Friday, 1 September 2017
गोघृत का चिकित्सा में उपयोग
आयुर्वेद के मतानुसार देशी गाय का घी अमृत के समान स्वास्थ्य-कारक, रसायन, अग्निप्रदीपक, शक्ति, बल, वृध्दि, कांति, लावण्य, तेज, आयुष्यवर्ध्दक है। यह स्निग्ध, सुगंधित, रुचिकर, मेधा एवं स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाला, शुक्रवर्ध्दक, विषनाशक, त्रिदोष नाशक, श्रम निवारक और स्वर को मधुरता प्रदान करता है। गाय का घी हमेशा दूध को जमाकर, दही बनाकर उसे मथकर मक्खन निकालना चाहिए और उसे गरम करके घी बनाना चाहिए। क्रीम से बनाया हुआ घी अपेक्षाकृत कम उपयोगी होता है। गाय के घी से माइग्रेन, रक्तविकार, पाण्डु, कामला, उदावर्त, फोड़े-फुंसी, जोड़ों के दर्द, चोट, सूजन, सफेद दाग एवं कुष्ट रोग की चिकित्सा होती है। अनेक आयुर्वेदिक शास्त्रीय योगों में गाय के घी का उपयोग किया जाता है। कई आयुर्वेदिक फार्मेसियां घृत बनाकर बेचती भी हैं। जैसे अर्जुन घृत-हृदय रोग, महापंचागव्य घृत-मिर्गी, अनिद्रा, स्मृति क्षीण आदि, मृत्युश्चश्रेदी घृत-सांप, विषैले कीट एवं चूहों का विष नाशक, फल घृत-वंध्या दोष नाशक, महागौर्याद्य घृत-नासूर, जख्म एवं घाव, पंचकोलादि घृत या षज्ञपटल घृत-गुल्म, ज्वर, उगर रोग, ग्रहणी, मंदाग्नि, श्वास, कांस, शोथ एवं ऊर्ध्व वायु नाशक। चर्म रोग एवं फोड़ों पर लगाने के लिये गाय के घी को बार-बार पानी में धोकर प्रयोग करना चाहिए। पानी से धोया हुआ घी खाने में प्रयोग करना चाहिए। ज्वर, हैजा, अरुचि, मंदाग्नि आदि रोगों में घी का उपयोग नहीं करना चाहिए।
पुराना घृत : गाय का घी जितना पुराना होता जाता है, उतना ही गुणवर्ध्दक होता जाता है। पुराना घी तीक्ष्ण, खट्टा, तीखा, उष्ण, श्रवण शक्ति को बढ़ाने वाला घाव को मिटाने वाला, योनि रोग, मस्तक रोग, नेत्र रोग, कर्ण रोग, मूच्छा, ज्वर, श्वांस, खांसी, संग्रहणी, उन्माद, कृमि, विष आदि दोषों को नष्ट करता है। दर वर्ष पुराने घी को कोंच, ग्यारह वर्ष पुराने घी को महाघृत कहते हैं।
गो घृत के प्रयोग : यज्ञ में देशी गाय के घी की आहुतियां देने से पर्यावरण शुध्द होता है। गाय के घी में चावल मिलाकर यज्ञ में आहुतियां देने से इथिलीन आक्साइड और फाममोल्डिहाइड नामक यौगिक गैस के रूप में उत्पन्न होते हैं। इससे प्राण वायु शुध्द होती है। ये दोनों यौगिक जीवाणरोधक होते हैं। इनका प्रयोग आपरेशन थियेटर को कीटाणु रहित बनाने में आज भी किया जाता है। प्रातः सूर्योदय के समय एवं सायंकाल सूर्यास्त के समय गाय का घी और चावल मिलाकर दो-दो आहूतियां निम्नलिखित मंत्र से देने पर आसपास का वातावरण कीटाणुरहित हो जाता है। अग्नि में घी और चावल की आहुतियां निम्नलिखित मंत्र बोलकर देनी चाहिए-
सूर्योदय के समय : प्रजापतये स्वाहा।
प्रजापतये इदं न मम।
सूर्याय स्वाहा, सूर्याय इदं न मम।
सूर्यास्त के समय : प्रजापतये स्वाहा।
प्रजापतये इदं न मम।
अग्नये स्वाहा, अग्नये इदं न मम।
गाय क घी से आहुतियां देने पर यह देखा गया है कि जितनी दूर तक यज्ञ के धुएं का प्रभाव फैलता है, उतनी ही दूर तक वायुमंडल में किसी प्रकार के कीटाणु नहीं रहते। वह क्षेत्र पूरी तरह से कीटाणुओं से मुक्त हो जाता है। कृत्रिम वर्षा कराने के लिए वैज्ञानिक, प्रोपलीन आक्साइड गैस का प्रयोग करते हैं। गाय के घी से आहुति देने पर यह गैस प्राप्त होती है। प्राचीन काल में भू-जल का उपयोग कृषि में सिंचाई के लिए नहीं किया जाता था। यज्ञ होते रहने से समय-समय पर वर्षा होती रहती थी।
गो घृत का औषधीय उपयोग : स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए प्रतिदिन रात्रि को सोते समय गो-दो बूंद देशी गाय का गुनगुना घी दोनों नाक के छेदों में डालें। यह घी रात भर मस्तिष्क को प्राणवायु पहुंचाता रहता है और विद्युत तरंगों से मस्तिष्क को चार्ज करता रहता है। इससे मस्तिष्क की शक्ति बहुत बढ़ जाती है। यदि यह क्रिया प्रातः, अपराह्न और रात को सोते समध कई माह तक की जाती रहे तो श्वास के प्रवाह में आने वाली बाधाएं दूर हो जाती हैं और अनेक पुराने रोग ठीक हो जाते हैं। शुष्कता, सूजन, रक्तस्राव, सर्दी, सायनस संक्रमण, नासिका गिल्टी आदि ठीक हो जाते हैं और वायु मार्ग खुल जाने से श्वास की बाधा दूर हो जाती है। नाक में घी डालने के साथ-साथ दो बूंद घी नाभि में डालें और फिर अंगुली से दोनों ओर थोड़ी देर घुमाएं। गाय का घी अपने हाथ से पांव के तलवों पर मालिश करें, इससे बहुत अच्छी नींद आती है, शांति और आनन्द प्राप्त होता है।
Thursday, 31 August 2017
॥ यमुनाष्टकम् ॥
॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥
भावार्थ : आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)
भावार्थ : आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)
भावार्थ : आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)
भावार्थ : जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)
भावार्थ : आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)
भावार्थ : आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)
भावार्थ : आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)
भावार्थ : अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)
भावार्थ : आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)
भावार्थ : हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)