‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्थान सर्वग्राही हो जाता है।‘’
यह एक पुरानी से पुरानी विधि है और इसका प्रयोग भी बहुत हुआ है। यह सरलतम विधियों में एक है।
सिर के सभी द्वारों को, आँख, कान, नाक, मुंह, सबको बंद कर दो। जब सिर के सब द्वार दरवाजे बंद हो जाते है तो तुम्हारी चेतना तो सतत बहार बह रही है। एकाएक रूक जाती है। ठहर जाती है। वह अब बाहर नहीं जा सकती।
सिर के सभी द्वारों को, आँख, कान, नाक, मुंह, सबको बंद कर दो। जब सिर के सब द्वार दरवाजे बंद हो जाते है तो तुम्हारी चेतना तो सतत बहार बह रही है। एकाएक रूक जाती है। ठहर जाती है। वह अब बाहर नहीं जा सकती।
तुमने ख्याल नहीं किया कि अगर तुम क्षण भर के लिए श्वास लेना बंद कर दो तो तुम्हारा मन भी ठहर जाता है। क्यों? क्योंकि श्वास के साथ मन चलता है। वह मन का एक संस्कार है।
तुम्हें समझना चाहिए कि यह संस्कार क्या है। तभी इस सूत्र को समझना आसान होगा।
रूस के अति प्रसिद्ध मानस्विद पावलफ ने संस्कारजनित प्रतिक्रिया को, कंडीशंड रिफ्लेक्स को दुनियाभर में आम बोलचाल में शामिल करा दिया है। जो व्यक्ति भी मनोविज्ञान से जरा भी परिचित है, इस शब्द को जानता है। विचार की दो श्रृंखलाएं कोई भी दो श्रृंखलाएं इस तरह एक दूसरे से जुड़ सी जाती है। कि अगर तुम उनमें से एक को चलाओ तो दूसरी अपने आप शुरू हो जाती है।
पावलफ ने एक कुत्ते पर प्रयोग किया। उसने देखा कि तुम अगर कुत्ते के सामने खाना रख दो वक उसकी जीभ से लार बहने लगती है। जीभ बहार निकल आती है। और वह भोजन के लिए तैयार हो जाता है। कुत्ता जब भोजन देखता है या उसकी कल्पना करता है तो लार बहने लगती है। लेकिन
पावलफ ने इस प्रक्रिया के साथ दूसरी बात जोड़ दी। जब भी भोजन रखा जाए और कुत्ते की लार टपकने लगे। वह दूसरी चीज करता; उदाहरण के लिए, वह एक घंटी बजाता और कुत्ता उस घंटी को सुनता।पंद्रह दिन तक जब भी भोजन रखा जाता, घंटी भी बजती। और तब सोलहवें दिन कुत्ते के सामने भोजन नहीं रखा गया, केवल घंटी बजाईं गई। लेकिन तब भी कुत्ते के मुहँ से लार बहने लगी। और जीभ बाहर आ गई, मानो भोजन सामने रखा हो।वहां भोजन नहीं था, सिर्फ घंटी थी। अब घंटी बजने और लार टपकने के बीच कोई स्वाभाविक संबंध नहीं था। लार का स्वाभाविक संबंध भोजन के साथ है। लेकिन अब घंटी का रोज-रोज बजना लार के साथ जुड़ गया था, संबंधित हो गया था। और इसलिए मात्र घंटी के बजने पर भी लार बहने लगी।पावलफ के अनुसार—और पावलफ सही है—हमारा समूचा जीवन एक कंडीशंड प्रोसेस है।
पावलफ ने एक कुत्ते पर प्रयोग किया। उसने देखा कि तुम अगर कुत्ते के सामने खाना रख दो वक उसकी जीभ से लार बहने लगती है। जीभ बहार निकल आती है। और वह भोजन के लिए तैयार हो जाता है। कुत्ता जब भोजन देखता है या उसकी कल्पना करता है तो लार बहने लगती है। लेकिन
पावलफ ने इस प्रक्रिया के साथ दूसरी बात जोड़ दी। जब भी भोजन रखा जाए और कुत्ते की लार टपकने लगे। वह दूसरी चीज करता; उदाहरण के लिए, वह एक घंटी बजाता और कुत्ता उस घंटी को सुनता।पंद्रह दिन तक जब भी भोजन रखा जाता, घंटी भी बजती। और तब सोलहवें दिन कुत्ते के सामने भोजन नहीं रखा गया, केवल घंटी बजाईं गई। लेकिन तब भी कुत्ते के मुहँ से लार बहने लगी। और जीभ बाहर आ गई, मानो भोजन सामने रखा हो।वहां भोजन नहीं था, सिर्फ घंटी थी। अब घंटी बजने और लार टपकने के बीच कोई स्वाभाविक संबंध नहीं था। लार का स्वाभाविक संबंध भोजन के साथ है। लेकिन अब घंटी का रोज-रोज बजना लार के साथ जुड़ गया था, संबंधित हो गया था। और इसलिए मात्र घंटी के बजने पर भी लार बहने लगी।पावलफ के अनुसार—और पावलफ सही है—हमारा समूचा जीवन एक कंडीशंड प्रोसेस है।
मन संस्कार है। इसलिए अगर तुम उस संस्कार के भीतर कोई एक चीज बंद कर दो तो उससे जूड़ी और सारी चीजें भी बंद हो जाती है।
उदाहरण के लिए विचार और श्वास है। विचारणा सदा ही श्वास के साथ चलती है। तुम बिना श्वास विचार नहीं कर सकते। तुम श्वास के प्रति सजग नहीं रहते, लेकिन श्वास सतत चलती रहती है। दिन-रात चलती रहती है। और प्रत्येक विचार, विचार की प्रक्रिया ही श्वास की प्रक्रिया से जुड़ी है। इसलिए अगर तुम अचानक अपनी श्वास रोक लो तो विचार भी रूक जाएगा।वैसे ही अगर सिर के सातों छिद्र, उसके सातों द्वार बंद कर दिए जाएं तो तुम्हारी चेतना अचानक गति करना बंद कर देगी। तब चेतना भीतर थिर हो जाती है। और उसका यह भीतर थिर होना तुम्हारी आंखों के बीच के बीच स्थान बना देता है। वह स्थान ही त्रिनेत्र, तीसरी आँख कहलाती है।
अगर सिर के सभी द्वार बंद कर दिये जाये तो तुम बाहर गति नहीं कर सकते। क्योंकि तुम सदा इन्हीं द्वारों से बाहर जाते रहे हो। तब तुम भीतर थिर हो जाते हो। और वह थिर होना, एकाग्र इन दो आंखों, साधारण आंखों के बीच घटित होता है। चेतना इन दो आंखों के बीच के स्थान पर केंद्रित हो जाती है। उस स्थान को ही त्रिनेत्र कहते है।
यह स्थान सर्वग्राही सर्वव्यापक हो जाता है। यह सूत्र कहता है कि इस स्थान में सब सम्मिलित है सारा आस्तित्व समाया है। अगर तुम इस स्थान को अनुभव कर लो तो तुमने सब को अनुभव कर लिया।
यह स्थान सर्वग्राही सर्वव्यापक हो जाता है। यह सूत्र कहता है कि इस स्थान में सब सम्मिलित है सारा आस्तित्व समाया है। अगर तुम इस स्थान को अनुभव कर लो तो तुमने सब को अनुभव कर लिया।
एक बार तुम्हें इन दो आंखों के बीच के आकाश की प्रतीति हो गई तो तुमने पूरे अस्तित्व को जाने लिया, उसकी समग्रता को जान लिया, क्योंकि यह आंतरिक आकाश सर्वग्राही है, सर्वव्यापक है, कुछ भी उसके बाहर नहीं है।
उपनिषाद कहते है:
‘’एक को जानकर सब जान लिया जाता है।‘’
ये दो आंखें तो सीमित को ही देख सकती है; तीसरी आँख असीम को देखती है। ये दो आंखे तो पदार्थ को ही देख सकती है; तीसरी आँख अपदार्थ को, अध्यात्म को देखती है। इन दो आंखों से तुम कभी ऊर्जा की प्रतीति नहीं कर सकते , ऊर्जा को नहीं देख सकते, सिर्फ पदार्थ को देख सकते हो। लेकिन तीसरी आँख से स्वयं ऊर्जा देखी जाती है।द्वारों का बंद किया जाना केंद्रित होने का उपाय है। क्योंकि एक बार जब चेतना के प्रवाह का बाहर जाना रूक जाता है। वह अपने उदगम पर थिर हो जाती है। और चेतना का यह उदगम ही त्रिनेत्र है।
अगर तुम इस त्रिनेत्र पर केंद्रित हो जाओ तो बहुत चीजें घटित होती है। पहली चीज तो यह पता चलती है कि सारा संसार तुम्हारे भीतर है।स्वामी राम कहा करते थे कि सूर्य मेरे भीतर चलता है। तारे मेरे भीतर चलते है, चाँद मेरे भीतर उदित होता है; सारा ब्रह्मांड मेरे भीतर है। जब उन्होंने पहली बार यह कहा तो उनके शिष्यों कि वे पागल हो गए है। राम तीर्थ के भीतर सितारे कैसे हो सकते है।वे इसी त्रिनेत्र की बात कर रहे थे। इसी आंतरिक आकाश के संबंध में। जब पहली बार यह आंतरिक आकाश उपलब्ध होता है तो यही भाव होता है। जब तुम देखते हो कि सब कुछ तुम्हारे भी तर है तब तुम ब्रह्मांड ही हो जाते हो।
त्रिनेत्र तुम्हारे भौतिक शरीर का हिस्सा नहीं है। वह तुम्हारे भौतिक शरीर का अंग नहीं है। तुम्हारी आंखों के बीच का स्थान तुम्हारे शरी तक ही सीमित नहीं है। वह तो वह अनंत आकाश है जो तुम्हारे भीतर प्रवेश कर गया है। और एक बार यह आकाश जान लिया जाए तो तुम फिर वही व्यक्ति नहीं रहते। जिस क्षण तुमने इस अंतरस्थ आकाश को जान लिया उसी क्षण तुमने अमृत को जान लिया तब कोई मृत्यु नहीं है।जब तुम पहली बार इस आकाश को जानोंगे, तुम्हारा जीवन प्रामाणिक और प्रगाढ़ हो जाएगा; तब पहली बार तुम सच में जीवंत होओगे। तब किसी सुरक्षा की जरूरत नहीं रहेगी। अब कोई भय संभव नहीं है। अब तुम्हारी हत्या नहीं हो सकती। अब तुमसे कुछ भी छीना नहीं जा सकता।
अब सारा ब्रह्मांड तुम्हारा है, तुम ही ब्रह्मांड हो। जिन लोगों ने इस अंतरस्थ आकाश को जाना है उन्होंने ही
आनंदमग्न होकर उरदघोषणा की है: अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्मांड हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं……..।
‘’एक को जानकर सब जान लिया जाता है।‘’
ये दो आंखें तो सीमित को ही देख सकती है; तीसरी आँख असीम को देखती है। ये दो आंखे तो पदार्थ को ही देख सकती है; तीसरी आँख अपदार्थ को, अध्यात्म को देखती है। इन दो आंखों से तुम कभी ऊर्जा की प्रतीति नहीं कर सकते , ऊर्जा को नहीं देख सकते, सिर्फ पदार्थ को देख सकते हो। लेकिन तीसरी आँख से स्वयं ऊर्जा देखी जाती है।द्वारों का बंद किया जाना केंद्रित होने का उपाय है। क्योंकि एक बार जब चेतना के प्रवाह का बाहर जाना रूक जाता है। वह अपने उदगम पर थिर हो जाती है। और चेतना का यह उदगम ही त्रिनेत्र है।
अगर तुम इस त्रिनेत्र पर केंद्रित हो जाओ तो बहुत चीजें घटित होती है। पहली चीज तो यह पता चलती है कि सारा संसार तुम्हारे भीतर है।स्वामी राम कहा करते थे कि सूर्य मेरे भीतर चलता है। तारे मेरे भीतर चलते है, चाँद मेरे भीतर उदित होता है; सारा ब्रह्मांड मेरे भीतर है। जब उन्होंने पहली बार यह कहा तो उनके शिष्यों कि वे पागल हो गए है। राम तीर्थ के भीतर सितारे कैसे हो सकते है।वे इसी त्रिनेत्र की बात कर रहे थे। इसी आंतरिक आकाश के संबंध में। जब पहली बार यह आंतरिक आकाश उपलब्ध होता है तो यही भाव होता है। जब तुम देखते हो कि सब कुछ तुम्हारे भी तर है तब तुम ब्रह्मांड ही हो जाते हो।
त्रिनेत्र तुम्हारे भौतिक शरीर का हिस्सा नहीं है। वह तुम्हारे भौतिक शरीर का अंग नहीं है। तुम्हारी आंखों के बीच का स्थान तुम्हारे शरी तक ही सीमित नहीं है। वह तो वह अनंत आकाश है जो तुम्हारे भीतर प्रवेश कर गया है। और एक बार यह आकाश जान लिया जाए तो तुम फिर वही व्यक्ति नहीं रहते। जिस क्षण तुमने इस अंतरस्थ आकाश को जान लिया उसी क्षण तुमने अमृत को जान लिया तब कोई मृत्यु नहीं है।जब तुम पहली बार इस आकाश को जानोंगे, तुम्हारा जीवन प्रामाणिक और प्रगाढ़ हो जाएगा; तब पहली बार तुम सच में जीवंत होओगे। तब किसी सुरक्षा की जरूरत नहीं रहेगी। अब कोई भय संभव नहीं है। अब तुम्हारी हत्या नहीं हो सकती। अब तुमसे कुछ भी छीना नहीं जा सकता।
अब सारा ब्रह्मांड तुम्हारा है, तुम ही ब्रह्मांड हो। जिन लोगों ने इस अंतरस्थ आकाश को जाना है उन्होंने ही
आनंदमग्न होकर उरदघोषणा की है: अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्मांड हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं……..।
सूफी संत मंसूर को इसी तीसरी आँख के अनुभव के कारण कत्ल कर दिया गया। जब उसने पहली बार इस आंतरिक आकाश को जाना, वह चिल्लाकर कहने लगा:
अनलहक़, मैं ही परमात्मा हूं,
भारत में वह पूजा जाता। क्योंकि भारत ने ऐसे अनेक लोग देखे है जिन्हें इस तीसरी आँख आंतरिक आकाश का बोध हुआ। लेकिन मुसलमानों के देश में यह बात कठिन हो गई। और मंसूर का यह वक्तव्य कि मैं परमात्मा हूं, अनलहक़, अहं ब्रह्मास्मि, धर्मविरोधी मालूम हुआ। क्योंकि
मुसलमान यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्य और परमात्मा एक है।
अनलहक़, मैं ही परमात्मा हूं,
भारत में वह पूजा जाता। क्योंकि भारत ने ऐसे अनेक लोग देखे है जिन्हें इस तीसरी आँख आंतरिक आकाश का बोध हुआ। लेकिन मुसलमानों के देश में यह बात कठिन हो गई। और मंसूर का यह वक्तव्य कि मैं परमात्मा हूं, अनलहक़, अहं ब्रह्मास्मि, धर्मविरोधी मालूम हुआ। क्योंकि
मुसलमान यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्य और परमात्मा एक है।
मनुष्य–मनुष्य है। मनुष्य सृष्टि है, और परमात्मा सृष्टा। सृष्टि स्त्रष्टा कैसे हो सकता है।
इस लिए मंसूर का यह वक्तव्य नहीं समझा जा सका। और उसकी हत्या कर दी गई।
लेकिन जब उसको कत्ल किया जा रहा था तब वह हंस रहा था। तो किसी ने पूछा कि हंस क्यों रहे हो। मंसूर। कहते है कि मंसूर ने कहा मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम मुझे नहीं मार रहे हो। तुम मेरी हत्या नहीं कर सकते। तुम्हें मेरे शरीर से धोखा हुआ है। लेकिन मैं शरीर नहीं हूं। मैं इस ब्रह्मांड को बनाने वाला हूं; यह मेरी अंगुलि थी जिसने आरंभ में समूचे ब्रह्मांड को चलाया था।
भारत में मंसूर आसानी से समझा जाता, सदियों-सदियों से यह भाषा जानी पहचानी है। हम जानते हे कि एक घड़ी आती है जब यह आंतरिक आकाश जाना जाता है।
तब जानने वाला पागल हो जाता है। और यह ज्ञान इतना निश्चित है कि यदि तुम मंसूर की हत्या भी कर दो तो वह अपना वक्तव्य नहीं बदलेगा। क्योंकि हकीकत में, जहां तक उसका संबंध है,तुम उसकी हत्या नहीं कर सकते। अब वह पूर्ण हो गया है। उसे मिटाने का उपाय नहीं है।
मंसूर के बाद सूफी सीख गए कि चुप रहना बेहतर है। इसलिए मंसूर के बाद सूफी पंरम्परा में शिष्यों को सतत सिखाया गया कि जब भी तुम तीसरी आँख को उपल्बध करो चुप रहो, कुछ कहो मत। जब भी घटित हो, चुप्पी साध लो। कुछ भी मत कहो। या वे ही चीजें औपचारिक ढंग से कहे जाओ जो लोग मानते है।
इसलिए अब इस्लाम में दो परंपराएं है। एक सामान्य परंपरा है—बाहरी, लौकिक।
और दूसरी परंपरा असली इसलाम है, सूफीवाद जो गुह्म है।
लेकिन सूफी चुप रहते है। क्योंकि मंसूर के बाद उन्होंने सीख लिया कि उस भाषा में बोलना जो कि तीसरी आँख के खुलने पर प्रकट होती है। व्यर्थ की कठिनाई में पड़ना है, और उससे किसी को मदद भी नहीं होती।
इस लिए मंसूर का यह वक्तव्य नहीं समझा जा सका। और उसकी हत्या कर दी गई।
लेकिन जब उसको कत्ल किया जा रहा था तब वह हंस रहा था। तो किसी ने पूछा कि हंस क्यों रहे हो। मंसूर। कहते है कि मंसूर ने कहा मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम मुझे नहीं मार रहे हो। तुम मेरी हत्या नहीं कर सकते। तुम्हें मेरे शरीर से धोखा हुआ है। लेकिन मैं शरीर नहीं हूं। मैं इस ब्रह्मांड को बनाने वाला हूं; यह मेरी अंगुलि थी जिसने आरंभ में समूचे ब्रह्मांड को चलाया था।
भारत में मंसूर आसानी से समझा जाता, सदियों-सदियों से यह भाषा जानी पहचानी है। हम जानते हे कि एक घड़ी आती है जब यह आंतरिक आकाश जाना जाता है।
तब जानने वाला पागल हो जाता है। और यह ज्ञान इतना निश्चित है कि यदि तुम मंसूर की हत्या भी कर दो तो वह अपना वक्तव्य नहीं बदलेगा। क्योंकि हकीकत में, जहां तक उसका संबंध है,तुम उसकी हत्या नहीं कर सकते। अब वह पूर्ण हो गया है। उसे मिटाने का उपाय नहीं है।
मंसूर के बाद सूफी सीख गए कि चुप रहना बेहतर है। इसलिए मंसूर के बाद सूफी पंरम्परा में शिष्यों को सतत सिखाया गया कि जब भी तुम तीसरी आँख को उपल्बध करो चुप रहो, कुछ कहो मत। जब भी घटित हो, चुप्पी साध लो। कुछ भी मत कहो। या वे ही चीजें औपचारिक ढंग से कहे जाओ जो लोग मानते है।
इसलिए अब इस्लाम में दो परंपराएं है। एक सामान्य परंपरा है—बाहरी, लौकिक।
और दूसरी परंपरा असली इसलाम है, सूफीवाद जो गुह्म है।
लेकिन सूफी चुप रहते है। क्योंकि मंसूर के बाद उन्होंने सीख लिया कि उस भाषा में बोलना जो कि तीसरी आँख के खुलने पर प्रकट होती है। व्यर्थ की कठिनाई में पड़ना है, और उससे किसी को मदद भी नहीं होती।
यह सूत्र कहता है: ‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्थान सर्वग्राही, सर्वव्यापी हो जाता है।‘’तुम्हारा आंतरिक आकाश पूरा आकाश हो जाता है।
ॐ विधि ॐ
प्रत्येक विधि किसी मन-विशेष के लिए उपयोगी है। जिस विधि की अभी हम चर्चा कर रहे थे—
तीसरी विधि, सिर के द्वारों को बंद करने वाली विधि—उसका उपयोग अनेक लोग कर सकते है। वह बहुत सरल है और बहुत खतरनाक नहीं है। उसे तुम आसानी से काम में ला सकते हो।
यह भी जरूरी नहीं है कि द्वारों को हाथ से बंद करो; बंद करना भी जरूरी है। इसलिए कानों के लिए डाट और आंखों के लिए पट्टी से काम चल जाएगा
तीसरी विधि, सिर के द्वारों को बंद करने वाली विधि—उसका उपयोग अनेक लोग कर सकते है। वह बहुत सरल है और बहुत खतरनाक नहीं है। उसे तुम आसानी से काम में ला सकते हो।
यह भी जरूरी नहीं है कि द्वारों को हाथ से बंद करो; बंद करना भी जरूरी है। इसलिए कानों के लिए डाट और आंखों के लिए पट्टी से काम चल जाएगा
असली बात यह कि कुछ क्षणों के लिए ये कुछ सेंकेंड के लिए सिर के द्वारों को पूरी तरह से बंद कर लो।इसका प्रयोग करो, अभ्यास करो। अचानक करने से ही यह कारगर है, अचानक में ही राज छिपा है।
बिस्तर में पड़े-पड़े अचानक सभी द्वारों को कुछ सेकेंड के लिए बंद कर लो। और तब भीतर देखो क्या होता है।जब तुम्हारा दम घुटने लगे, क्योंकि श्वास भी बंद हो जाएगी, तब भी इसे जारी रखे और तब तक जारी रखो जब तक कि असह्य न हो जाये। और जब असह्य हो जाएगा, तब तुम द्वारों को ज्यादा देर बंद नहीं रख सकोगे, इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दो। तब आंतरिक शक्ति सभी द्वारों के खुद खोल देगी।
लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम बंद रखो। जब दम घुटने लगे, तब वह क्षण आता है, निर्णायक क्षण, क्योंकि घुटन पुराने एसोसिएशन तोड़ डालती है।
इसलिए कुछ और क्षण जारी रख सको तो अच्छा।यह काम कठिन होगा, मुश्किल होगा, और तुम्हें लगेगा कि मौत आ गई।
लेकिन डरों मत। तुम मर नहीं सकते। क्योंकि द्वारों को बंद भर करने से तुम नहीं मरोगे। लेकिन जब लगे कि में मर जाऊँगा, तब समझो कि वह क्षण आ गया।अगर तुम उस क्षण में धीरज से लगे रहे तो अचानक हर चीज प्रकाशित हो जाएगी। तब तुम उस आंतरिक आकाश को महसूस करोगे। जो कि फैलता ही जाता है, और जिसमें समग्र समाया हुआ है। तब द्वारों को खोल दो और तब इस प्रयोग को फिर-फिर करो। जब भी समय मिले, इसका प्रयोग में लाओ।
लेकिन इसका अभ्यास मत बनाओ। तुम श्वास को कुछ क्षण के लिए रोकने का अभ्यास कर सकते हो। लेकिन उससे कुछ लाभ नहीं होगा।
एक आकस्मिक, अचानक झटक की जरूरत है।
उस झटके में तुम्हारी चेतना के पुराने स्रोतों का प्रवाह बंद हो जाता है। और कोई नयी बात संभव हो जाती है।
बिस्तर में पड़े-पड़े अचानक सभी द्वारों को कुछ सेकेंड के लिए बंद कर लो। और तब भीतर देखो क्या होता है।जब तुम्हारा दम घुटने लगे, क्योंकि श्वास भी बंद हो जाएगी, तब भी इसे जारी रखे और तब तक जारी रखो जब तक कि असह्य न हो जाये। और जब असह्य हो जाएगा, तब तुम द्वारों को ज्यादा देर बंद नहीं रख सकोगे, इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दो। तब आंतरिक शक्ति सभी द्वारों के खुद खोल देगी।
लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम बंद रखो। जब दम घुटने लगे, तब वह क्षण आता है, निर्णायक क्षण, क्योंकि घुटन पुराने एसोसिएशन तोड़ डालती है।
इसलिए कुछ और क्षण जारी रख सको तो अच्छा।यह काम कठिन होगा, मुश्किल होगा, और तुम्हें लगेगा कि मौत आ गई।
लेकिन डरों मत। तुम मर नहीं सकते। क्योंकि द्वारों को बंद भर करने से तुम नहीं मरोगे। लेकिन जब लगे कि में मर जाऊँगा, तब समझो कि वह क्षण आ गया।अगर तुम उस क्षण में धीरज से लगे रहे तो अचानक हर चीज प्रकाशित हो जाएगी। तब तुम उस आंतरिक आकाश को महसूस करोगे। जो कि फैलता ही जाता है, और जिसमें समग्र समाया हुआ है। तब द्वारों को खोल दो और तब इस प्रयोग को फिर-फिर करो। जब भी समय मिले, इसका प्रयोग में लाओ।
लेकिन इसका अभ्यास मत बनाओ। तुम श्वास को कुछ क्षण के लिए रोकने का अभ्यास कर सकते हो। लेकिन उससे कुछ लाभ नहीं होगा।
एक आकस्मिक, अचानक झटक की जरूरत है।
उस झटके में तुम्हारी चेतना के पुराने स्रोतों का प्रवाह बंद हो जाता है। और कोई नयी बात संभव हो जाती है।
भारत में अभी भी सर्वत्र अनेक लोग इस विधि का अभ्यास करते है। लेकिन कठिनाई यह है कि वे अभ्यास करते है।
जब कि यह एक अचानक विधि हे। अगर तुम अभ्यास करो तो कुछ भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं होगा। अगर मैं तुम्हें अचानक इस कमरे से बाहर निकाल फेंकूंगा तो तुम्हारे विचार बंद हो जाएंगे।
लेकिन अगर हम रोज-रोज इसका अभ्यास करें तो कुछ नहीं होगा। तब वह एक यांत्रिक आदत बन जाएगी।इसलिए अभ्यास मत करो;
जब भी हो सके प्रयोग करो। तो धीरे-धीरे तुम्हें अचानक एक आंतरिक आकाश का बोध होगा। वह आंतरिक आकाश तुम्हारी चेतना में तभी प्रकट होता है जब तुम मृत्यु के कगार पर होते हो।
तब तुम्हें लगता है कि अंग में एक क्षण भी नहीं जीऊूंगा। अब मृत्यु निकट है; तभी वह सही क्षण आता है।
जब कि यह एक अचानक विधि हे। अगर तुम अभ्यास करो तो कुछ भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं होगा। अगर मैं तुम्हें अचानक इस कमरे से बाहर निकाल फेंकूंगा तो तुम्हारे विचार बंद हो जाएंगे।
लेकिन अगर हम रोज-रोज इसका अभ्यास करें तो कुछ नहीं होगा। तब वह एक यांत्रिक आदत बन जाएगी।इसलिए अभ्यास मत करो;
जब भी हो सके प्रयोग करो। तो धीरे-धीरे तुम्हें अचानक एक आंतरिक आकाश का बोध होगा। वह आंतरिक आकाश तुम्हारी चेतना में तभी प्रकट होता है जब तुम मृत्यु के कगार पर होते हो।
तब तुम्हें लगता है कि अंग में एक क्षण भी नहीं जीऊूंगा। अब मृत्यु निकट है; तभी वह सही क्षण आता है।
इसलिए लगे रहो, डरों मत।मृत्यु इतनी आसान नहीं है। कम से कम इस विधि को प्रयोग में लाते हुए कोई व्यक्ति अब तक मरा नहीं है। इसमे अंतर्निहित सुरक्षा के उपाय है, यही कारण है कि तुम नहीं मरोगे।
मृत्यु के पहले आदमी बेहोश हो जाता है। इसलिए होश में रहते हुए यह भाव आए कि मैं मर रहा हूं तो डरों मत। तुम अब भी होश में हो, इसलिए मरोगे नहीं।
और अगर तुम बेहोश हो गए तो तुम्हारी श्वास चलने लगेगी। तब तुम उसे रोक नहीं पाओगे।और
तुम कान के लिए डाट काम में ला सकते हो। आंखों के पट्टी बाँध सकते हो। लेकिन नाक और मुंह के लिए कोई डाट उपयोग नहीं करने है। क्योंकि तब वह संघातक हो सकता है।
कम से कम नाक को छोड़ रखना ठीक है। उसे हाथ से ही बंद करो। उस हालत में जब बेहोश होने लगोगे तो हाथ अपने आप ही ढीला हो जाएगा। और श्वास वापस आ जाएगी। तो इसमे अंतर्निहित सुरक्षा है।
यह विधि बहुतों के काम की है।
मृत्यु के पहले आदमी बेहोश हो जाता है। इसलिए होश में रहते हुए यह भाव आए कि मैं मर रहा हूं तो डरों मत। तुम अब भी होश में हो, इसलिए मरोगे नहीं।
और अगर तुम बेहोश हो गए तो तुम्हारी श्वास चलने लगेगी। तब तुम उसे रोक नहीं पाओगे।और
तुम कान के लिए डाट काम में ला सकते हो। आंखों के पट्टी बाँध सकते हो। लेकिन नाक और मुंह के लिए कोई डाट उपयोग नहीं करने है। क्योंकि तब वह संघातक हो सकता है।
कम से कम नाक को छोड़ रखना ठीक है। उसे हाथ से ही बंद करो। उस हालत में जब बेहोश होने लगोगे तो हाथ अपने आप ही ढीला हो जाएगा। और श्वास वापस आ जाएगी। तो इसमे अंतर्निहित सुरक्षा है।
यह विधि बहुतों के काम की है।
No comments :
Post a Comment