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Thursday 17 May 2018

गुप्त-सप्तशती

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गुप्त-सप्तशती

सात सौ मन्त्रों की 'श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह 'गुप्त-सप्तशती' प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है। इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में 'कुञ्जिका-स्तोत्र', उसके बाद 'गुप्त-सप्तशती', तदन्तर 'स्तवन' का पाठ करे।







कुञ्जिका-स्तोत्र
।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।

श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्।
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्॥ 4॥




अथ मंत्र
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा


॥ इति मंत्रः॥
इस 'कुञ्जिका-मन्त्र' का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार 'स्तव-पाठ' के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर 'कुञ्जिका स्तोत्र' का पाठ करे।
।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।।
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि।
जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥
।।मन्त्र।।
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।।
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये।
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।।
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।






गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे



Ruchi Sehgal

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