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Saturday 12 May 2018

त्रि ग्रंथि में फसी आत्मा को त्रिबंध से मुक्त करना

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🍃तीन ग्रन्थि से आबद्ध आत्मा को जीवधारी, प्राणी या नर पशु माना गया है।
🍃वही भव बन्धनों में बँधा हुआ कोल्हू के बैल की तरह परायों के लिए श्रम करता रहा है।
🍃ग्रन्थियों को युक्ति पूर्वक खोलना पड़ता है। बन्धनों को बंधो और मुद्राओ आदि साधनों से काटना पड़ता है।
🍃योगाभ्यास के साधना प्रकरण में आत्मा को भव बन्धनों में जकड़ने वाली तीन ग्रन्थियों को खोलने के लिए तीन मुख्य बंध बताये गए है
🍃वे करने में सुगम किन्तु प्रतिफल की दृष्टि से आश्चर्यजनक हैं।
🍃ब्रह्म ग्रन्थि के उन्मूलन के लिए मूलबंध।
🍃विष्णु ग्रन्थि खोलने के लिए उड्डियानबंध
🍃रुद्र ग्रन्थि खोलने के लिए जालन्धर बन्ध की
🍃 …..साधनाओं का विधान है। इन्हें करते रहने से आत्मा की बन्धन मुक्ति प्रयोजन में सफलता सहायता मिलती है।
🍃मूलबंध:–के दो आधार हैं। एक मल मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एड़ी का हलका दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेंद्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना।
इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना।
🍃दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाये और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी एड़ी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाये। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हलका हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है।
🍃दूसरा साधन::–संकल्प शक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाये और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाये। गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियां भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही सांस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरम्भ में 10 बार करनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है।
🍃यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या वज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिए कि कामोत्तेजना का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसककर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है
🍃……..और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र तक पहुंच रहा है। यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है।
🍃उड्डियान बंध::–दूसरा बन्ध उड्डियान है। इसमें पेट को फुलाना और सिकोड़ना पड़ता है। सामान्य आसन में बैठकर मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठना चाहिए और पेट को सिकोड़ने फुलाने का क्रम चलाना चाहिए।
इस स्थिति में सांस खींचें और पेट को जितना फुला सकें, फुलायें फिर साँस छोड़ें और साथ ही पेट को जितना भीतर ले जा सकें ले जायें। ऐसा बार-बार करना चाहिए साँस खींचने और निकलने की क्रिया धीरे-धीरे करें ताकि पेट को पूरी तरह फैलने और पूरी तरह ऊपर खिंचने में समय लगे। जल्दी न हो।
🍃इस क्रिया के साथ भावना करनी चाहिए कि पेट के भीतरी अवयवों का व्यायाम हो रहा है उनकी सक्रियता बढ़ रही है।
🍃जालंधर बंध::–तीसरा जालन्धर बंध है। इसमें पालथी मारकर सीधा बैठा जाता है। रीढ़ सीधी रखनी पड़ती है। ठोड़ी को झुकाकर छाती से लगाने का प्रयत्न करना पड़ता है। ठोड़ी जितनी सीमा तक छाती से लगा सके उतने पर ही सन्तोष करना चाहिए। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। अन्यथा गरदन को झटका लगने और दर्द होने लगने जैसा जोखिम रहेगा।
इस क्रिया में भी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा कर देने का क्रम चलाया जाये। सांस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिए। इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है। इससे मस्तिष्क शोधन का ‘कपाल भाति’ जैसा लाभ होता है। बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दोनों ही जगते हैं। यही भावना मन में करनी चाहिए कि अहंकार छट रहा है और नम्रता भरी सज्जनता का विकास हो रहा है।
🍃”तीन ग्रन्थियों को बन्धन मुक्त करने में उपरोक्त तीन बन्धों का निर्धारण है।”
🍃 इन क्रियाओं को करते और समाप्त करते हुए मन ही मन संकल्प दुहराना चाहिए कि यह सारा अभ्यास भव बन्धन हेतु किया जा रहा है
🍃””भव बन्धनों से मुक्ति जीवित अवस्था में ही होती है। मुक्ति मरने के बाद मिलेगी ऐसा नहीं सोचना चाहिए।”” जन्म-मरण से छुटकारा पाने जैसी बात सोचना व्यर्थ है।
🍃आत्मकल्याण और लोक मंगल का अभ्यास करने के लिए कई जन्म लेने पड़ें तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।

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