Jeevan Dharm

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Saturday 12 May 2018

जब किस्मत ने दे साथ

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किस्मत ना दे साथ

कभी-कभी न चाहते हुए भी जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है। भाग्य साथ ही नहीं देता है, बल्कि दुर्भाग्य निरन्तर पीछा करता रहता है। दुर्भाग्य से बचने के लिए या दुर्भाग्य नाश के लिए यहां एक अनुभूत टोटका बता रहे हैं। इसका बिना शंका के मन से पूर्ण आस्था के साथ करने से दुर्भाग्य का नाश होकर सौभाग्य वृद्धि होती है। फलत: सुख-समृद्धि एवं उन्नति प्राप्त होती है।

टोटका इस प्रकार है- सूर्योदय के उपरान्त और सूर्यास्त से पूर्व इस टोटके को करना है। एक रोटी ले लें। इस रोटी को अपने ऊपर से 31 बार वार लें। प्रत्येक बार वारते समय इस मन्त्र का उच्चारण भी करें।

मन्त्र इस प्रकार है

-ऊँ दुभाग्यनाशिनी दुं दुर्गाय नम:।

– बाद में रोटी को कुत्ते को खिला दें अथवा बहते पानी में बहा दें।

बिना शंका के इस प्रयोग को मन से करने से शीघ्र लाभ होता है।

इस प्रयोग से आप भी लाभ उठाएं और दूजों को भी बताकर लाभ पहुंचाएं।


लूना चमारिन योगिनी

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रक्षा करने, जादू टोना, भूत, प्रेत, पिशाच, ओझा, डाकिनी या शाकिनी, तांत्रिक माया जाल, किया कराया आदि अभिचार कर्म रोगों को दूर करना 
|| ॐ नमो आदेश गुरु को
लूना चमारीन  जगत की बिजुरी
मोती हेल चमके
जो “अमुक” पिंड में जान करे विजान करे
तो उस रण्डी पे फिरे
दुहाई तख़्त सुलेमान पैगंबर की
फिरे मेरी भकित
गुरु की शक्ति
फुरो मंत्र इश्वरोवाचा ||
विधि :- इस मन्त्र को सिद्ध करके बहुत ही बेहतरीन ढंग से इसका प्रयोग किया जा सकता हैं और इसके प्रयोग के परिणाम भी सुगमता से प्राप्त होते हैं | इस मन्त्र का जप केवल 7 दिनों तक 1 माला जप करना हैं और कब, कैसे वो आप FAQ पेज  में देख सकते हैं | जब ये मन्त्र सिद्ध हो जाये तो आप इसका प्रयोग अपनी या किसी अन्य की रक्षा करने, जादू टोना, भूत, प्रेत, तांत्रिक माया जाल, किया कराया आदि रोगों को दूर करने में सफल हो जाओगे |
या फिर कोई मकान, दुकान, भूखंड या पलाट भूत-प्रेत, पिशाच, तांत्रिक, ओझा, डाकिनी या शाकिनी के अभिचार कर्म प्रभावित हो, तो उस मकान, दुकान, भूखंड या पलाट में भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही और अनार की कलम से उपरोक्त मन्त्र को  लिखकर लगा दें | ( अगर उपलब्ध नहीं हो सके तो किसी भी साधारण से सफ़ेद कागज पर लाल या काली  स्याही प्रयोग करें )  मन्त्र को लिखते समय इस मन्त्र का मन ही मन उच्चारण भी करते रहें और फिर उस मकान, दुकान, भूखंड या पलाट में लगा दे | इसके प्रभाव से वह जगह भूत-प्रेत, पिशाच, तांत्रिक, ओझा, डाकिनी या शाकिनी के अभिचार कर्म से मुक्त हो जाएगीं |

भूत प्रेत साधना

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भूत- प्रेत साधना
तंत्र में भूत – प्रेत का अस्तित्व स्वीकार किया गया है | यह माना गया है की मृत्यु के उपरांत मनुष्य को कई बार प्रेत योनी में जाना पड़ता है पर पुनर्जन्म की अनेक घटनाए इस सम्बन्ध में सोचने के लिए विवश कर देती है | मृत्यु के बाद की दुनिया का कही कुछ न कुछ अस्तित्व है | इस बात को स्वीकार करना पड़ता है | प्रेत योनी में जाकर मनुष्य कई बार उत्पाती हो जाता है | वह अनेक प्रकार के आतंक बिखरा देता है | इस प्रकार का उपद्रव शान्त करने का विधान तंत्र शास्त्र में है | हमारे योग्य तांत्रिक उनका समय -समय पर प्रयोग करते है | प्रेतों की उपद्रवी सकती पर नियंत्रण करने के लिए निम्नलिखित तंत्र है-
‘ ॐ ह्रंच ह्रंच ह्रंच फट स्वाहा | ‘
ये बहुत ही सरल साधना है | किसी एकांत स्थान में शिव जी की मूर्ति की स्थापना कर प्रत्येक अर्धरात्रि में २५ बार पाठ आवश्यक है | इस प्रकार नियमित रूप से बिना नागा के २५०० हजार मंत्र का पाठ १०० दिन तक लगातार करना आवश्यक है | जप की माला रूद्राक्ष की होनी चाहिए | दिशा पूर्व या उत्तर की होनी चाहिए | २५०००० हजार मंत्र का पाठ हो जाये तो साधक शिव जी की आकृति की पूजा कर आ जाये | इस प्रकार की साधना करने के बाद साधक भूत-प्रेत ग्रस्त किसी भी व्यक्ति को या स्थान को मुक्त कर सकता है | साधक के आदेश का पालन भूत-प्रेत करते है और साधक भूत-प्रेत को देख सकता है और उनसे बात भी कर सकता है | …… .

पीताम्बरा रुद्राक्ष

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पीताम्बरा रुद्राक्ष

प्रचंड पीताम्बरा रुद्राक्ष १.जिसके धारण कर लेने मात्र से गृह अपनी चल बदल देते है और अनुकूल हो जाते है,न चाहते हुए भी उन्हें हमारे हिसाब से चलना पड़ता है,भगवती पीताम्बर का ऐसा वज्र पड़ता है ग्रहों पर की वे मजबूर हो जाते है आपको सुख देने के लिये. २. जिसके धारण करने से शत्रु शत्रुता भूलकर शरण में आ जाते है,और उनका स्तम्भन हो जाता है.सारी तंत्र बाधा अपने आप समाप्त हो जाती है,तथा साधक के जीवन में सुख का आगमन होने लगता है.जिस घर में स्थापित होगा वहा कोई तंत्र बाधा असर नहीं करेगी.साधक एक तरह से हर क्षेत्र में सफलता पता है तथा जिस साधना के वक़्त इसे धारण करेगा वो साधना अवश्य सफल होगी ३.इसके धारण करने वाले की ग्रहस्ती में सुख का आगमन होता है,पारिवारिक समबन्ध मधुर हो जाते है. और सबसे बड़ी बात साधना के वक़्त जिसके शारीर पर ये रुद्राक्ष होगा कोई शक्ति साधक का कुछ नहीं बिगड़ पायेगी,ये रुद्राक्ष यम वरुण अग्नि जल इन्द्र आदि के पसीने छुडवा दे तो और किसी की बात ही क्या करे.साधक के लिये ये एक कवच है.शमशान में धारण करके चले गए तो सारी दुष्ट शक्तिया साधक से दस हाथ दूर रहती है,और क्या कहू इस रुद्राक्ष के बारे में आप स्वयं करे और इसका चमत्कार देखे. जल्द ही इस रुद्राक्ष को कैसे तैयार किया जाये कैसे सिद्ध किया जाये इसकी विधि आप सब के बिच लेकर आऊंगा.पर इस रुद्राक्ष को वही साधक सिद्ध कर सकता है जिसने अपने जीवन में कभी गुरु मंत्र अथवा ॐ नमः शिवाय का एक लाख जप किया हो.अतः ये साधना उन लोगो को ही दी जाएगी यदि आप मुजह्से असत्य बोलकर ये साधना लेते है और इसे करते है तो इसके जवाबदार वे लोग होंगे जिन्होंने असत्य बोलकर साधना ली है,क्युकी इस साधना की पहली और आखरी शर्त ही यही है की जिसने गुरु मंत्र अथवा ॐ नमः शिवाय के जप एक लाख किये हो वो ही इसे करे अन्यथा ये इस साधना से हानि हो सकती है नहीं,बल्कि हो ही जाएगी ये अटल सत्य है.अतः ये साधना टाइप होने के बाद में सभी को सूचित कर दूंगा आप अपने इमेल देकर प्राप्त कर लेना अगर अपने इस शर्त को पूरा कर लिया हो तो.माँ मेरे सभी साधक भाइयो का कल्याण करे.जय माँ

यंत्र साधना शाबर विधि से अबकी बार नवराते के साधना

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पन्द्रिया यंत्र साधना — साबर विधि से
पन्द्रिया यंत्र साधना — साबर पद्धती
जरुरी है| अतः इस साधना को उसी साधक को शुरू करना चाहिए जो इस साधना के नियम का पूर्ण शुद्धि से पालन करऔर जन कल्याण किया है | यह बहुत ही तीव्र  साधना है | इस में शुद्धि का
खास ध्यान ख़ास तौर पर  रखा जाता है।। अन्यथा तकलीफ हो सकती है ..|
हर  उस व्यक्ति का बहुत ही सौभाग्य उदय होता है जब ऐसी साधना प्राप्त होती है | मेरी नजर में ऐसा कोई काम  ही नहीं है।। जो इस साधना से पूरा ना हो | हिन्दू और इस्लामिक दोनों मतो में यह साधना की जाती
है|
मैंने कई मुसलमानी मौलवियों को भी इस यंत्र का प्रयोग करते हुए देखा है |
यह मैं स्वयं भी इस साधना का प्रयोग बहुत बार करके इसे परख चुका हूँ| और कई संतो ने भी इसे समय-समय पर सिद्ध किया है
यह साधना अगर शारदीय,चैत्र अथवा गुप्त नवरात्री में की जाये तो और भी फल मिलता है |
इसे सिद्ध करने के
लिए समय तो अवश्य ही लगेगा लेकिन अगर आप इसे सिद्ध कर ले तो किसी सिद्धि के
पीछे
भागने की आवश्कता नहीं है | इस में धैर्य बहुत जरुरी है और ब्रह्मचर्य  का
पालन भी
सके |
नियम  —
१. एक समय शुद्ध भोजन करे, फलाहार कभी भी ले सकते हैं |
२.ब्रह्मचर्य अनिवार्य है |
३.सत्य बोलने की
कोशिश करे |
४.किसी से व्यर्थ
में ना उलझें |
५.बड़ों का हमेशा सम्मान करें !
विधि
— शुद्ध धुले हुये वस्त्र  पहने सिले हुए ना हो तो जयादा बेहतर है (जैसे
धोती, चादर) | पीले लाल या सफ़ेद रंग के कपडे ज्यादा बेहतर है | लाल रंग
विशेष फल दाई  है !
२.शुद्ध घी का दीपक लगाये और एक बेजोट पर लाल वस्त्र बिछा कर  माता जगदम्बा का
सुन्दर चित्र स्थापत करें हर रोज पूजन करे और गुरु पूजन करे
और पूर्ण समर्पित भाव से साधना शुरू करे !
३.मन को विचलित ना
होने दे माता का दर्शन होने के बाद कन्या पूजन करे जा साधना पूर्ण होने के बाद
कन्या पूजन जरुरी है |
५.माता की हलवे का भोग लगा कर कन्या पूजन किया जा सकता है !
६. इस यंत्र को
निम्न मन्त्र पड़ते हए सवा लाख बार लिखना है और जितने रोज लिखो आटे में मिक्स कर के
गोलिया बना ले और मछलियों को डाल दे किसी तालाब या नदी पर जाकर |
इस यंत्र को जैसे नीचे दिया है बना ले |
साबर मंत्र —
ॐ  सात पूनम काल का बारह  बरस क्वार ,एको देवी जानिए चौदह भुवन द्वार द्वि पक्षे निर्मलिये तेरह देवन देव अष्ट भुजी परमेशवरी ग्यारह रूद्र सेव ,सोलह कला समपुरनी तिन नयन भरपूर दसो द्वारी तुही माँ , पांचो बाजे नूर ,नव निधि षट दर्शनी पन्द्रह तिथि जान चारो युग में कालका कर काली कल्याण ……!
ये मन्त्र थोडा उग्र  का है ..इसलिए सात्विकता बरतिए ..और इसे प्रयोग में  लाइए
इस मन्त्र का जप करते हुए उपर वाला यन्त्र लिखे और जब  साधना पूरी हो जाती है साधक के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता |
प्रयोग  —
जिस किसी व्यक्ति पर कैसी भी प्रेत बाधा या किसी का किया तंत्र प्रयोग
(जैसे-मूठ) हो, तो इस यन्त्र को अष्ट गंध से लिख कर उस व्यक्ति को पहना
दिया जाये तो बाधा शांत हो जाती है |
कार्य सिद्धि के लिए इस यन्त्र को अपने साथ ले कर कार्य के लिए जा सकते है | मुक़दमे में विजय पाने के लिए  है और घर छोड़  कर
गये व्यक्ति  को
वापिस लाने के लिए इसका अचूक असर होता है वशीकरण  के लिए भी इसका प्रयोग  किया
जाता है आप पहले इसे सिद्ध कर ले इसके प्रयोग  तो सैकड़ो है उसे फिर
कभी दे दूंगा | यंत्र सिद्ध करते करते माँ का दर्शन हो जाता है ऐसा मेरा और
कई लोगो का अनुभव है |

बुद्तत्व की प्राप्ति

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बुद्तत्व की प्राप्ति

   ॐ ॐ   ध्यान योग  ॐ ॐ
‘’मन को भूलकर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’
यह सूत्र इतना ही है।
किसी भी वैज्ञानिक सूत्र की तरह यह छोटा है, लेकिन ये थोड़ से शब्‍द भी तुम्‍हारे जीवन को समग्ररतः: बदल सकते है।
‘’मन को भूल कर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’‘’मध्‍य में रहो।‘’—
बुद्ध ने अपने ध्‍यान की विधि इसी सूत्र के आधार पर विकसित की। उनका मार्ग मज्झम निकाय या मध्‍य मार्ग कहलाता है। बुद्ध कहते है, सदा मध्‍य में रहो, प्रत्‍येक चीज में।
एक बार राजकुमार श्रोण दीक्षित हुआ, बुद्ध ने उसे सन्‍यास में दीक्षित किया। वह राजकुमार अद्भुत व्‍यक्‍ति था। और जब वह संन्‍यास में दीक्षित हुआ तो सारा राज्‍य चकित रह गया। लोगों को यकीन नहीं हुआ कि राजकुमार श्रोण संन्‍यासी हो गया। किसी ने स्‍वप्‍न में भी नहीं सोचा था। क्‍योंकि श्रोण पूरा सांसारिक था। भोग-विलास में सर्वथा लिप्‍त रहता था। सारा दिन सूरा और सुंदरी ही उसका संसार थी।तभी अचानक एक दिन बुद्ध उसके नगर में आए। राजकुमार श्रोण उनके दर्शन को गया। वह बुद्ध के चरणों में गिरा और बोला कि मुझे दीक्षित कर लें, मैं संसार छोड़ दूँगा।जो लोग उसके साथ आए थे उन्‍हें भी इसकी खबर नहीं थी। ऐसी अचानक घटना थी यह। उन्‍होंने बुद्ध से पूछा कि यह क्‍या हो रहा है। यह तो चमत्‍कार है। श्रोण उस कोटि का व्‍यक्‍ति नहीं है। वह तो भोग विलास में रहा है। यह तो चमत्‍कार है। हमने तो कल्‍पना भी नहीं की थी कि श्रोण संन्‍यासी होगा। यह क्‍या हो रहा है। आपने कुछ कर दिया है।
बुद्ध ने कहा कि मैंने कुछ नहीं किया है। मन एक अति से दूसरी अति पर जा सकता है। वह मन का ढंग है। एक अति से दूसरी अति पर जाना।
श्रोण कुछ नया नहीं कर रहा है। यह होना ही था। क्‍योंकि तुम मन के नियम नहीं जानते, इसलिए तुम चकित हो रहे हो।मन एक अति से दूसरी अति पर गति करता रहता है। मन का यही ढंग है। यह रोज-रोज होता है।
जो आदमी धन के पीछे पागल था वह अचानक सब कुछ छोड़कर नंगा फकीर हो जाता है। हम सोचते है कि चमत्‍कार हो गया। लेकिन यह सामान्‍य नियम के सिवाय कुछ नहीं है। जो आदमी धन के पीछे पागल नहीं है। उसके यह उपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह त्‍याग करेगा। क्‍योंकि तुम एक अति से ही दूसरी अति पर जा सकेत हो। वैसे ही जैसे घड़ी का पैंडुलम एक अति से दूसरी अति पर डोलता रहता है।इसलिए जो आदमी धन के लिए पागल था वह पागल होकर धन के खिलाफ जाएगा। लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा। वही मन है।
जो आदमी कामवासना के लिए जीता था वह ब्रह्मचारी हो जा सकता है। एकांत में चला जा सकता है। लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा। पहले वह कामवासना के लिए जीता था अब वह कामवासना के खिलाफ होकर जिएगा। लेकिन उसका रूख उसकी दृष्‍टि वहीं की वहीं रहेगी। इसलिए ब्रह्मचारी सच में कामवासना के पार नहीं गया है। उसका पूरा चित काम-वासना प्रधान हे। वह सिर्फ विरूद्ध हो गया है। उसने काम का अतिक्रमण नहीं किया है। अतिक्रमण का मार्ग सदा मध्य में है। वह कभी अति में नहीं है।तो बुद्ध ने कहा कि यह होना ही था। यह कोई चमत्‍कार नहीं है। मन ऐसे ही व्‍यवहार करता है।श्रोण भिक्‍खु बन गया, संन्‍यासी हो गया।
शीध्र ही बुद्ध के दूसरे शिष्‍यों ने देखा कि वह दूसरी अति पर जा रहा था। बुद्ध ने किसी को नग्‍न रहने को नहीं कहा था, लेकिन श्रोण नग्‍न रहने लगा। बुद्ध नग्‍नता के पक्ष में नहीं थे। उन्‍होंने कहा कि यह दूसरी अति है। लोग है जो कपड़ों के लिए ही जीते है, मानों वही उनका जीवन हो। और ऐसे लोग भी है जो नग्‍न हो जाते है। लेकिन दोनों वस्‍त्रों में विश्‍वास करते है।बुद्ध ने कभी नग्‍नता की शिक्षा नहीं दी। लेकिन श्रोण नग्‍न हो गया। वह बुद्ध का अकेला शिष्‍य था जो नग्‍न हुआ। श्रोण आत्‍म उत्‍पीड़न में भी गहरे अतर गया।
बुद्ध ने अपने संन्‍यासियों को दिन में एक बार भोजन की व्‍यवस्‍था दी थी। लेकिन श्रोण दो दिनों में एक बार भोजन लेने लगा। वह बहुत दुर्बल हो गया। दूसरे भिक्षु पेड़ की छाया में ध्‍यान करते। लेकिन श्रोण कभी छाया में नहीं बैठता था। वह सदा कड़ी घूप में रहता था। वह बहुत सुंदर आदमी था, उसकी देह बहुत सुंदर थी। लेकिन छह महीने के भीतर पहचानना मुश्‍किल हो गया कि यह वही आदमी है। वह कुरूप, काला, झुलसा-झुलसा दिखने लगा।
एक रात बुद्ध श्रोण के पास गए और उससे बोले: श्रोण मैंने सूना है कि जब तुम राजकुमार थे, तब तुम्‍हें वीणा बजाने का शोक था। और तुम एक कुशल वीणावादक और बड़े संगीतज्ञ थे। तो मैं तुमसे एक प्रश्‍न पूछने आया हूं। अगर वीणा के तार बहुत ढीले हो तो क्‍या होता है?
अगर तार ढीले होंगे तो कोई संगीत संभव नहीं है।और फिर बुद्ध ने पूछा कि अगर तार बहुत कसे हों तो क्‍या होगा? श्रोण ने कहा कि तब भी संगीत नहीं पैदा होगा। तारों को मध्‍य में होना चाहिए। वे न ढीले हो और न कसे हुए, ठीक मध्‍य में हो। और श्रोण ने कहा कि वीणा बजाना तो आसान है। लेकिन एक परम संगीतज्ञ ही तारों को मध्‍य में रख सकता है।
तो बुद्ध ने कहा कि छह महीनों तक तुम्‍हारा निरीक्षण करने के बाद मैं तुमसे यही कहने आया हूं, कि जीवन में भी संगीत तभी जन्‍मता है जब उसके तार न ढीले हो और न कसे हुए ठीक मध्‍य में हों। इसलिए त्‍याग करना आसान है, लेकिन परम कुशल ही मध्‍य में रहना जानता है।
इसलिए श्रोण, कुशल बनो और जीवन के तारों को मध्‍य में, ठीक मध्‍यम में रखो। इस या उस अति पर मत जाओ। और प्रत्‍येक चीज के दो छोर है, दो अतियां है। लेकिन तुम्‍हें सदा मध्‍य में रहना है।
लेकिन मन बहुत बेहोश है। इसलिए सूत्र में कहा गया है
‘’मन को भूलकर।‘’
तुम यह बात सुन भी लोगे, तुम इसे समझ भी लोगे, लेकिन मन उसको नहीं ग्रहण करेगा। मन सदा अतियों को चुनता है। मन में अतियों के लिए बड़ा आकर्षण है। मोह है। क्‍यों?
क्‍योंकि मध्‍य में मन की मृत्‍यु हो जाती है।घड़ी के पैंडुलम को देखो। अगर तुम्‍हारे पास कोई पुरानी घड़ी हो तो उसके पैंडुलम को देखो। पैंडुलम सारा दिन चलता रहता है। यदि वह अतियों तक आता जाता रहे। जब वह बांए जाता है तब दांए जाने के लिए शक्‍ति अर्जित कर रहा है। जब वह दांए जा रहा है तो मत सोचो की वह दांए जा रहा है। वह बांए जाने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहा है। अतियां ही दांए-बांए है। पैंडुलम को बीच में ठहरने दो और सब गति बंद कर दो, तब पैंडुलम में उर्जा नहीं रहेगी। क्‍योंकि उर्जा तो एक अति से आ रही थी। एक अति से दूसरी अति उसे दूसरी अति की और फेंकती है। उससे एक वर्तुल बनता है। और पैंडुलम गतिमान होता है। उसको बीच में होने दो और तब सब गति ठहर जाएगी।
मन पैंडुलम की भांति है। और अगर तुम इसका निरीक्षण करो तो रोज ही इसका पता चलेगा। तुम एक अति के पक्ष में निर्णय लेते हो और तब तुम दूसरी अति की और जाने लगते हो।
तुम अभी क्रोध करते हो, फिर पश्‍चाताप करते हो।
तुम कहते हो, नहीं, बहुत हुआ, अब मैं कभी क्रोध न करूंगा। लेकिन तुम कभी अति को नहीं देखते।
यह ….‘’कभी नहीं’’ …अति है। तुम कैसे निशचित हो सकते हो कि तुम कभी नहीं क्रोध करोगे। तुम कह क्‍या रहे है? एक बार और सोचो। कभी नहीं? अतीत में जाओ और याद करो कि कितनी बार तुमने निश्‍चय किया है। कि मैं कभी क्रोध नहीं करूंगा। जब तुम कहते हो कि मैं कभी क्रोध नहीं करूंगा। तो तुम नहीं जानते हो कि क्रोध करते समय। ही तुमने दूसरे छोर पर जाने की ऊर्जा इकट्ठी कर ली थी।
अब तुम पश्‍चाताप कर रहे हो। अब तुम्‍हें बुरा लग रहा है। तुम्‍हारी आत्‍म छवि हिल गई है। गिर गई है। अब तुम नहीं कह सकते कि मैं अच्‍छा आदमी हूं। धार्मिक आदमी हूं। मैंने क्रोध किया और धार्मिक व्‍यक्‍ति क्रोध नहीं करता। है। अच्‍छा आदमी क्रोध कैसे करेगा? तो तुम अपनी अच्‍छाई को वापस पाने के लिए पश्‍चाताप करते हो। कम से कम अपनी नजर में तुम्‍हें लगेगा कि मैंने पश्‍चाताप कर लिया, चैन हो गया और अब फिर क्रोध नहीं होगा। इससे तुम्‍हारी हिली हुई आत्‍म-छवि पुरानी अवस्‍था में लौट आएगी।
अब तुम चैन महसूस करोगे। क्‍योंकि अब तुम दूसरी अति पर चले गए।
लेकिन जो मन कहता है कि अब मैं फिर कभी क्रोध नहीं करूंगा। वह फिर क्रोध करेगा। अब जब तुम फिर क्रोध में होगें तो तुम अपने पश्‍चाताप को, अपने निर्णय को, सब को बिलकुल भूल जाओगे। और क्रोध के बाद फिर वह निर्णय लौटेगा। और पश्‍चाताप वापस आएगा। और तुम कभी उसके धोखे को नहीं समझ पाओगे।
ऐसा सदा हुआ है। मन क्रोध से पश्‍चाताप और पश्‍चाताप से क्रोध के बीच डोलता रहता है।बीच में रहो। न क्रोध करो, न पश्‍चाताप करो।
और अगर क्रोध कर गए तो कृपा कर क्रोध ही करो। पश्‍चाताप मत करो। दूसरी अति पर मत जाओ। बीच में रहो।
कहो कि मैंने क्रोध किया है। मैं बुरा आदमी हूं। हिंसक हूं। मैं ऐसा ही हूं। लेकिन पश्‍चाताप मत करो। दूसरी अति पर मत जाओ। मध्‍य में रहो। और अगर तुम मध्‍य में रह सके तो फिर तुम क्रोध करने के लिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं कर पाओगे।
इसलिए यह सूत्र कहता है: ‘’मन को भूलकर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’
इस ‘’जब तक’’ का क्‍या मतलब है? मतलब यह है कि जब तक तुम्‍हारा विस्‍फोट न हो जाए।
मतलब यह है कि तब तक मध्‍य में रहो जब तक मन की मृत्‍यु न हो जाए। तब तक मध्‍य में रहो
जब तक मन…. अ-मन न हो जाए। अगर मन अति पर है तो अ-मन मध्‍य में होगा।लेकिन मध्‍य में होना संसार में सबसे कठिन काम है। दिखता तो सरल है। दिखता तो यह आसान है। तुम्‍हें लगेगा कि मैं कर सकता हूं, और तुम्‍हें यह सोचकर लगेगा कि पश्‍चाताप की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन प्रयोग करो। और तब तुम्‍हें पता चलेगा। कि जब क्रोध करोगे तो मन पश्‍चाताप करने पर जोर देगा।
पति-पत्‍नियों का झगड़ा सदा से चलता आया है। और सदियों से महापुरुष और सलाहकार समझा रहे है कि कैसे रहें और प्रेम करें। और यह झगड़ा जारी है।
पहली बार फ्रायड को इस तथ्‍य को बोध हुआ। कि जब भी तुम प्रेम, तथाकथित प्रेम में होओगे। तुम्‍हें धृणा में भी होना पड़ेगा। सुबह प्रेम करोगे और श्‍याम घृणा करोगे। और इस तरह पैंडुलम हिलता रहेगा। प्रत्‍येक पति-पत्‍नी को इसका पता है।
लेकिन फ्रायड की अनंतदृष्टि बड़ी अद्भुत है। वह कहता है कि अगर किसी दंपति ने झगड़ा बंद कर दिया है तो समझो कि उनका प्रेम मर गया। घृणा और लड़ाई। के साथ जो प्रेम है, वह मर गया।
अगर किसी जोड़े का तुम देखो कि वह कभी लड़ता नहीं है तो यह मत समझो कि यह आदर्श जोड़ा है। उसका इतना ही अर्थ है कि यह जोड़ा ही नहीं है। वे समांतर रह रहे है। लेकिर साथ-साथ नहीं रहते। वे समांतर रेखाएं है। जो कहीं नहीं मिलती। लड़ने के लिए भी नहीं।
वे दोनों साथ रहकर भी अकेले-अकेले है—अकेले-अकेले और समांतर।
मन विपरीत पर गति करता है। इसलिए अब मनोविज्ञान के पास दंपतियों के लिए बेहतर निदान है—बेहतर और गहरा। वह कहता है। कि अगर तुम सचमुच प्रेम-इसी मन के साथ—करना चाहते हो तो लड़ने झगड़ने से मत डरों। सच तो यह है कि तुम्‍हें प्रामाणिक ढंग से लड़ना चाहिए। ताकि तुम प्रामाणिक प्रेम के दूसरे छोर को प्राप्‍त कर सको। इसलिए अगर तुम अपनी पत्‍नी के लड़ रहे हो तो लड़ने से चूको मत। अन्यथा प्रेम से भी चूक जाओगे। झगड़े से बचो मत। उसका मौका आए तो अंत तक लड़ों। तभी संध्‍या आते-आते तुम फिर प्रेम करने योग्‍य हो जाओगे। मन तब तक शक्‍ति जुटा लेगा।सामान्‍य प्रेम संघर्ष के बिना नहीं जी सकता। क्‍योंकि उसमे मन की गति संलग्‍न है। सिर्फ वही प्रेम संघर्ष के बिना जिएगा जो कि मन का नहीं है। लेकिन वह बात ही और है। बुद्ध का प्रेम और ही बात है।लेकिन अगर बुद्ध तुम्‍हें प्रेम करें तो तुम बहुत अच्‍छा नहीं महसूस करोगे। क्‍यों? क्‍योंकि उसमें कुछ दोष नहीं रहेगा। वह मीठा ही मीठा होगा। और उबाऊ होगा। क्‍योंकि दोष तो झगड़े से आता है।
बुद्ध क्रोध नहीं कर सकते। वे केवल प्रेम कर सकते है। तुम्‍हें उनका प्रेम पता नहीं चलेगा। क्‍योंकि पता तो विरोध में विपरीतता में चलता है।
जब बुद्ध बारह वर्षों के बाद अपने नगर वापस आए तो उनकी पत्‍नी उनके स्‍वागत को नहीं आई।
सारा नगर उनके स्‍वागत के लिए इकट्ठा हो गया, लेकिन उनकी पत्‍नी नहीं आई। बुद्ध हंसे। और उन्‍होंने अपने मुख्‍य शिष्‍य आनंद से कहा कि यशोधरा नहीं आई, मैं उसे भली-भांति जानता हूं। ऐसा लगता है कि वह मुझे अभी भी प्रेम करती है। वह मानिनी है, वह आहत अनुभव कर रही है। मैं तो सोचता था बारह वर्ष का लम्‍बा समय है, वह अब प्रेम में न होगी। लेकिन मालूम होता है कि यह अब भी प्रेम में है। अब भी क्रोध में है। वह मुझे लेने नहीं आई, मुझे ही उसके पास जाना होगा।और बुद्ध गए। आनंद भी उनके साथ था। आनंद को एक वचन दिया हुआ था। जब आनंद ने दीक्षा ली थी तो उसने एक शर्त रखी—और बुद्ध ने मान ली। कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा। वह बुद्ध का बड़ा चचेरा भाई था।
इसलिए उन्‍हें मानना पडा था। सो आनंद राजमहल तक उनके साथ गया। वहां बुद्ध ने उनसे कहां। कि कम से कम यहां तुम मेरे साथ मत चलो। क्‍योंकि यशोधरा बहुत नाराज होगी। मैं बारह वर्षों के बाद लौट रहा हूं। और उसे खबर किए बिना यहाँ से चला गया था। वह अब भी नाराज है। तो तुम मेरे साथ मत चलो, अन्‍यथा वह समझेगा कि मैंने उसे कुछ कहने का भी अवसर नहीं दिया।
वह बहुत कुछ कहना चाहती होगी। तो उसे क्रोध कर लेने दो, तुम कृपा इस बार मेरे साथ मत आओ।बुद्ध भीतर गए। यशोधरा ज्‍वालामुखी बनी बैठी थी। वह फूट पड़ी। वह रोने चिल्‍लाने लगी। बकने लगी, बुद्ध चुपचाप बैठे सुनते रहे। धीरे-धीरे वह शांत हुई और तब वह समझी कि उस बीच बुद्ध एक शब्‍द भी नहीं बोले। उसने अपनी आंखें पोंछी और बुद्ध की और देखा।
बुद्ध ने कहा कि मैं यह कहने आया हूं कि मुझे कुछ मिला है, मैंने कुछ जाना है। मैंने कुछ उपल्‍बध किया है। अगर तुम शांत होओ तो मैं तुम्‍हें वह संदेश, वह सत्‍य दूँ, जो मुझे उपलब्‍ध हुआ है। मैं इतनी देर इसलिए रुका रहा कि तुम्‍हारा रेचन हो जाए। बारह साल लंबा समय है। तुमने बहुत घाव इकट्ठे किए होंगे। और तुम्‍हारा क्रोध समझने योग्‍य है। मुझे इसकी प्रतीक्षा थी।
उसका अर्थ है कि तुम अब भी मुझे प्रेम करती हो। लेकिन इस प्रेम के पार भी एक प्रेम है, और उसी प्रेम के कारण मैं तुम्‍हें कुछ कहने वापस आया हूं।लेकिन यशोधरा उस प्रेम को नहीं समझ सकी। इसे समझना कठिन है। क्‍योंकि यह इतना शांत है। यह प्रेम इतना शांत है। कि अनुपस्‍थित सा लगता है।
जब मन विसर्जित होता है तो एक और ही प्रेम घटित होता है। लेकिन उस प्रेम का कोई विपरीत पक्ष नहीं है। विरोधी पक्ष नहीं है। जब मन विसर्जित होता है तब जो भी घटित होता है उसका विपरीत पक्ष नहीं रहता। मन के साथ सदा उसका विपरीत खड़ा रहता है। और मन एक पैंडुलम की भांति गति करता है।
यह सूत्र अद्भुत है। उससे चमत्‍कार घटित हो सकता है।
‘’मन को भूलकर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’
इस प्रयोग में लाओ। और यह सूत्र तुम्‍हारे पूरे जीवन के लिए है। ऐस नहीं है कि उसका अभ्‍यास यदा-कदा किया और बात खत्‍म हो गई। तुम्‍हें निरंतर इसका बोध रखना होगा। होश रखना होगा। काम करते हुए चलते हुए, भोजन करते हुए। संबंधों में, सर्वत्र मध्‍य में रहो। प्रयोग करके देखो और तुम देखोगें कि एक मौन, एक शांति तुम्‍हें घेरने लगी है और तुम्‍हारे भीतर एक शांत केंद्र निर्मित हो रहा है।अगर ठीक मध्‍य में होने में सफल न हो सको तो भी मध्‍य में होने की कोशिश करो। धीरे-धीरे तुम्‍हें मध्‍य की अनुभूति होने लगेगी। जो भी हो, घृणा या प्रेम, क्रोध या पश्‍चाताप, सदा ध्रुवीय विपरीतताओं को ध्‍यान में रखो और उनके बीच मे रहो।
और देर अबेर तुम ठीक मध्‍य को पा लोगे।और एक बार तुमने इसे जान लिया तो फिर तुम उसे नहीं भूलोगे। क्‍योंकि मध्‍य बिंदू मन के पार है। और वह मध्‍य बिंदु अध्‍यात्‍म का सार सूत्र है।

शाबर मोहिनी बशिकरण अनुभूत

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मोहिनी वशीकरण शाबर मंत्र :
तेल तेल महा तेल! देखूं री मोहिनी तेरा खेल,
लौंग लौंगा लौंगा,बैर एक लौंग मेरी आती पाती ,दूसरी लौंग दिखाए छाती,
रूठी को मना लाए ,बैठी को उठा लाए ,सोती को जगा लाए ,चलती फिरती को लेवा लाए,
आकास की जोगनी,पताल का सिद्व ,
””जिसको वश में करना हो”” को लाग लाग री मोहिनी ,
तुझे भैरों की आन!!!
प्रयोग विधि:
यह वशीकरण मोहिनी शाबर प्रयोग है!आपको बस इतना करना है की किसी भी रविवार से इस प्रयोग को शुरू करें!रात 12 बजे यह प्रयोग करें!दिशा उत्तर और आसन लाल रंग का उत्तम है!दो साबुत फूलवाली लौंग अपने पास रखें !गूगल या लौबान की अगरबत्ती जलाएं और दीया सरसों के तेल का जलाएं !अपने पास पांच रंग की मिठाई और पांच गुलाब के फूल रखें!रोजाना 41 बार यह मंत्र पढ़े और जहाँ ””जिसको वश में करना हो”” लिखा हैं वहां जिसको वश में करना हो उसका नाम लें फिर दोनों लौंग पर फूंक मारें!ऐसा आपको 7 दिनों तक करना हैं!हर दिन 41 बार मंत्र को जप कर उन्ही लौंगो पर फूंक मारनी हैं!आपको रोज़ नए गुलाब के पांच फूल और नयी पांच रंग की मिठाई रखनी होगी!अब जब 7 दिन हो जाए तो आप उन दोनों लौंगो को अपने पास संभाल कर रख लें और जिसके नाम से यह मंत्र आपने पढ़ा हैं उसकी पीठ पर मारें!बसआपका काम हो जाएगा !प्रयोग के बाद मिठाई और फूल किसी नदी में परवाह कर दें !

तीसरी आँख को पाने की सरलतम विधि

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‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्‍थान सर्वग्राही हो जाता है।‘’
यह एक पुरानी से पुरानी विधि है और इसका प्रयोग भी बहुत हुआ है। यह सरलतम विधियों में एक है।
सिर के सभी द्वारों को, आँख, कान, नाक, मुंह, सबको बंद कर दो। जब सिर के सब द्वार दरवाजे बंद हो जाते है तो तुम्‍हारी चेतना तो सतत बहार बह रही है। एकाएक रूक जाती है। ठहर जाती है। वह अब बाहर नहीं जा सकती।
तुमने ख्‍याल नहीं किया कि अगर तुम क्षण भर के लिए श्‍वास लेना बंद कर दो तो तुम्‍हारा मन भी ठहर जाता है। क्‍यों? क्‍योंकि श्‍वास के साथ मन चलता है। वह मन का एक संस्‍कार है।
तुम्‍हें समझना चाहिए कि यह संस्‍कार क्‍या है। तभी इस सूत्र को समझना आसान होगा।
रूस के अति प्रसिद्ध मानस्‍विद पावलफ ने संस्‍कारजनित प्रतिक्रिया को, कंडीशंड रिफ्लेक्‍स को दुनियाभर में आम बोलचाल में शामिल करा दिया है। जो व्‍यक्‍ति भी मनोविज्ञान से जरा भी परिचित है, इस शब्‍द को जानता है। विचार की दो श्रृंखलाएं कोई भी दो श्रृंखलाएं इस तरह एक दूसरे से जुड़ सी जाती है। कि अगर तुम उनमें से एक को चलाओ तो दूसरी अपने आप शुरू हो जाती है।
पावलफ ने एक कुत्‍ते पर प्रयोग किया। उसने देखा कि तुम अगर कुत्‍ते के सामने खाना रख दो वक उसकी जीभ से लार बहने लगती है। जीभ बहार निकल आती है। और वह भोजन के लिए तैयार हो जाता है। कुत्‍ता जब भोजन देखता है या उसकी कल्‍पना करता है तो लार बहने लगती है। लेकिन
पावलफ ने इस प्रक्रिया के साथ दूसरी बात जोड़ दी। जब भी भोजन रखा जाए और कुत्‍ते की लार टपकने लगे। वह दूसरी चीज करता; उदाहरण के लिए, वह एक घंटी बजाता और कुत्‍ता उस घंटी को सुनता।पंद्रह दिन तक जब भी भोजन रखा जाता, घंटी भी बजती। और तब सोलहवें दिन कुत्‍ते के सामने भोजन नहीं रखा गया, केवल घंटी बजाईं गई। लेकिन तब भी कुत्‍ते के मुहँ से लार बहने लगी। और जीभ बाहर आ गई, मानो भोजन सामने रखा हो।वहां भोजन नहीं था, सिर्फ घंटी थी। अब घंटी बजने और लार टपकने के बीच कोई स्‍वाभाविक संबंध नहीं था। लार का स्‍वाभाविक संबंध भोजन के साथ है। लेकिन अब घंटी का रोज-रोज बजना लार के साथ जुड़ गया था, संबंधित हो गया था। और इसलिए मात्र घंटी के बजने पर भी लार बहने लगी।पावलफ के अनुसार—और पावलफ सही है—हमारा समूचा जीवन एक कंडीशंड प्रोसेस है।
मन संस्‍कार है। इसलिए अगर तुम उस संस्‍कार के भीतर कोई एक चीज बंद कर दो तो उससे जूड़ी और सारी चीजें भी बंद हो जाती है।
उदाहरण के लिए विचार और श्‍वास है। विचारणा सदा ही श्‍वास के साथ चलती है। तुम बिना श्‍वास विचार नहीं कर सकते। तुम श्‍वास के प्रति सजग नहीं रहते, लेकिन श्‍वास सतत चलती रहती है। दिन-रात चलती रहती है। और प्रत्‍येक विचार, विचार की प्रक्रिया ही श्‍वास की प्रक्रिया से जुड़ी है। इसलिए अगर तुम अचानक अपनी श्‍वास रोक लो तो विचार भी रूक जाएगा।वैसे ही अगर सिर के सातों छिद्र, उसके सातों द्वार बंद कर दिए जाएं तो तुम्‍हारी चेतना अचानक गति करना बंद कर देगी। तब चेतना भीतर थिर हो जाती है। और उसका यह भीतर थिर होना तुम्‍हारी आंखों के बीच के बीच स्‍थान बना देता है। वह स्‍थान ही त्रिनेत्र, तीसरी आँख कहलाती है।
अगर सिर के सभी द्वार बंद कर दिये जाये तो तुम बाहर गति नहीं कर सकते। क्‍योंकि तुम सदा इन्‍हीं द्वारों से बाहर जाते रहे हो। तब तुम भीतर थिर हो जाते हो। और वह थिर होना, एकाग्र इन दो आंखों, साधारण आंखों के बीच घटित होता है। चेतना इन दो आंखों के बीच के स्‍थान पर केंद्रित हो जाती है। उस स्‍थान को ही त्रिनेत्र कहते है।
यह स्‍थान सर्वग्राही सर्वव्‍यापक हो जाता है। यह सूत्र कहता है कि इस स्‍थान में सब सम्‍मिलित है सारा आस्‍तित्‍व समाया है। अगर तुम इस स्‍थान को अनुभव कर लो तो तुमने सब को अनुभव कर लिया।
एक बार तुम्‍हें इन दो आंखों के बीच के आकाश की प्रतीति हो गई तो तुमने पूरे अस्‍तित्‍व को जाने लिया, उसकी समग्रता को जान लिया, क्‍योंकि यह आंतरिक आकाश सर्वग्राही है, सर्वव्‍यापक है, कुछ भी उसके बाहर नहीं है।
उपनिषाद कहते है:
‘’एक को जानकर सब जान लिया जाता है।‘’
ये दो आंखें तो सीमित को ही देख सकती है; तीसरी आँख असीम को देखती है। ये दो आंखे तो पदार्थ को ही देख सकती है; तीसरी आँख अपदार्थ को, अध्‍यात्‍म को देखती है। इन दो आंखों से तुम कभी ऊर्जा की प्रतीति नहीं कर सकते , ऊर्जा को नहीं देख सकते, सिर्फ पदार्थ को देख सकते हो। लेकिन तीसरी आँख से स्‍वयं ऊर्जा देखी जाती है।द्वारों का बंद किया जाना केंद्रित होने का उपाय है। क्‍योंकि एक बार जब चेतना के प्रवाह का बाहर जाना रूक जाता है। वह अपने उदगम पर थिर हो जाती है। और चेतना का यह उदगम ही त्रिनेत्र है।
अगर तुम इस त्रिनेत्र पर केंद्रित हो जाओ तो बहुत चीजें घटित होती है। पहली चीज तो यह पता चलती है कि सारा संसार तुम्‍हारे भीतर है।स्‍वामी राम कहा करते थे कि सूर्य मेरे भीतर चलता है। तारे मेरे भीतर चलते है, चाँद मेरे भीतर उदित होता है; सारा ब्रह्मांड मेरे भीतर है। जब उन्‍होंने पहली बार यह कहा तो उनके शिष्‍यों कि वे पागल हो गए है। राम तीर्थ के भीतर सितारे कैसे हो सकते है।वे इसी त्रिनेत्र की बात कर रहे थे। इसी आंतरिक आकाश के संबंध में। जब पहली बार यह आंतरिक आकाश उपलब्‍ध होता है तो यही भाव होता है। जब तुम देखते हो कि सब कुछ तुम्‍हारे भी तर है तब तुम ब्रह्मांड ही हो जाते हो।
त्रिनेत्र तुम्‍हारे भौतिक शरीर का हिस्‍सा नहीं है। वह तुम्‍हारे भौतिक शरीर का अंग नहीं है। तुम्‍हारी आंखों के बीच का स्‍थान तुम्‍हारे शरी तक ही सीमित नहीं है। वह तो वह अनंत आकाश है जो तुम्‍हारे भीतर प्रवेश कर गया है। और एक बार यह आकाश जान लिया जाए तो तुम फिर वही व्‍यक्‍ति नहीं रहते। जिस क्षण तुमने इस अंतरस्‍थ आकाश को जान लिया उसी क्षण तुमने अमृत को जान लिया तब कोई मृत्‍यु नहीं है।जब तुम पहली बार इस आकाश को जानोंगे, तुम्‍हारा जीवन प्रामाणिक और प्रगाढ़ हो जाएगा; तब पहली बार तुम सच में जीवंत होओगे। तब किसी सुरक्षा की जरूरत नहीं रहेगी। अब कोई भय संभव नहीं है। अब तुम्‍हारी हत्‍या नहीं हो सकती। अब तुमसे कुछ भी छीना नहीं जा सकता।
अब सारा ब्रह्मांड तुम्‍हारा है, तुम ही ब्रह्मांड हो। जिन लोगों ने इस अंतरस्‍थ आकाश को जाना है उन्‍होंने ही
आनंदमग्‍न होकर उरदघोषणा की है: अहं ब्रह्मास्‍मि। मैं ही ब्रह्मांड हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं……..।
सूफी संत मंसूर को इसी तीसरी आँख के अनुभव के कारण कत्‍ल कर दिया गया। जब उसने पहली बार इस आंतरिक आकाश को जाना, वह चिल्‍लाकर कहने लगा:
अनलहक़, मैं ही परमात्‍मा हूं,
भारत में वह पूजा जाता। क्‍योंकि भारत ने ऐसे अनेक लोग देखे है जिन्‍हें इस तीसरी आँख आंतरिक आकाश का बोध हुआ। लेकिन मुसलमानों के देश में यह बात कठिन हो गई। और मंसूर का यह वक्‍तव्‍य कि मैं परमात्‍मा हूं, अनलहक़, अहं ब्रह्मास्‍मि, धर्मविरोधी मालूम हुआ। क्‍योंकि
मुसलमान यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्‍य और परमात्‍मा एक है।
मनुष्‍य–मनुष्‍य है। मनुष्‍य सृष्‍टि है, और परमात्‍मा सृष्‍टा। सृष्टि स्‍त्रष्‍टा कैसे हो सकता है।
इस लिए मंसूर का यह वक्‍तव्‍य नहीं समझा जा सका। और उसकी हत्‍या कर दी गई।
लेकिन जब उसको कत्‍ल किया जा रहा था तब वह हंस रहा था। तो किसी ने पूछा कि हंस क्‍यों रहे हो। मंसूर। कहते है कि मंसूर ने कहा मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम मुझे नहीं मार रहे हो। तुम मेरी हत्‍या नहीं कर सकते। तुम्‍हें मेरे शरीर से धोखा हुआ है। लेकिन मैं शरीर नहीं हूं। मैं इस ब्रह्मांड को बनाने वाला हूं; यह मेरी अंगुलि थी जिसने आरंभ में समूचे ब्रह्मांड को चलाया था।
भारत में मंसूर आसानी से समझा जाता, सदियों-सदियों से यह भाषा जानी पहचानी है। हम जानते हे कि एक घड़ी आती है जब यह आंतरिक आकाश जाना जाता है।
तब जानने वाला पागल हो जाता है। और यह ज्ञान इतना निश्‍चित है कि यदि तुम मंसूर की हत्‍या भी कर दो तो वह अपना वक्‍तव्‍य नहीं बदलेगा। क्‍योंकि हकीकत में, जहां तक उसका संबंध है,तुम उसकी हत्‍या नहीं कर सकते। अब वह पूर्ण हो गया है। उसे मिटाने का उपाय नहीं है।
मंसूर के बाद सूफी सीख गए कि चुप रहना बेहतर है। इसलिए मंसूर के बाद सूफी पंरम्‍परा में शिष्‍यों को सतत सिखाया गया कि जब भी तुम तीसरी आँख को उपल्‍बध करो चुप रहो, कुछ कहो मत। जब भी घटित हो, चुप्‍पी साध लो। कुछ भी मत कहो। या वे ही चीजें औपचारिक ढंग से कहे जाओ जो लोग मानते है।
इसलिए अब इस्‍लाम में दो परंपराएं है। एक सामान्‍य परंपरा है—बाहरी, लौकिक।
और दूसरी परंपरा असली इसलाम है, सूफीवाद जो गुह्म है।
लेकिन सूफी चुप रहते है। क्‍योंकि मंसूर के बाद उन्‍होंने सीख लिया कि उस भाषा में बोलना जो कि तीसरी आँख के खुलने पर प्रकट होती है। व्‍यर्थ की कठिनाई में पड़ना है, और उससे किसी को मदद भी नहीं होती।
यह सूत्र कहता है: ‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्‍थान सर्वग्राही, सर्वव्‍यापी हो जाता है।‘’तुम्‍हारा आंतरिक आकाश पूरा आकाश हो जाता है।
ॐ विधि ॐ
प्रत्‍येक विधि किसी मन-विशेष के लिए उपयोगी है। जिस विधि की अभी हम चर्चा कर रहे थे—
तीसरी विधि, सिर के द्वारों को बंद करने वाली विधि—उसका उपयोग अनेक लोग कर सकते है। वह बहुत सरल है और बहुत खतरनाक नहीं है। उसे तुम आसानी से काम में ला सकते हो।
यह भी जरूरी नहीं है कि द्वारों को हाथ से बंद करो; बंद करना भी जरूरी है। इसलिए कानों के लिए डाट और आंखों के लिए पट्टी से काम चल जाएगा
असली बात यह कि कुछ क्षणों के लिए ये कुछ सेंकेंड के लिए सिर के द्वारों को पूरी तरह से बंद कर लो।इसका प्रयोग करो, अभ्‍यास करो। अचानक करने से ही यह कारगर है, अचानक में ही राज छिपा है।
बिस्‍तर में पड़े-पड़े अचानक सभी द्वारों को कुछ सेकेंड के लिए बंद कर लो। और तब भीतर देखो क्‍या होता है।जब तुम्‍हारा दम घुटने लगे, क्‍योंकि श्‍वास भी बंद हो जाएगी, तब भी इसे जारी रखे और तब तक जारी रखो जब तक कि असह्य न हो जाये। और जब असह्य हो जाएगा, तब तुम द्वारों को ज्‍यादा देर बंद नहीं रख सकोगे, इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दो। तब आंतरिक शक्‍ति सभी द्वारों के खुद खोल देगी।
लेकिन जहां तक तुम्‍हारा संबंध है, तुम बंद रखो। जब दम घुटने लगे, तब वह क्षण आता है, निर्णायक क्षण, क्‍योंकि घुटन पुराने एसोसिएशन तोड़ डालती है।
इसलिए कुछ और क्षण जारी रख सको तो अच्‍छा।यह काम कठिन होगा, मुश्‍किल होगा, और तुम्‍हें लगेगा कि मौत आ गई।
लेकिन डरों मत। तुम मर नहीं सकते। क्‍योंकि द्वारों को बंद भर करने से तुम नहीं मरोगे। लेकिन जब लगे कि में मर जाऊँगा, तब समझो कि वह क्षण आ गया।अगर तुम उस क्षण में धीरज से लगे रहे तो अचानक हर चीज प्रकाशित हो जाएगी। तब तुम उस आंतरिक आकाश को महसूस करोगे। जो कि फैलता ही जाता है, और जिसमें समग्र समाया हुआ है। तब द्वारों को खोल दो और तब इस प्रयोग को फिर-फिर करो। जब भी समय मिले, इसका प्रयोग में लाओ।
लेकिन इसका अभ्‍यास मत बनाओ। तुम श्‍वास को कुछ क्षण के लिए रोकने का अभ्‍यास कर सकते हो। लेकिन उससे कुछ लाभ नहीं होगा।
एक आकस्‍मिक, अचानक झटक की जरूरत है।
उस झटके में तुम्‍हारी चेतना के पुराने स्रोतों का प्रवाह बंद हो जाता है। और कोई नयी बात संभव हो जाती है।
भारत में अभी भी सर्वत्र अनेक लोग इस विधि का अभ्‍यास करते है। लेकिन कठिनाई यह है कि वे अभ्‍यास करते है।
जब कि यह एक अचानक विधि हे। अगर तुम अभ्‍यास करो तो कुछ भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं होगा। अगर मैं तुम्‍हें अचानक इस कमरे से बाहर निकाल फेंकूंगा तो तुम्‍हारे विचार बंद हो जाएंगे।
लेकिन अगर हम रोज-रोज इसका अभ्‍यास करें तो कुछ नहीं होगा। तब वह एक यांत्रिक आदत बन जाएगी।इसलिए अभ्यास मत करो;
जब भी हो सके प्रयोग करो। तो धीरे-धीरे तुम्‍हें अचानक एक आंतरिक आकाश का बोध होगा। वह आंतरिक आकाश तुम्‍हारी चेतना में तभी प्रकट होता है जब तुम मृत्‍यु के कगार पर होते हो।
तब तुम्‍हें लगता है कि अंग में एक क्षण भी नहीं जीऊूंगा। अब मृत्‍यु निकट है; तभी वह सही क्षण आता है।
इसलिए लगे रहो, डरों मत।मृत्‍यु इतनी आसान नहीं है। कम से कम इस विधि को प्रयोग में लाते हुए कोई व्‍यक्‍ति अब तक मरा नहीं है। इसमे अंतर्निहित सुरक्षा के उपाय है, यही कारण है कि तुम नहीं मरोगे।
मृत्‍यु के पहले आदमी बेहोश हो जाता है। इसलिए होश में रहते हुए यह भाव आए कि मैं मर रहा हूं तो डरों मत। तुम अब भी होश में हो, इसलिए मरोगे नहीं।
और अगर तुम बेहोश हो गए तो तुम्‍हारी श्‍वास चलने लगेगी। तब तुम उसे रोक नहीं पाओगे।और
तुम कान के लिए डाट काम में ला सकते हो। आंखों के पट्टी बाँध सकते हो। लेकिन नाक और मुंह के लिए कोई डाट उपयोग नहीं करने है। क्‍योंकि तब वह संघातक हो सकता है।
कम से कम नाक को छोड़ रखना ठीक है। उसे हाथ से ही बंद करो। उस हालत में जब बेहोश होने लगोगे तो हाथ अपने आप ही ढीला हो जाएगा। और श्‍वास वापस आ जाएगी। तो इसमे अंतर्निहित सुरक्षा है।
यह विधि बहुतों के काम की है।

मुस्लिम वशीकरण

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मुस्लिम वशीकरण

सिद्ध वशीकरण मन्त्र
“बिस्मिल्लाह कर बैठिए, बिस्मिल्लाह कर बोल। बिस्मिल्लाह कुञ्जी कुरान की, जो चाहे सो खोल। धरती माता तू बड़ी, तुझसे बड़ा खुदाय। पीर-पैगम्बर औलिया, सब तुझमें रहे समाएँ। डाली से डाली झुकी, झुका झुका फूल-से-फूल। नर बन्दे तू क्यों नहीं झुकता, झुक गए नबी रसूल। गिरा पसीना नूर का, हुआ चमेली फूल। गुन्द-गुन्स लावने मालिनी पहिरे नबी रसूल।”
विधि- बहते पानी के समीप १०१ दाने की माला से प्रातः सायं २१ माला, ४१ दिन तक जपे, ४१वें दिन सायं को हलवा प्रसाद में ले आए। मन्त्र के बाद कुछ हलवा पानी में छोड़ दे और शेष बच्चों में बाँट दे।
जिस पर प्रयोग करना हो, तो मन्त्र को कागज पर केसर-स्याही से लिखे। ‘नर-बन्दे’ के स्थान पर उसका नाम लिखे। मन्त्र को पानी में घोल के साध्य व्यक्ति को पिलावे, तो वशीकरण होगा।

मूलबंध : ब्रह्रम्‍चर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि

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मूलबंध : ब्रह्रम्‍चर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि
जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। लेकिन साधारणत: तुम्‍हारी जीवन-ऊर्जा नीचे की और प्रवाहित हो रही है। इसलिए तुम्‍हारी सब जीवन ऊर्जा अनंत वासना बन जाती है। काम वासना तुम्‍हारा निम्‍नतम चक्र है। तुम्‍हारी ऊर्जा नीचे गिर रही है। और सारी ऊर्जा काम केन्‍द्र पर इकट्ठी हो जाती है। इस लिए तुम्‍हारी सारी शक्ति कामवासना बन जाती है। एक छोटा सा प्रयोग, जब भी तुम्‍हारे मन में कामवासना उठे तो, ड़रो मत शांत होकर बैठ जाऔ। जोर से श्‍वास को बहार फेंको—उच्‍छवास। भीतर मत लो श्‍वास को— क्‍योंकि जैसे भी तुम भीतर गहरी श्‍वास को लोगे, भीतर जाती श्‍वास काम ऊर्जा को नीचे की धकाती है।
जब सारी श्‍वास बहार फिंक जाती है, तो तुम्‍हारा पेट और नाभि‍ वैक्‍यूम हो जाती है, शून्‍य हो जाती है। और जहां कहीं शून्‍य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्‍य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्‍य खींचता है, क्‍योंकि प्रकृति शून्‍य को बरदाश्‍त नहीं करती, शून्‍य को भरती है। तुम्‍हारी नाभि के पास शून्‍य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्‍क्षण नाभि की तरफ अठ जाती है, और तुम्‍हें बड़ा रस मिलेगा—जब तुम पहली दफ़ा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि‍ में उठ गई। तुम पाओगें, सारा तन एक गहन स्‍वास्‍थ्‍य से भर गया। एक ताजगी, ठीक वैसी ही ताजगी का अनुभव करोगे जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है। वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए, तो तुम्‍हें हर्ष का अनुभव होगा। एक प्रफुल्‍लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरू हुआ, तुम ज्‍यादा शक्तिशाली, ज्‍यादा सौमनस्‍यपूर्ण, ज्‍यादा उत्‍फुल्‍ल, सक्रिय, अन-थके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे। जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो, और ताजगी ने घेर लिया है।
इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने सतत साधना बना ली—और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता; तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर स‍कते हो, तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, दफ़तर में काम करते हुए कर सकते हो, कुर्सी पर बैठे हुए, कब तुमने चुपचाप अपने पेट को को भीतर खींच लिया। एक क्षण में ऊर्जा ऊपर की तरफ स्‍फुरण कर जाती है। अगर एक व्‍यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह मैं सुगमंतम मार्ग कह रहा हूँ, जो ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का हो सकता है। फिर और कठिन मार्ग हैं, जिनके लिए सारा जीवन छोड़ कर जाना पड़ेगा। पर कोई जरूरत नहीं है। बस, तुमने एक बात सीख ली कि ऊर्जा कैसे नाभि तक जाए शेष तुम्‍हें चिंता नहीं करनी है। तुम ऊर्जा को, जब भी कामवासना उठे नाभि में इक्ट्ठा करते जाओ। जैसे-जैसे ऊर्जा बढ़ेगी नाभि में, अपने आप ऊपर की तरफ उठने लगेगी। जैसे बर्तन में पानी बढ़ता जाए, तो पानी की सतह ऊपर उठती जाए।
असली बात मूलाधार का बंद हो जाना है। घड़े के नीचे का छेद बंद हो गया, ऊर्जा इकट्ठी होती जाएगी, घड़ा अपने आप भरता जाएगा। एक दिन अचानक पाओगें कि धीरे-धीरे नाभि के ऊपर ऊर्जा आ रही है, तुम्‍हारा ह्रदय एक नई संवेदना से आप्‍लावित हुआ जा रहा है। जिस दिन ह्रदय चक्र पर आएगी तुम्‍हारी ऊर्जा, तुम पाओगें कि तुम भर गये प्रेम से। तुम जहां भी ऊठोगे, बैठोगे, तुम्‍हारे चारों तरफ एक हवा बहने लगेगी प्रेम की। दूसरे लोग भी अनुभव करेंगे कि तुममें कुछ बदल गया है। तुम अब वह नहीं रहे हो, तुम किसी और तरंग पर बैठ गये हो। तुम्‍हारे साथ कोई और लहर भी आती है—कि उदास प्रसन्‍न हो जाते है, कि दुःखी थोड़ी देर को दुःख भूल जाते है, कि अशांत शांत हो जाते है, कि तुम जिसे छू देते हो, उस पर ही एक छोटी सी प्रेम की वर्षा हो जाती है। लेकिन, ह्रदय में ऊर्जा आएगी, तभी यह होगा।
ऊर्जा जब बढ़ेगी, ह्रदय से कंठ में आएगी, तब तुम्‍हारी वाणी में माधुर्य आ जाएगा। तब तुम्‍हारी वाणी में एक संगीत, एक सौंदर्य आ जाएगा। तुम साधारण से शब्‍द बोलोगे और उन शब्‍दों में काव्‍य होगा। तुम दो शब्‍द किसी से कह दोगे और उसे तृप्‍त कर दोगे। तुम चुप भी रहोगे, तो तुम्‍हारे मौन में भी संदेश छिप जाएंगे। तुम न भी बोलोगे तो तुम्‍हारा अस्तित्‍व बोलेगा। ऊर्जा कंठ पर आ गई।
ऊर्जा ऊपर उठती जाती है। एक घड़ी आती है कि तुम्‍हारे नेत्र पर ऊर्जा का आविर्भाव होता है। तब तुम्‍हे पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होता है। तुम अंधे नहीं होते। उससे पहले तुम अंधे हो। क्‍योंकि उसके पहले तुम्‍हें आकार दिखाई पड़ते है, निराकार नहीं दिखाई पड़ता; और वही असली में है। सब आकारों में छिपा है‍ निराकार। आकार तो मूलाधार में बंधी हुई ऊर्जा के कारण दिखाई पड़ते है। अन्‍यथा कोई आकार नहीं है।
मूलाधार अंधा चक्र है। इस लिए तो कामवासना को अंधी कहते है। वह अंधी है। उसके पास आँख बिलकुल नहीं है। आँख तो खुलती है—तुम्‍हारी असली आँख, जब तीसरे नेत्र पर ऊर्जा आकर प्रकट होती है। जब लहरे तीसरे नेत्र को छूने लगती हैं। तीसरे नेत्र के किनारे पर जब तुम्‍हारी ऊर्जा की लहरे आकर टकराने लगती है, पहले दफ़ा तुम्‍हारे भीतर दर्शन की क्षमता जागती है। दर्शन की क्षमता, विचार की क्षमता का नाम नहीं है। दर्शन की क्षमता देखने की क्षमता है। वह साक्षात्‍कार है। जब बुद्ध कुछ कहते है, तो देख कर कहते है। वह उनका अपना अनुभव है। अनानुभूत शब्‍दों का क्‍या अर्थ है ? केवल अनुभूत शब्‍दों में सार्थकता होती है।
ऊर्जा जब तीसरी आँख में प्रवेश करती है। तो अनुभव शुरू होता है, और ऐसे व्‍यक्ति के वचनों में तर्क का बल नहीं होता, सत्‍य का बल होता है। ऐसे व्‍यक्ति के वचनों में एक प्रामाणिकता होती है, जो वचनों के भीतर से आती है। किन्‍हीं बाह्रा प्रमाणों के आधार पर नहीं। ऐसे व्‍यक्ति के वचन को ही हम शास्‍त्र कहते है। ऐसे व्‍यक्ति के वचन वेद बन जाते है। जिसने जाना है, जिसने परमात्‍मा को चखा है, जिसने पीया है, जिसने परमात्‍मा को पचाया है, जो परमात्‍मा के साथ एक हो गया है।
फिर ऊर्जा और ऊपर जाती है। सहस्‍त्रार को छूती है। पहला सबसे नीचा केंद्र मूलाधार चक्र है, मूलबंध, और अंतिम चक्र है, सहस्‍त्रार। क्‍योंकि वह ऐसा है, जैसे सहस्‍त्र पंखुडि़यों वाला कमल। बड़ा सुंदर है, और जब खिलता है तो भीतर ऐसी ही प्रतीति होती है, जैसे पूरा व्‍यक्तित्‍व सहस्‍त्र पंखूडि़यों वाला कमल हो गया है। पूरा व्‍यक्तित्‍व खिल गया ।
जब ऊर्जा टकराती है सहस्‍त्र से, तो उसकी पंखुडि़यां खिलनी शुरू हो जाती है। सहस्‍त्रार के खिलते ही व्‍यक्तित्‍व से आनंद का झरना बहने लगता है। मीरा उसी क्षण नाचने लगती है। उसी क्षण चैतन्‍य महाप्रभु उन्‍मुक्‍त हो नाच उठते है। चेतना तो प्रसन्‍न होती ही है, रोआं-रोआं शरीर का आन्ंदित हो उठता है। आनंद की लहर ऐसी बहती है कि मुर्दा भी—शरीर तो मुर्दा है—वह भी नाचते लगता है।

प्रबल पुष्प वशीकरण

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पुष्प द्वारा वशीकरण के लिए मन्त्र
|| ॐ नमो आदेश गुरु का
कामरू देश कामक्षा देवी
तहां ठे ठे इस्मायल जोगी
जोगी के आंगन फूल क्यारी
फूल चुन चुन लावे लोना चमारी
फूल चल फूल फूल बिगसे
फूल पर वीर नाहरसिंह बसे
जो नहीं फूल का विष
कबहुं न छोड़े मेरी आस
मेरी भक्ति गुरु की शक्ति
फुरो मन्त्र इश्वरोवाचा || 
विधि :- पहले इस मन्त्र को शुभ महूर्त में 11 माला जप करके सिद्ध कर ले फिर गुलाब का फूल लेकर उस पर 21 बार मन्त्र पढकर फूंके और ये फूल जिस स्त्री को दिया जायेगा वो लेने वाले के वश में रहेगी | सोच समझ कर ही ये प्रयोग करे अगर कोई पीछे
पड़ गयी तो छुड़ाना मुश्किल हो जायेगा

मूलबंध कैसे लगाये

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योग में मूलत: पांच प्रकार के बंध है- 1.मूलबंध, 2.उड्डीयान बंध, 3.जालंधर बंध, 4.बंधत्रय और 5.महाबंध। यहां प्रस्तुत है मूलबंध के बारे में जानकारी। गुदाद्वार को सर्वथा बंद कर देने को मूलबंध कहा जाता है।
लाभ और प्रभाव- योग में मूलबंध के बहुत से फायदे बताए गए हैं। इस मुद्रा को करने से शरीर के अंदर जमा कब्ज का रोग समाप्त हो जाता है और भूख भी तेज हो जाती है। शरीर का भारीपन समाप्त होता है और सुस्ती मिटती है।
यौन रोग में लाभदायक : इस बंध के नियमित अभ्यास से यौन ग्रंथियां पुष्ट होकर यौन रोग में लाभ मिलता है। पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में ये मुद्रा बहुत ही लाभकारी मानी जाती है।
इसे करने की विधि- बाएं पांव की एड़ी से गुदाद्वार को दबाकर, फिर दाएं पांव को बाएं पांव की जांघ पर रखकर सिद्धासन में बैठें। इसके बाद गुदा को संकुचित करते हुए नीचे की वायु को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें। सिद्धासन में एड़ी के द्वारा ही यह काम लिया जाता है।
सिद्धासन में बैठे तब दोनों घुटने जमीन को छूते हुए होने चाहिए तथा हथेलियां उन घुटनों पर टिकी होनी चाहिए। फिर गहरी श्वास लेकर वायु को अंदर ही रोक लें। इसके बाद गुदाद्वार को पूरी तरह से सिकोड़ लें। अब श्वास को रोककर रखने के साथ आरामदायक समयावधि तक बंध को बनाए रखें। इस अवस्था में जालंधर बंध भी लगाकर रखें फिर मूलाधार का संकुचन छोड़कर जालंधर बंध को धीरे से खोल दें और धीरे से श्वास को बाहर छोड़ दें। इस अभ्यास को 4 से 5 बार करें।
गुदासंकुचन क्रिया : गुदा को सुं‍कुचित करना और फिर छोड़ देना। इस तरह 15-20 बार करने से गुदा संबंधी समस्त रोग समाप्त हो जाते हैं। इस क्रिया को करने से बवासीर रोग भी समाप्त हो जाता है। मूलबंध के साथ इसका नियमित अभ्यास से उम्र भी बढ़ती है।
निर्देश- इस मूलबंध का अभ्यास किसी जानकार योगाचार्य के निर्देशन में ही करना चाहिए।
बंध मुद्राएँ शरीर की कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं जिनके द्वारा कुंडलिनी सफलतापूर्वक जाग्रत की जा सकती है। घेरंड संहिता में २५ मुद्राओं एवं महत्वपूर्ण हैं:
(१) मूलबंध, (२) जालंधरबंध, (३) उड्डीयानबंध, (४) महामुद्रा, (५) महाबंध, (६) महावेध (७) योगमुद्रा, (८) विपरीतकरणीमुद्रा, (९) खेचरीमुद्रा, (१०) वज्रिणीमुद्रा, (११) शक्तिचालिनीमुद्रा, (१२) योनिमुद्रा।
उपर्युक्त अनेक क्रियाओं का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। किसी किसी अभ्यास में दो या तीन बंधों और मुद्राओं को सम्मिलित करना पड़ता है। यौगिक क्रियाओं का जब नित्य विधिपूर्वक अभ्यास किया जाता है निश्चय ही उनका इच्छित फल मिलता है। मुद्राओं एवं बंधों के प्रयोग करने से मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, बवासीर, खाँसी, दमा, तिल्ली का बढ़ना, योनिरोग, कोढ़ एवं अनेक असाध्य रोग अच्छे हो जाते हैं। ये ब्रहृाचर्य के लिये प्रभावशाली क्रियाएँ हैं। ये आध्यात्मिक उन्नति के लिये अनिवार्य हैं।
घेरंड संहिता में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पार्ष्णिाना वाम पादस्य योनिमाकुचयेत्तत:।
नाभिग्रंथि मेरूदंडे संपीड्य यत्नत: सुधी:।।
मेद्रं दक्षिणामुल्मे तु दृढ़बंध समाचरेत्‌।
जरा विनाशिनी मुद्रा मूलबंधो निगद्यते।।’
गुहृाप्रदेश को बाईं एड़ी संकुचित करके यत्नपूर्वक नाभिग्रंथि को मेरूदंड में दृढ़ता से संयुक्त करे। पुन: नाभि को भीतर खींचकर पीठ से लगाकर फिर उपस्थ को दाहिनी एड़ी से दृढ़ भाव से संबंद्ध करे। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह मुद्रा बुढ़ापे को नष्ट करती है। घेरंड संहिता में मूलबंध का फल इस प्रकार दिया हुआ है: जो मनुष्य संसार रूपी समुद्र को पार करना चाहते हैं उन्हें छिपकर इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से निश्चय ही महत्‌ सिद्धि होती है। अत: साधक आलस्य का परित्याग करके मौन होकर यत्न के साथ इसकी साधना करे।
मतांतर में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पादमूलेन संपीड्य गुदमार्ग सुमंत्रितं।
बलादपानमाकृष्य क्रमादूर्द्ध समम्येसेत्‌।
कल्पितीय मूलबंधो जरामरण नाशन:।।’
एड़ी से मध्यप्रदेश का यत्नपूर्वक संपीडन करते हुए अपान वायु की बलपूर्वक धीरे-धीरे ऊपर की ओर खींचना चाहिए। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह बुढ़ापा एवं मृत्यु को नष्ट करता है। इसके द्वारा योनिमुद्रा सिद्ध होती है। इसके प्रभाव से साधक आकाश में उड़ सकते हैं।
मूलबंध के नित्य अभ्यास करने से अपान वायु पूर्णरूपेण नियंत्रित हो जाती है। उदर रोग से मुक्ति हो जाती है। वीर्य रोग हो ही नहीं सकता। मूलबंध का साधक निर्द्वद्व होकर वास्तविक स्वस्थ शरीर से आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करता है। आयु बढ़ जाती है। इसका साधक भौतिक कार्यो को भी उल्लासपूर्वक संपन्न करता है। सभी बंधों में मूलबंध सर्वोच्च एवं शरीर के लिये अत्यंत उपयोगी है।

जीव के अन्दर के ग्यारह रूद्र

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2) भूत प्रेत जिंद इत्यादि से बचावपूर्ण
पूर्ण सृष्टि में चार प्रकार के जीव होते है अंडज, पिंडज, जलज और स्वेदज स्थूल देह के अतिरिक्त भारतीय दार्शनिकों ने सूक्ष्म देह का अस्तित्व माना है | सूक्ष्म देह अतिवाहिक देह कहलाती है जो सत्रह तत्वों से बनी होती है | इस देह को आत्मा पूर्ण मानसरूपी सात जन्मों के पश्चात ग्रहण करती है | स्थूल शरीर की सारी योनियों से पार होने के पश्चात ही आत्मा देवयोनि अथवा आसुरी योनि ग्रहण कर पाती है | इस योनि में आत्मा स्थूल तत्वों से स्वाद ग्रहण करती है | देवी साधना और आसुरी साधना द्वारा ही इन आत्माओं को वश में किया जाता है और उनकी शक्तियों को मानव उपयोग में लेता है |
मानव का स्थूल शरीर इनकी चपेट में अधिकतर तब आता है जब ये आत्माएं भोग प्राप्त करती हैं | उदाहरण के तौर पर श्राद्ध के समय चौराहे पर किसी ने अपने पूर्वजों के लिए भोजन रखा और दूसरे शरीर के पांव से ठोकर लग गई तो वो आत्मा उसी समय उस शरीर पर हावी होने लगती है और पीड़ा देना प्रारंभ कर देती है | एक दूसरा पहलू इसका मानव स्वयं तांत्रिक साधनाओं को संपन्न करता है और अनेक आसुरी आत्माओं को अपने वश में कर लेता है फिर आदेशानुसार किसी के भी शरीर अंश द्वारा उस आत्मा से पीड़ा पहुंचाना संभव होता है | इन आत्माओं की शक्तिअनुसार वेदानुसार अनेक प्रकार की क्रियाएं हैं जिनके संपन्न करने से स्थूल शरीर इन आसुरी शक्तियों के प्रभाव से दूर रह सकता है |
3) जीव आत्मा के लिए मुक्ति मार्ग
सृष्टि का निर्माण परमात्मा द्वारा जीव आत्माओं से ही किया गया है | प्रत्येक वस्तु पूर्ण सृष्टि में चक्र में ही चलती है उसी प्रकार से हमारी जीव आत्मा भी इस सृष्टि चक्र में जन्म ग्रहण करती है | हमारा जन्म हमारे कर्मों पर आधारित होता है | कर्मों का फल शरीर में मन सुख और दुख के रूप में भोग लेता है |जिस प्रकार से जीव आत्मा अनश्वर है उसी प्रकार से मन भी अनश्वर ही होता है | पूर्ण सृष्टि चक्र में जीव आत्मा और मन को चौरासी लाख योनियों से गुजरना पड़ता है तद पश्चात मानव जन्म प्राप्त होता है | इस चक्र में फंसने से पहले हमारा मन सृष्टि के कल्याण का संकल्प परमात्मा से धारण करता है | उस संकल्प को पूर्ण करने हेतु मानव शरीर में जीव आत्मा को सात बार इस चक्र में जन्म प्राप्त होता है | संकल्प के ज्ञान हेतु मानव को संकल्पमस्तु के मंत्रों का मंथन करना पड़ता है | इन सात जन्मों में भी अगर जीव आत्मा का मन संकल्प के जान तक नहीं पहुंच पाता और उसे पूर्ण नहीं कर पाता तो फिर से इस सृष्टि चक्र में फंस जाता है और युगों तक मानव जन्म तक पहुंचने हेतु जन्म ग्रहण करता रहता है | मानव शरीर की क्रियाओं की वजह से और वैदिक मंत्रों से दूर होने के कारण ही मानव मन दुखी है |
कर्मों का ही प्रभाव हमारी आत्मा पर भी पड़ता है | शरीर धारण करने के पश्चात हमारी आत्मा भी शरीर का ही एक हिस्सा बन जाती है | भावनाओं की उत्पत्ति आत्मा से होती है | शिव और शक्ति द्वारा रचना सृष्टि की होने के कारण हमारी आत्मा का स्वरूप अर्धनारीश्वर का स्वरुप है | इसका ज्ञान मानव को बीज मंत्र से प्राप्त होता है ॐ नम: शिवाय स्त्री भाव देव भाव और पुरुष भाव राक्षस भाव माना गया है | काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार इन पांच तरह की भावनाओं की व्याख्या देवभाव और राक्षस भाव में ही की जाती है | जिस प्रकार से ज्योतिष शास्त्र कहता है पहले बना प्रारब्ध फिर बना शरीर | शरीर की रचना तो मन को दिए गए संकल्प के अनुसार प्राणी की माता के गर्भ में हो जाती है |
पूर्ण मानव का शरीर वायु मंडल में होने के कारण हमारा कोई भी कर्म वायु से छुपाया नहीं जा सकता इसलिए प्रत्यक्ष समय कलयुग में मानव बुराई की ओर चल पड़ा और सृष्टि को उथल-पुथल कर बैठा | कर्मानव की मृत्यु के समय मस्तिष्क से बिंदू स्वरुप मन हट जाता है | पूर्ण शरीर की क्रियाएं ऊर्जा से चलती हैं | मन स्थान से हटने के कारण ऊर्जा का बहाव शरीर में बंद हो जाता है | इसके पश्चात मन द्वारा किए गए कर्मोें का हिसाब-किताब होना शुरू होता है | पाप और पुण्य के भोग ही आत्मा जन्मों द्वारा सृष्टि में भोगती है | देह का संस्कार अग्नि द्वारा करने का माध्यम भी इसलिए है कि इस मिट्टी रूपी शरीर को जल्द से जल्द अग्नि को समर्पित कर दिया जाए | क्योंकि मन द्वारा संपन्न किए गए पाप कर्मों की सजा आत्मा शरीर को देती ही है | जिस प्रकार शरीर में दस द्वार होते हैं इस आत्मा के बाहर जाने हेतु | ग्यारहवां द्वार कपाल में ब्रह्म द्वारा होता है जहां से रूद्र रूप शरीर में इसे अमर करने हेतु शिव प्रवेश करते हैं | हृदय से निकल कर बाहर जाने तक के समय में शरीर बहुत पीड़ा महसूस करता है | आत्मा के बाहर निकलने का समय भी शरीर द्वारा संपन्न किए गए पाप कर्मों पर आधारित होता है | अच्छे बुरे कर्मों का फल मन जीवन में भोगा लेता है दुख और सुख के रूप में | उल्टे और सीधे कर्मों का फल शरीर भोगता है रोगी और निरोगी बनकर और पाप व पुण्य कर्मों का फल जीव आत्मा भोगती है जन्म ग्रहण कर इस सृष्टि चक्र में |
प्रत्यक्ष समय में मानव मृत्यु पश्चात शरीर के साथ दो क्रियाएं करता नजर आ रहा है दफनाना (गाड़ना) और जलाना | दफनाने की क्रिया में हमारी आत्मा हमारे शरीर द्वारा किए गए पाप कर्मों की सजा तो शरीर के द्वार से निकलते समय दे ही देती है परंतु मन को दिया गया संकल्प पूर्ण न हो पाने की वजह से उसी मन की रचना फिर से सृष्टि में हो ही जाती है | हमारी आत्मा का स्वरुप मन में मिल जाने से बिल्कुल धीमा हो जाता है | पाप कर्मों की पीड़ा अधिक भयानक होती है क्योंकि जिस द्वार से निकलेगी वहां अग्नि की पीड़ा शरीर प्राप्त करेगा | पंचभूत शरीर में प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय दशवायु तथा जीवात्मा ये ही ग्यारह रूद्र होते है जो पाप कर्मों की तरह मन को ले जाते हैं | रूद्र प्रलयंकारी होता है और शिव कल्याणकारी होता है |सृष्टि चक्र से मुक्ति तो मन और जीव आत्मा को तब मिलती है जब परमात्मा से लिया संकल्प प्राणी पूर्ण कर लेता है |

त्रि ग्रंथि में फसी आत्मा को त्रिबंध से मुक्त करना

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🍃तीन ग्रन्थि से आबद्ध आत्मा को जीवधारी, प्राणी या नर पशु माना गया है।
🍃वही भव बन्धनों में बँधा हुआ कोल्हू के बैल की तरह परायों के लिए श्रम करता रहा है।
🍃ग्रन्थियों को युक्ति पूर्वक खोलना पड़ता है। बन्धनों को बंधो और मुद्राओ आदि साधनों से काटना पड़ता है।
🍃योगाभ्यास के साधना प्रकरण में आत्मा को भव बन्धनों में जकड़ने वाली तीन ग्रन्थियों को खोलने के लिए तीन मुख्य बंध बताये गए है
🍃वे करने में सुगम किन्तु प्रतिफल की दृष्टि से आश्चर्यजनक हैं।
🍃ब्रह्म ग्रन्थि के उन्मूलन के लिए मूलबंध।
🍃विष्णु ग्रन्थि खोलने के लिए उड्डियानबंध
🍃रुद्र ग्रन्थि खोलने के लिए जालन्धर बन्ध की
🍃 …..साधनाओं का विधान है। इन्हें करते रहने से आत्मा की बन्धन मुक्ति प्रयोजन में सफलता सहायता मिलती है।
🍃मूलबंध:–के दो आधार हैं। एक मल मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एड़ी का हलका दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेंद्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना।
इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना।
🍃दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाये और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी एड़ी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाये। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हलका हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है।
🍃दूसरा साधन::–संकल्प शक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाये और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाये। गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियां भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही सांस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरम्भ में 10 बार करनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है।
🍃यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या वज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिए कि कामोत्तेजना का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसककर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है
🍃……..और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र तक पहुंच रहा है। यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है।
🍃उड्डियान बंध::–दूसरा बन्ध उड्डियान है। इसमें पेट को फुलाना और सिकोड़ना पड़ता है। सामान्य आसन में बैठकर मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठना चाहिए और पेट को सिकोड़ने फुलाने का क्रम चलाना चाहिए।
इस स्थिति में सांस खींचें और पेट को जितना फुला सकें, फुलायें फिर साँस छोड़ें और साथ ही पेट को जितना भीतर ले जा सकें ले जायें। ऐसा बार-बार करना चाहिए साँस खींचने और निकलने की क्रिया धीरे-धीरे करें ताकि पेट को पूरी तरह फैलने और पूरी तरह ऊपर खिंचने में समय लगे। जल्दी न हो।
🍃इस क्रिया के साथ भावना करनी चाहिए कि पेट के भीतरी अवयवों का व्यायाम हो रहा है उनकी सक्रियता बढ़ रही है।
🍃जालंधर बंध::–तीसरा जालन्धर बंध है। इसमें पालथी मारकर सीधा बैठा जाता है। रीढ़ सीधी रखनी पड़ती है। ठोड़ी को झुकाकर छाती से लगाने का प्रयत्न करना पड़ता है। ठोड़ी जितनी सीमा तक छाती से लगा सके उतने पर ही सन्तोष करना चाहिए। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। अन्यथा गरदन को झटका लगने और दर्द होने लगने जैसा जोखिम रहेगा।
इस क्रिया में भी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा कर देने का क्रम चलाया जाये। सांस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिए। इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है। इससे मस्तिष्क शोधन का ‘कपाल भाति’ जैसा लाभ होता है। बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दोनों ही जगते हैं। यही भावना मन में करनी चाहिए कि अहंकार छट रहा है और नम्रता भरी सज्जनता का विकास हो रहा है।
🍃”तीन ग्रन्थियों को बन्धन मुक्त करने में उपरोक्त तीन बन्धों का निर्धारण है।”
🍃 इन क्रियाओं को करते और समाप्त करते हुए मन ही मन संकल्प दुहराना चाहिए कि यह सारा अभ्यास भव बन्धन हेतु किया जा रहा है
🍃””भव बन्धनों से मुक्ति जीवित अवस्था में ही होती है। मुक्ति मरने के बाद मिलेगी ऐसा नहीं सोचना चाहिए।”” जन्म-मरण से छुटकारा पाने जैसी बात सोचना व्यर्थ है।
🍃आत्मकल्याण और लोक मंगल का अभ्यास करने के लिए कई जन्म लेने पड़ें तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।