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Saturday 12 May 2018

मूलबंध कैसे लगाये

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योग में मूलत: पांच प्रकार के बंध है- 1.मूलबंध, 2.उड्डीयान बंध, 3.जालंधर बंध, 4.बंधत्रय और 5.महाबंध। यहां प्रस्तुत है मूलबंध के बारे में जानकारी। गुदाद्वार को सर्वथा बंद कर देने को मूलबंध कहा जाता है।
लाभ और प्रभाव- योग में मूलबंध के बहुत से फायदे बताए गए हैं। इस मुद्रा को करने से शरीर के अंदर जमा कब्ज का रोग समाप्त हो जाता है और भूख भी तेज हो जाती है। शरीर का भारीपन समाप्त होता है और सुस्ती मिटती है।
यौन रोग में लाभदायक : इस बंध के नियमित अभ्यास से यौन ग्रंथियां पुष्ट होकर यौन रोग में लाभ मिलता है। पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में ये मुद्रा बहुत ही लाभकारी मानी जाती है।
इसे करने की विधि- बाएं पांव की एड़ी से गुदाद्वार को दबाकर, फिर दाएं पांव को बाएं पांव की जांघ पर रखकर सिद्धासन में बैठें। इसके बाद गुदा को संकुचित करते हुए नीचे की वायु को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें। सिद्धासन में एड़ी के द्वारा ही यह काम लिया जाता है।
सिद्धासन में बैठे तब दोनों घुटने जमीन को छूते हुए होने चाहिए तथा हथेलियां उन घुटनों पर टिकी होनी चाहिए। फिर गहरी श्वास लेकर वायु को अंदर ही रोक लें। इसके बाद गुदाद्वार को पूरी तरह से सिकोड़ लें। अब श्वास को रोककर रखने के साथ आरामदायक समयावधि तक बंध को बनाए रखें। इस अवस्था में जालंधर बंध भी लगाकर रखें फिर मूलाधार का संकुचन छोड़कर जालंधर बंध को धीरे से खोल दें और धीरे से श्वास को बाहर छोड़ दें। इस अभ्यास को 4 से 5 बार करें।
गुदासंकुचन क्रिया : गुदा को सुं‍कुचित करना और फिर छोड़ देना। इस तरह 15-20 बार करने से गुदा संबंधी समस्त रोग समाप्त हो जाते हैं। इस क्रिया को करने से बवासीर रोग भी समाप्त हो जाता है। मूलबंध के साथ इसका नियमित अभ्यास से उम्र भी बढ़ती है।
निर्देश- इस मूलबंध का अभ्यास किसी जानकार योगाचार्य के निर्देशन में ही करना चाहिए।
बंध मुद्राएँ शरीर की कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं जिनके द्वारा कुंडलिनी सफलतापूर्वक जाग्रत की जा सकती है। घेरंड संहिता में २५ मुद्राओं एवं महत्वपूर्ण हैं:
(१) मूलबंध, (२) जालंधरबंध, (३) उड्डीयानबंध, (४) महामुद्रा, (५) महाबंध, (६) महावेध (७) योगमुद्रा, (८) विपरीतकरणीमुद्रा, (९) खेचरीमुद्रा, (१०) वज्रिणीमुद्रा, (११) शक्तिचालिनीमुद्रा, (१२) योनिमुद्रा।
उपर्युक्त अनेक क्रियाओं का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। किसी किसी अभ्यास में दो या तीन बंधों और मुद्राओं को सम्मिलित करना पड़ता है। यौगिक क्रियाओं का जब नित्य विधिपूर्वक अभ्यास किया जाता है निश्चय ही उनका इच्छित फल मिलता है। मुद्राओं एवं बंधों के प्रयोग करने से मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, बवासीर, खाँसी, दमा, तिल्ली का बढ़ना, योनिरोग, कोढ़ एवं अनेक असाध्य रोग अच्छे हो जाते हैं। ये ब्रहृाचर्य के लिये प्रभावशाली क्रियाएँ हैं। ये आध्यात्मिक उन्नति के लिये अनिवार्य हैं।
घेरंड संहिता में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पार्ष्णिाना वाम पादस्य योनिमाकुचयेत्तत:।
नाभिग्रंथि मेरूदंडे संपीड्य यत्नत: सुधी:।।
मेद्रं दक्षिणामुल्मे तु दृढ़बंध समाचरेत्‌।
जरा विनाशिनी मुद्रा मूलबंधो निगद्यते।।’
गुहृाप्रदेश को बाईं एड़ी संकुचित करके यत्नपूर्वक नाभिग्रंथि को मेरूदंड में दृढ़ता से संयुक्त करे। पुन: नाभि को भीतर खींचकर पीठ से लगाकर फिर उपस्थ को दाहिनी एड़ी से दृढ़ भाव से संबंद्ध करे। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह मुद्रा बुढ़ापे को नष्ट करती है। घेरंड संहिता में मूलबंध का फल इस प्रकार दिया हुआ है: जो मनुष्य संसार रूपी समुद्र को पार करना चाहते हैं उन्हें छिपकर इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से निश्चय ही महत्‌ सिद्धि होती है। अत: साधक आलस्य का परित्याग करके मौन होकर यत्न के साथ इसकी साधना करे।
मतांतर में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पादमूलेन संपीड्य गुदमार्ग सुमंत्रितं।
बलादपानमाकृष्य क्रमादूर्द्ध समम्येसेत्‌।
कल्पितीय मूलबंधो जरामरण नाशन:।।’
एड़ी से मध्यप्रदेश का यत्नपूर्वक संपीडन करते हुए अपान वायु की बलपूर्वक धीरे-धीरे ऊपर की ओर खींचना चाहिए। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह बुढ़ापा एवं मृत्यु को नष्ट करता है। इसके द्वारा योनिमुद्रा सिद्ध होती है। इसके प्रभाव से साधक आकाश में उड़ सकते हैं।
मूलबंध के नित्य अभ्यास करने से अपान वायु पूर्णरूपेण नियंत्रित हो जाती है। उदर रोग से मुक्ति हो जाती है। वीर्य रोग हो ही नहीं सकता। मूलबंध का साधक निर्द्वद्व होकर वास्तविक स्वस्थ शरीर से आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करता है। आयु बढ़ जाती है। इसका साधक भौतिक कार्यो को भी उल्लासपूर्वक संपन्न करता है। सभी बंधों में मूलबंध सर्वोच्च एवं शरीर के लिये अत्यंत उपयोगी है।

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