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Friday, 1 September 2017

।।เคถ्เคฐी เคฆुเคฐ्เค—ा เคšाเคฒीเคธा।।

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।।श्री दुर्गा चालीसा।।

मां दुर्गा के भक्तों के लिए प्रस्तुत हैं पावन श्री दुर्गा चालीसा। जिसके नित्य पाठ से माता दुर्गा आपके सारे दुखों को हरण करके अपनी असीम कृपा आप पर बरसाएंगी...। 

 

सुख शांति व समृद्धि के उद्देश्य तथा समाज में फैल रही सामाजिक बुराइयों को नष्ट करने में फलदायी है दुर्गा चालीसा। 

 

नमो नमो दुर्गे सुख करनी।

नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥

 

निरंकार है ज्योति तुम्हारी।

तिहूं लोक फैली उजियारी॥

 

शशि ललाट मुख महाविशाला।

नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥

 

रूप मातु को अधिक सुहावे।

दरश करत जन अति सुख पावे॥

 

तुम संसार शक्ति लै कीना।

पालन हेतु अन्न धन दीना॥

 

अन्नपूर्णा हुई जग पाला।

तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥

 

प्रलयकाल सब नाशन हारी।

तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥

 

शिव योगी तुम्हरे गुण गावें।

ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥

 

रूप सरस्वती को तुम धारा।

दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥

 

धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।

परगट भई फाड़कर खम्बा॥

 

रक्षा करि प्रह्लाद बचायो।

हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥

 

लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।

श्री नारायण अंग समाहीं॥

 

क्षीरसिन्धु में करत विलासा।

दयासिन्धु दीजै मन आसा॥

 

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।

महिमा अमित न जात बखानी॥

 

मातंगी अरु धूमावति माता।

भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥

 

श्री भैरव तारा जग तारिणी।

छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥

 

केहरि वाहन सोह भवानी।

लांगुर वीर चलत अगवानी॥

 

कर में खप्पर खड्ग विराजै।

जाको देख काल डर भाजै॥

 

सोहै अस्त्र और त्रिशूला।

जाते उठत शत्रु हिय शूला॥

 

नगरकोट में तुम्हीं विराजत।

तिहुंलोक में डंका बाजत॥

 

शुंभ निशुंभ दानव तुम मारे।

रक्तबीज शंखन संहारे॥

 

महिषासुर नृप अति अभिमानी।

जेहि अघ भार मही अकुलानी॥

 

रूप कराल कालिका धारा।

सेन सहित तुम तिहि संहारा॥

 

परी गाढ़ संतन पर जब जब।

भई सहाय मातु तुम तब तब॥

 

अमरपुरी अरु बासव लोका।

तब महिमा सब रहें अशोका॥

 

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।

तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥

 

प्रेम भक्ति से जो यश गावें।

दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥

 

ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।

जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥

 

जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।

योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥

 

शंकर आचारज तप कीनो।

काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥

 

निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।

काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥

 

शक्ति रूप का मरम न पायो।

शक्ति गई तब मन पछितायो॥

 

शरणागत हुई कीर्ति बखानी।

जय जय जय जगदम्ब भवानी॥

 

भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।

दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥

 

मोको मातु कष्ट अति घेरो।

तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥

 

आशा तृष्णा निपट सतावें।

मोह मदादिक सब बिनशावें॥

 

शत्रु नाश कीजै महारानी।

सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥

 

करो कृपा हे मातु दयाला।

ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।

 

जब लगि जिऊं दया फल पाऊं ।

तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥

 

दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।

सब सुख भोग परमपद पावै॥

 

देवीदास शरण निज जानी।

करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥

 

॥ इति श्री दुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥

।।เคชाเคตเคจ เคถเคจि เคšाเคฒीเคธा।।

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।।पावन शनि चालीसा।।

|| चौपाई ||

जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥

 

चारि भुजा, तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छवि छाजै ॥

 

परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥

 

कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमके ॥

 

कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं आरिहिं संहारा ॥

 

पिंगल, कृष्णों, छाया, नन्दन । यम, कोणस्थ, रौद्र, दुख भंजन ॥

 

सौरी, मन्द, शनि, दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥

 

जा पर प्रभु प्रसन्न है जाहीं । रंकहुं राव करैंक्षण माहीं ॥

 

पर्वतहू तृण होई निहारत । तृण हू को पर्वत करि डारत ॥

 

राज मिलत बन रामहिं दीन्हो । कैकेइहुं की मति हरि लीन्हों ॥

 

बनहूं में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चतुराई ॥

 

लखनहिं शक्ति विकल करि डारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥

 

रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥

 

दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥

 

नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥

 

हार नौलाखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ॥

 

भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो ॥

 

विनय राग दीपक महं कीन्हों । तब प्रसन्न प्रभु है सुख दीन्हों ॥

 

हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरे डोम घर पानी ॥

 

तैसे नल परदशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ॥

 

श्री शंकरहि गहयो जब जाई । पार्वती को सती कराई ॥

 

तनिक विलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥

 

पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ॥

 

कौरव के भी गति मति मारयो । युद्घ महाभारत करि डारयो ॥

 

रवि कहं मुख महं धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥

 

शेष देव-लखि विनती लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ई ॥

 

वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्ज गर्दभ मृग स्वाना ॥

 

जम्बुक सिंह आदि नखधारी । सो फल जज्योतिष कहत पुकारी ॥

 

गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं ॥

 

गर्दभ हानि करै बहु काजा । गर्दभ सिद्घ कर राज समाजा ॥

 

जम्बुक बुद्घि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्रण संहारै ॥

 

जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥

 

तैसहि चारि चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चांजी अरु तामा ॥

 

लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावै ॥

 

समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सुख मंगल कारी ॥

 

जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥

 

अदभुत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ॥

 

जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥

 

पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥

 

कहत रामसुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥

 

 

॥ दोहा ॥

 

पाठ शनिश्चर देव को, की हों विमल तैयार । 

करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ॥

 

।। เคฎां เค—ाเคฏเคค्เคฐी เคšाเคฒीเคธा ।।

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।। मां गायत्री चालीसा ।।

ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा प्रभा जीवन ज्योति प्रचंड ॥

शांति कांति जागृत प्रगति रचना शक्ति अखंड ॥1॥

जगत जननी मंगल करनि गायत्री सुखधाम ।

प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम ॥ २॥

भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी ।

गायत्री नित कलिमल दहनी ॥॥

अक्षर चौबीस परम पुनीता ।

इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता ॥॥

शाश्वत सतोगुणी सत रूपा ।

सत्य सनातन सुधा अनूपा ॥॥

हंसारूढ श्वेतांबर धारी ।

स्वर्ण कांति शुचि गगन-बिहारी ॥॥

पुस्तक पुष्प कमंडलु माला ।

शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला ॥॥

ध्यान धरत पुलकित हित होई ।

सुख उपजत दुख दुर्मति खोई ॥॥

कामधेनु तुम सुर तरु छाया ।

निराकार की अद्भुत माया ॥॥

तुम्हरी शरण गहै जो कोई ।

तरै सकल संकट सों सोई ॥॥

सरस्वती लक्ष्मी तुम काली ।

दिपै तुम्हारी ज्योति निराली ॥॥

तुम्हरी महिमा पार न पावैं ।

जो शारद शत मुख गुन गावैं ॥॥

चार वेद की मात पुनीता ।

तुम ब्रह्माणी गौरी सीता ॥॥

महामंत्र जितने जग माहीं ।

कोउ गायत्री सम नाहीं ॥॥

सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै ।

आलस पाप अविद्या नासै ॥॥

सृष्टि बीज जग जननि भवानी ।

कालरात्रि वरदा कल्याणी ॥॥

ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते ।

तुम सों पावें सुरता तेते ॥॥

तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे ।

जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे ॥॥

महिमा अपरम्पार तुम्हारी ।

जय जय जय त्रिपदा भयहारी ॥॥

पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना ।

तुम सम अधिक न जगमें आना ॥॥

तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा ।

तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेसा ॥॥

जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई ।

पारस परसि कुधातु सुहाई ॥॥

तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई ।

माता तुम सब ठौर समाई ॥॥

ग्रह नक्षत्र ब्रह्मांड घनेरे ।

सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे ॥॥

सकल सृष्टि की प्राण विधाता ।

पालक पोषक नाशक त्राता ॥॥

मातेश्वरी दया व्रत धारी ।

तुम सन तरे पातकी भारी ॥॥

जापर कृपा तुम्हारी होई ।

तापर कृपा करें सब कोई ॥॥

मंद बुद्धि ते बुधि बल पावें ।

रोगी रोग रहित हो जावें ॥॥

दरिद्र मिटै कटै सब पीरा ।

नाशै दुख हरै भव भीरा ॥॥

गृह क्लेश चित चिंता भारी ।

नासै गायत्री भय हारी ॥॥

संतति हीन सुसंतति पावें ।

सुख संपति युत मोद मनावें ॥॥

भूत पिशाच सबै भय खावें ।

यम के दूत निकट नहिं आवें ॥॥

जो सधवा सुमिरें चित लाई ।

अछत सुहाग सदा सुखदाई ॥॥

घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी ।

विधवा रहें सत्य व्रत धारी ॥॥

जयति जयति जगदंब भवानी ।

तुम सम ओर दयालु न दानी ॥॥

जो सतगुरु सो दीक्षा पावे ।

सो साधन को सफल बनावे ॥॥

सुमिरन करे सुरूचि बडभागी ।

लहै मनोरथ गृही विरागी ॥॥

अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता ।

सब समर्थ गायत्री माता ॥॥

ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी ।

आरत अर्थी चिंतित भोगी ॥॥

जो जो शरण तुम्हारी आवें ।

सो सो मन वांछित फल पावें ॥॥

बल बुधि विद्या शील स्वभाउ ।

धन वैभव यश तेज उछाउ ॥॥

सकल बढें उपजें सुख नाना ।

जे यह पाठ करै धरि ध्याना ॥

 

यह चालीसा भक्ति युत पाठ करै जो कोई ।

तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय ॥