पुतली तंत्र (क्रमांक २) श्वांसों का विज्ञान – शरीर के मर्म स्थान
किया-कराया; जादू-टोना; काला-जादू
पुतली तंत्र में दूसरा महत्वपूर्ण स्थान श्वांसों की गति का है. यहाँ यह जानना समीचीन होगा कि ये जानकारियां सभी मार्ग और विधि में आवश्यक होतीं हैं, जब हम अभिचार कर्म करते हैं.
श्वांसों की वाम एवं दक्षिण गति
हमारी दो नासिकाएँ हैं. हम दोनों से श्वांस लेते रहते हैं, मगर हमें ज्ञात नहीं होता कि सूर्य और चन्द्रमा के संतुलन और समीकरण से दोनों नासिकाओं का समीकरण बदलता रहता है. वस्तुत: हम एक समय में एक ही नासिका से श्वांस लेते हैं. दूसरी इतनी धीमी होती है कि उसे नगण्य ही कहा जा सकता है.
तंत्र की गणना के अनुसार, ३६० श्वांसों की एक नाडी होती है. ६० नाडी का एक दिन + रात होता है. फिर दूसरा दिन शुरू हो जाता है. यह क्रम चलता ही रहता है. इस प्रकार एक दिन रात में श्वासों की संख्या २१६०० होती है. श्वांसों में कभी बांयी नासिका तेज होती है, कभी दांयी. एक निष्क्रिय सी बनी रहती है. इसमें केवल ८० श्वांस प्रति दिन प्रात: सायं समभाव से दोनों नासिकाओं से चलतीं हैं. इसी लिए यह समय जप-ध्यान के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है.
श्वांसों का यह परिवर्तन नक्षत्र, राशि, भोगोलिक अक्षांश, आदि के कारण होता है. इसे प्रत्यक्ष अनुभूत किया जा सकता है और उन जड़ बुद्धियों को प्रमाण मिल सकता है, जो ज्योतिष को तीर तुक्का समझते हैं.
चन्द्र नाडी के समय बांयी नासिका और सूर्य नाडी के समय दांयी नासिका से श्वांस चलती है. दोनों पक्षों में सूर्य एवं चन्द्र की संक्रांति दस-दस बार होती है. इस सक्रांति काल में दोनों नासिका से स्वांस चलती है.
शुक्ल पक्ष की १, २, ३, ७, ८, ९, १३, १४, १५ का सूर्योदय काल चन्द्र नाडी में, शेष तिथि का सूर्य नाडी में होता है, जो समय के निश्चित अंतराल पर बदलता रहता है, कृष्ण पक्ष में उल्टा होता है. यह गणना सभी चर-अचर इकाइयों पर लागू है, उसकी अपनी उर्जा संरचना के अनुसार; क्योंकि श्वांस सभी लेते हैं, परमाणु तक (पृथ्वी नामक ग्रह के लिए)
शरीर के रहस्यमय मर्मस्थान
दो अंगूठे, दो घुटने, दो जंघाएँ, दायें बांये दो पीठ, दो उरू, एक सिवनी, एक गुदा, एक लिंग या योनि, दो पार्श्व, एक ह्रदय, दो स्तन, एक कंठ, दो कंधे, दो भृकुटी, दो कान, दो कनपट्टी, दो फाल, दो नासिकाएं, दो आँखें, दो कपाल – ये ३८ मर्म स्थान है.
ये मर्म स्थान सिद्ध होने पर अलौकिक शक्तियों को देने वाले हैं. परकाया प्रवेश की क्रिया में भी इनकी सिद्धि की आवश्यकता होती है; पर ये मारक स्थान भी हैं. इन पर अभिचार करके सभी प्रकार के रोगों को दूर किया जा सकता है, अभिषेक करके गुरु शक्ति दान किया जा सकता है; पर इन्ही पर समस्त भयानक अभिचार कर्म भी किया जाता है. इन क्रियाओं में साध्य की गणना होती है, अपनी नहीं. अपनी गणना सिद्धि कार्यों में की जाती है.
इनके ज्ञान के बिना कोई भी अभिचार कर्म ढकोसला है. आचार्य को इन तमाम रहस्यों का ज्ञान होना चाहिए, चाहे वह अनपढ़ ही क्यों न हो.
शरीर में उर्जा प्रवाह की गति
यह एक गुप्त जानकारी है. इसे डिटेल में बताना संभव नहीं है, पर कुछ अनुभूत करने वाली जानकारी आवश्यक है. अंगूठों का सम्बन्ध आंत से, तलवों का मष्तिष्क से, गुदा का नासिका से और सर के चाँद से, लिंग या योनी का रीढ़ की तीनों मुख्य नाड़ियों से, अनामिकाओं का ह्रदय से, माध्यम का रीढ़ और मूलाधार से, तर्जनी का नासिका से, कनिष्ठिका का कंठ से होता है.
ये सभी जानकारियां न केवल अभिचार कर्म में, बल्कि तंत्र न्यास, तन्त्रभिशेक, गुरु दीक्षा, सभी प्रकार की साधनाओं, ध्यानयोग आदि के प्रैक्टिकल में होनी जरूरी हैं, वर्ना सभी ऊपरी रह जायेंगे
Ruchi Sehgal
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