगणनायकः ॥ २२॥

आपादमस्तकान्तं च उमापुत्रश्च पातु माम् । 
दिशोऽष्टौ च तथाकाशे पाताले विदिशाष्टके ॥ २३॥

अहर्निशं च मां पातु मदचञ्चललोचनः । 
जलेऽनले च सङ्ग्रामे दुष्टकारागृहे वने ॥ २४॥

राजद्वारे घोरपथे मातु मां गणनायकः । 
इदं तु कवचं गुह्यं मम वक्त्राद्विनिर्गतम्  ॥ २५॥

त्रैलौक्ये सततं पातु द्विभुजश्च चतुर्भूजः । 
वाह्यमाभ्यन्तरं पातु सिद्धिबुद्धिर्विनायकः ॥ २६॥

सर्वसिद्धि प्रदं देवि कवचमृद्धिसिद्धिदम् । 
एकान्ते प्रजपेन्मन्त्रं कवचं युक्तिसंयुतम् ॥ २७॥

इदं रहस्यं कवचमुच्छिष्टगणनायकम् । 
सर्ववर्मसु देवेशि इदं कवचनायकम् ॥ २८॥

एतत् कवचंमहात्म्यं वर्णितुं नैव शक्यते । 
धर्मार्थकाममोक्षं च नानाफलप्रदं नृणाम् ॥ २९॥

शिवपुत्रः सदा पातु पातु मां सुरार्चितः । 
गजाननः सदा पातु गणराजश्च पातु माम् ॥ ३०॥
सदा शक्तिरतः पातु पातु मां कामविह्वलः । 
सर्वाभरणभूषाढयः पातु मां सिन्दूरार्चितः ॥ ३१॥

पञ्चमोदकरः पातु पातु मां पार्वतीसुतः। 
पाशाङ्कुशधरः पातु पातु मां च धनेश्वरः ॥ ३२॥

गदाधरः सदा पातु पातु मां काममोहितः । 
नग्ननारीरतः पातु पातु मां च गणेश्वरः ॥ ३३॥

अक्षयं वरदः पातु शक्तियुक्तिः सदाऽवतु । 
भालचन्द्रः सदा पातु नानारत्नविभूषितः ॥ ३४॥

उच्छिष्टगणनाथश्च मदाघूर्णितलोचनः । 
नारीयोनिरसास्वादः पातु मां गजकर्णकः ॥ ३५॥

प्रसन्नवदनः पातु पातु मां भगवल्लभः । 
जटाधरः सदा पातु पातु मां च किरीटिकः ॥ ३६॥

पद्मासनास्थितः पातु रक्तवर्णश्च पातु माम् । 
नग्नसाममदोन्मत्तः पातु मां गणदैवतः ॥ ३७॥

वामाङ्गे सुन्दरीयुक्तः पातु मां मन्मथप्रभुः । 
क्षेत्रपः पिशितं पातु पातु मां श्रुतिपाठकः ॥ ३८॥

भूषणाढ्यस्तु मां पातु नानाभोगसमन्वितः । 
स्मिताननः सदा पातु श्रीगणेशकुलान्वितः ॥ ३९॥

श्रीरक्तचन्दनमयः सुलक्षणगणेश्वरः । 
श्वेतार्कगणनाथश्च हरिद्रागणनायकः ॥ ४०॥

पारभद्रगणेशश्च पातु सप्तगणेश्वरः । 
प्रवालकगणाध्यक्षो गजदन्तो गणेश्वरः ॥ ४१॥

हरबीजगणेशश्च भद्राक्षगणनायकः । 
दिव्यौषधिसमुद्भूतो गणेशाश्चिन्तितप्रदः ॥ ४२॥

लवणस्य गणाध्यक्षो मृत्तिकागणनायकः । 
तण्डुलाक्षगणाध्यक्षो गोमयश्च गणेश्चरः ॥ ४३॥

स्फटिकाक्षगणाध्यक्षो रूद्राक्षगणदैवतः । 
नवरत्नगणेशश्च आदिदेवो गणेश्वरः ॥ ४४॥

पञ्चाननश्चतुर्वक्त्रः षडाननगणेश्वरः । 
मयूरवाहनः पातु पातु मां मूषकासनः ॥ ४५॥

पातु मां देवदेवेशः पातु मामृषिपूजितः । 
पातु मां सर्वदा देवो देवदानवपूजितः ॥ ४६॥

त्रैलोक्यपूजितो देवः पातु मां च विभुः प्रभुः । 
रङ्गस्थं च सदा पातु सागरस्थं सदाऽवतु ॥ ४७॥

भूमिस्थं च सदा पातु पातलस्थं च पातु माम् । 
अन्तरिक्षे सदा पातु आकाशस्थं सदाऽवतु ॥ ४८॥

चतुष्पथे सदा पातु त्रिपथस्थं च पातु माम् । 
बिल्वस्थं च वनस्थं च पातु मां सर्वतस्तनम् ॥ ४९॥  
राजद्वारस्थितं पातु पातु मां शीघ्रसिद्धिदः। 
भवानीपूजितः पातु ब्रह्माविष्णुशिवार्चितः ॥ ५०॥

इदं तु कवचं देवि पठनात्सर्वसिद्धिदम् । 
उच्छिष्ठगणनाथस्य समन्त्रं कवचं परम् ॥ ५१॥

स्मरणाद्भूभुजत्वं च लभते साङ्गतां ध्रूवम् । 
वाचः सिद्धिकरं शीघ्रं परसैन्यविदारणम् ॥ ५२॥

प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने दिवा रात्रौ पठेन्नरः। 
चतुर्थ्यां दिवसे रात्रौ पूजने मानदायकम् ॥ ५३॥

सर्वसौभाग्यदं शीघ्रं दारिद्र्यार्णवघातकम् । 
सुदारसुप्रजासौख्यं सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ॥ ५४॥

जलेऽथवाऽनलेऽरण्ये सिन्धुतीरे सरित्तटे। 
स्मशाने दूरदेशे च रणे पर्वतगह्वरे ॥ ५५॥

राजद्वारे भये घोरे निर्भयो जायते ध्रुवम् । 
सागरे च महाशीते दुर्भिक्षे दुष्टसङ्कटे ॥ ५६॥

भूतप्रेतपिशाचादियक्षराक्षसजे भये । 
राक्षसीयक्षिणीक्रूराशाकिनीडाकीनीगणाः ॥ ५७॥

राजमृत्युहरं देवि कवचं कामधेनुवत् । 
अनन्तफलदं देवि सति मोक्षं च पार्वति ॥ ५८॥

कवचेन विना मन्त्रं यो जपेद्गणनायकम् । 
इह जन्मानि पापिष्ठो जन्मान्ते मूषको भवेत् ॥ ५९॥

इति परमरहस्यं देवदेवार्चनं च
     कवचपरमदिव्यं पार्वती पुत्ररूपम् । 
पठति  परमभोगैश्वर्यमोक्षप्रदं च
     लभति सकलसौख्यं शक्तिपुत्रप्रसादात् ॥ ६०॥

॥ इति श्रीरूद्रयामलतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे
उच्छिष्ठगणेशकवचं समाप्तम् ॥॥

श्रीअक्कलकोटस्वामीकवचम्स्तोत्रम् (shree akkalkotswamikavach stortam)

No comments :
॥ श्रीअक्कलकोटस्वामीकवचम्स्तोत्रम् ॥

               ॐ ।
अस्य श्री स्वामी कवच स्तोत्रमंत्रस्य ।
सुव्रत ऋषिः ।  अनुष्टुप् छंदः ।
स्वामी समर्थ देवता ।
शङ्करराजे शक्तिः ।
बाळाप्पा कीलकम् ।
मम सकलाभीष्टप्राप्त्यर्थं  पाठे विनियोगः ।
       । अथ करन्यासः ।
     ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥

     ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ॥

     ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः ॥

     ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां  नमः ॥

     ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥

     ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां  नमः ॥

       ॥ अथ षडङ्गन्यासः ॥

     ॐ ह्रां हृदयाय नमः ॥

     ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ॥

     ॐ ह्रूं शिखायै वषट् ॥

     ॐ ह्रैं कवचाय हुं ॥

     ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॥

     ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ॥

       ॥ अथ ध्यानम् ॥

भूमानंदं सहजसुखदं केवलं ब्रह्ममूर्तिम् ।
विश्वातीतं विमलहृदयं वेदवेदान्त वेद्यम् ॥ १॥

शान्तं दान्तं सरलमनसं सर्वसामर्थ्यरूपम् ।     ं
सर्वातीतं ह्यमरमचलं स्वामिनं तं नमामि ॥ २॥

ॐ शीर्षं मे पातु स्वामी वै ।
भालं नेत्रे च सद्गुरुः ॥ १॥

कण्ठं मुखञ्च पातु मे ।
स्वामीसमर्थ देशिकः ॥ २॥

स्कन्धौ मे पातु स्वामी वै ।
बाहू पातु तु सद्गुरुः ॥ ३॥

करौ मे पातु स्वामी च ।
अङ्गुलयश्च देशिकः ॥ ४॥

प्रज्ञाप्राकारवासी वै ।
हृदयं पातु मे सदा ॥ ५॥

उरः स्थलञ्च स्वामी वै ।
कटिं मध्यं हि सद्गुरुः ॥ ६॥

नाभिं जङ्घे च स्वामी वै ।
गुह्यं पातु च देशिकः ॥ ७॥

ऊरू  जानु समर्थश्च ।
पादौ स्वामी च पातु मे ॥ ८॥

देहं मनश्च प्रज्ञाञ्च ।
प्रज्ञापुरस्थितः सदा ॥ ९॥

दशदिक्षु स पातु मां ।
स्वामीसमर्थ सद्गुरुः ॥ १०॥

उत्पातान्त्रिविधान्नित्यं ।
नष्टान् कुर्वन्तु सद्गुरुः ॥ ११॥

संकटानाधिव्याधींश्च ।
नश्यन्तु देशिकः सदा ॥ १२॥

नानापीडांश्च बाधांश्च जरामरणयातनाः ।
प्रातिकूल्यादिविघ्नांश्च नश्यन्तु सद्गुरुः सदा ॥ १३॥

भूतप्रेतपिशाचांश्च वेतालब्रह्मराक्षसान् ।
शाकिनिडाकिन्यादींश्च नश्यन्तु स्वामीसमर्थः ॥ १४॥

महापापांश्च घोरांश्च ब्रह्महत्यादिदुर्धरान् ।
समूलान्पातकान्नित्यं नश्यन्तु सद्गुरुस्तथा ॥ १५॥

स्वामी समर्थ तेजश्च रक्षतु माञ्च सर्वदा ।
भूत्वा तत्कवचं मे च अभेद्यं तत्भवेत्सदा ॥ १६॥

वज्रकवचमिदं वै च यः पठेद्भक्तिमान्नरः ।
तीर्त्वा च संकटान्घोरान् सर्वतः सुखमाप्नुयात् ॥ १७॥

प्रतिदिनं पठेद्यो भक्तो भावपूरितचित्ततः ।
संसारसागरं तीर्त्वा भुक्तिं मुक्तिञ्च विन्दति ॥ १८॥

साधको यो यदिच्छेच्च गुरुभक्तो हि वर्तते ।
प्रसन्नो तस्मिन्हि भूत्वा च कृपालुर्भवति शीघ्रतः ॥ १९॥

स्वामीसमर्थप्रसादश्च कवचं जानयेद् बुधः ॥

सच्छिष्याय भक्ताय दातव्यं न च कर्हिचित् ॥ २०॥

अतिदिव्यं कवचं श्रेष्ठं दत्तं मे स्वामिनाऽधुना ।
अहं ददामि शिष्याय प्रकाशाय प्रियाय च ॥ २१॥

इदं कवचं तस्मै वै शुभं करोति सर्वदा ।
सर्वेषां मंगलं भूयात् दिव्यं कवचमेव च ॥ २२॥

सदिच्छां  प्रकटीकृत्वा समापनं करोम्यहम् ।
नत्त्वा स्वामीसमर्थं च नमामि श्रीधरं गुरुम् ॥ २३॥

प्रकाशस्य निमित्तेन प्रकाशितमिदं स्तवः ।
तर्हि तत्प्रति चाशींश्च ददामि च पुनः पुनः ॥ २४॥

अक्कलकोटवासी च स्वामीसमर्थ सद्गुरुः ।
भूयात् सर्वमांगल्यं सर्वेषामिति प्रार्थये ॥ २५॥

॥  इति सुव्रतविरचितं स्वामीसमर्थवज्रकवचं समाप्तम् ॥

मशहूर बॉलीवुड हस्तिया जिन्होंने बच्चा गोद लिया (bollywood clebraties who adopted a kid)

1 comment :
मशहूर बॉलीवुड हस्तिया जिन्होंने बच्चा गोद लिया


माँ बनना सौभाग्य की  परन्तु यह सौभाग्य के साथ एक खूबसूरत जिम्मेदारी भी है।   करेंगे उन मशहूर बॉलीवुड सेलेब्रिटीज़ की जिन्होंने एक बचा गोद लेकर न केवल खुद को पूरा किया बल्कि किसी अनजान जीवन को भी सवार दिया 

सन्नी लेओनी
सनी ने हाल ही में एक प्यारी-सी लड़की को अडॉप्ट किया, सनी और उनके पति डेनियल विबर ने कुछ दिनों पहले से यह तय कर लिया था की वो बहुत जल्द अपने फैमिली स्टार्ट करने का मन बना रहे हैं लेकिन आज सनी ने दिशा कौर नाम की अनाथ लड़की को अडॉप्ट किया गया है.

सुष्मिता सेन 
पूर्व मिस यूनिवर्स का खिताब जीत चुकी बॉलीवुड अभिनेत्री सुष्मिता सेन ने रेने और अलीशा नाम की दो बेटियों को गोद लिया।  वह  अपने काम और दो बेटियों का ध्यान के बीच पूर्ण  संतुलन बनाये हुए है   उन्होंने मां होने की जिम्मेदारी को बखूबी  निभाया, आज वो सभी के भारतीय महिलाओ के लिए एक मिसाल जो की एकाकी पेरेंट्स हैं. 


रवीना टंडन

21 साल की उम्र में रवीना टंडन ने पूजा और छाया नाम की 2 बेटियों को अडॉप्ट किया. हाल ही में छोटी बेटी छाया ने गोवा के रहने वाले शॉन मेंडेस के साथ हिन्दू-कैथलिक रीति से शादी की थी, जिसमें रवीना ने मां फर्ज निभाया था.

सलीम खान

सलमान खान के पिता और स्क्रिप्ट राइटर सलीम खान ने बरसों पहले अपने घर के पास रहने वाली गरीब की बेटी को गोद लिया था. जो देखते ही देखते खान परिवार की आंखों का तारा बन गयी. पिछले ही साल आयुष शर्मा के साथ अर्पिता की शादी हुई और हाल ही में उन्होंने आहिल को जन्म दिया है.

जानिए किस कारन रावण ने सीता को अपने वाटिका मै रखा महल में नहीं (why ravan kept seeta maiya in his garden instead of his palce)

No comments :
जानिए किस कारन रावण ने सीता को अपने  वाटिका मै रखा महल में नहीं 

रावण की सोने की लंका का निर्माण कुबेर ने किया था, जिसकी सुंदरता सबसे अद्भुत और विशाल थी। यह पूरी नगरी तथा उसके घर व महल स्वर्ण से निर्मित थे।  यह भव्य और विशाल तो थी ही लेकिन इतना आकर्षक थी कि जो इसे देखता, वह मनंमुग्ध हो जाता और इसे  बस देखता ही रह जाता. लेकिन फिर भी सीता को कैद करने के बाद रावण ने उन्हें लंका के किसी महल में नहीं बल्कि वाटिका में इसलिए रखा क्योंकि वह नलकुबेर के श्राप से भयभीत था।  आइये जानते है के क्या था वह श्राप। 

स्वर्ग की खूबसूरत अप्सरा रंभा, कुबेर के पुत्र नलकुबेर से मिलने धरती पर आई थी और जब रावण की दृष्टि रंभा पर पड़ी तो वह उसके सौंदर्य पर मोहित हो गया. रंभा ने उसे कहा भी कि वह नलकुबेर की होने वाली पत्नी हैं लेकिन फिर भी रावण ने उनका सम्मान नहीं किया और रंभा के साथ दुर्व्यवहार किया. जब इस बात की खबर नलकुबेर को मिली तो उसने रावण को श्राप दे दिया कि जब भी वह कभी किसी स्त्री को बिना उसकी स्वीकृति के छुएगा या फिर अपने महल में रखेगा तो वह उसी क्षण भस्म हो जाएगा. इसी श्राप की वजह से रावण ने बिना सीता की स्वीकृति के ना तो उन्हें स्पर्श किया और ना ही उन्हें अपने महल में रखा.