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Saturday, 12 May 2018

पुत्र प्राप्ति के सही उपाय

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पुत्र प्राप्ति हेतु गर्भाधान का तरीका
* दो हजार वर्ष पूर्व के प्रसिद्ध चिकित्सक एवं सर्जन सुश्रुत ने अपनी पुस्तक सुश्रुत संहिता में स्पष्ट लिखा है कि मासिक स्राव के बाद 4, 6, 8, 10, 12, 14 एवं 16वीं रात्रि के गर्भाधान से पुत्र तथा 5, 7, 9, 11, 13 एवं 15वीं रात्रि के गर्भाधान से कन्या जन्म लेती है।
* 2500 वर्ष पूर्व लिखित चरक संहिता में लिखा हुआ है कि भगवान अत्रिकुमार के कथनानुसार स्त्री में रज की सबलता से पुत्री तथा पुरुष में वीर्य की सबलता से पुत्र पैदा होता है।
* प्राचीन संस्कृत पुस्तक ‘सर्वोदय’ में लिखा है कि गर्भाधान के समय स्त्री का दाहिना श्वास चले तो पुत्री तथा बायां श्वास चले तो पुत्र होगा।
* यूनान के प्रसिद्ध चिकित्सक तथा महान दार्शनिक अरस्तु का कथन है कि पुरुष और स्त्री दोनों के दाहिने अंडकोष से लड़का तथा बाएं से लड़की का जन्म होता है।
* चन्द्रावती ऋषि का कथन है कि लड़का-लड़की का जन्म गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष के दायां-बायां श्वास क्रिया, पिंगला-तूड़ा नाड़ी, सूर्यस्वर तथा चन्द्रस्वर की स्थिति पर निर्भर करता है।
* कुछ विशिष्ट पंडितों तथा ज्योतिषियों का कहना है कि सूर्य के उत्तरायण रहने की स्थिति में गर्भ ठहरने पर पुत्र तथा दक्षिणायन रहने की स्थिति में गर्भ ठहरने पर पुत्री जन्म लेती है। उनका यह भी कहना है कि मंगलवार, गुरुवार तथा रविवार पुरुष दिन हैं। अतः उस दिन के गर्भाधान से पुत्र होने की संभावना बढ़ जाती है। सोमवार और शुक्रवार कन्या दिन हैं, जो पुत्री पैदा करने में सहायक होते हैं। बुध और शनिवार नपुंसक दिन हैं। अतः समझदार व्यक्ति को इन दिनों का ध्यान करके ही गर्भाधान करना चाहिए।
* जापान के सुविख्यात चिकित्सक डॉ. कताज का विश्वास है कि जो औरत गर्भ ठहरने के पहले तथा बाद कैल्शियमयुक्त भोज्य पदार्थ तथा औषधि का इस्तेमाल करती है, उसे अक्सर लड़का तथा जो मेग्निशियमयुक्त भोज्य पदार्थ जैसे मांस, मछली, अंडा आदि का इस्तेमाल करती है, उसे लड़की पैदा होती है।
विश्वविख्यात वैज्ञानिक प्रजनन एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. लेण्डरम बी. शैटल्स ने हजारों अमेरिकन दंपतियों पर प्रयोग कर प्रमाणित कर दिया है कि स्त्री में अंडा निकलने के समय से जितना करीब स्त्री को गर्भधारण कराया जाए, उतनी अधिक पुत्र होने की संभावना बनती है। उनका कहना है कि गर्भधारण के समय यदि स्त्री का योनि मार्ग क्षारीय तरल से युक्त रहेगा तो पुत्र तथा अम्लीय तरल से युक्त रहेगा तो पुत्री होने की संभावना बनती है।
पुत्र प्राप्ति हेतु गर्भाधान का तरीका
हमारे पुराने आयुर्वेद ग्रंथों में पुत्र-पुत्री प्राप्ति हेतु दिन-रात, शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष तथा माहवारी के दिन से सोलहवें दिन तक का महत्व बताया गया है। धर्म ग्रंथों में भी इस बारे में जानकारी मिलती है।
यदि आप पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं और वह भी गुणवान, तो हम आपकी सुविधा के लिए हम यहाँ माहवारी के बाद की विभिन्न रात्रियों की महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं।
* चौथी रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र अल्पायु और दरिद्र होता है।
* पाँचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़की पैदा करेगी।
* छठवीं रात्रि के गर्भ से मध्यम आयु वाला पुत्र जन्म लेगा।
* सातवीं रात्रि के गर्भ से पैदा होने वाली कन्या बांझ होगी।
* आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र ऐश्वर्यशाली होता है।
* नौवीं रात्रि के गर्भ से ऐश्वर्यशालिनी पुत्री पैदा होती है।
* दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर पुत्र का जन्म होता है।
* ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है।
* बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरुषोत्तम पुत्र जन्म लेता है।
* तेरहवीं रात्रि के गर्म से वर्णसंकर पुत्री जन्म लेती है।
* चौदहवीं रात्रि के गर्भ से उत्तम पुत्र का जन्म होता है।
* पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती पुत्री पैदा होती है।
* सोलहवीं रात्रि के गर्भ से सर्वगुण संपन्न, पुत्र पैदा होता है।
व्यास मुनि ने इन्हीं सूत्रों के आधार पर पर अम्बिका, अम्बालिका तथा दासी के नियोग (समागम) किया, जिससे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर का जन्म हुआ। महर्षि मनु तथा व्यास मुनि के उपरोक्त सूत्रों की पुष्टि स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘संस्कार विधि’ में स्पष्ट रूप से कर दी है। प्राचीनकाल के महान चिकित्सक वाग्भट तथा भावमिश्र ने महर्षि मनु के उपरोक्त कथन की पुष्टि
पूर्णरूप से की है।

वशीकरण टोटके

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रविवार के दिन पुष्प नक्षत्र में जब अमावस्या हो उस दिन अपना वीर्य अच्छी मिठाई में मिलाकर जिस स्त्री को खिला दिया जाय ,वही वश में हो जाता  है
करवीर पुष्प,गोघृत दोनों मिलकर जिस किसी स्त्री का नाम लेकर हवन किया जय और यह क्रम प्रतिदिन सात दिन लगातार १०८ बार हवन किया जय तो सात दिन के अन्दर वह स्त्री वष में हो जाती है
उल्लू पक्षी की रीढ़ की हड्डी ,केसर ,कस्तूरी और कुंकुम सबको एक साथ घिसकर ललाट पर तिलक लगाकर जिस भी स्त्री के सामने जाय  भी वशीभूत हो जायगा
पुष्प नक्षत्र में धोबी के पैर की धूल जिस किसी सुंदरी के सर पे डालोगे वही स्त्री आपके वश में हो जाएगी
शनिवार के पुष्प नक्षत्र में भोजपत्र पर लाल चन्दन से शत्रु का नाम लिखकर शहद में डूबा देना चाहिए यह जब तक वह शहद में डूबा रहेगा ,तब तक शत्रु वश में रहेगा
उल्लू पक्षी का सुखा विष्ठा पान में रखकर यदि शत्रु को खिला दिया जाये तो शत्रु शत्रुता छोड़कर वशीभूत हो जाता है
सहदेवी और अपामार्ग बूटी के रस को लोहे के पात्र में अच्छी तरह घोंटकर उसका तिलक लगाकर शत्रु के सामने जाने से शत्रु आत्म समर्पित करता है
ब्रह्म डंडी ,वच और कूट इस तीनो के चूर्ण को पान में रखकर जिसको खिला दिया जाय वह सदा के लिए वशीभूत हो जाता है

बीज रहस्य

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बीज रहस्य

हलो बीजानि चौक्तानि, स्वरा: शक्तय ईरिता:।’’
ककार से लेकर हकार पर्यंत व्यञ्जन बीजसंज्ञक हैं और आकरादि स्वर शक्तिरूप हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है।
सारस्वत बीज, मायाबीज, शुभनेश्वरी बीज, पृथ्वी बीज, अग्निबीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उक्त हल् और अंचों (स्वरों) के संयोग से हुई है। यों तो बीजाक्षरों का अर्थ बीज कोश एवं बीज व्याकरण द्वारा ही ज्ञात किया जाता है।
णमोकार मन्त्र का अचिन्त्य और अद्भुत प्रभाव है इस मन्त्र की साधना द्वारा सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। यह मंत्र आत्मिक शक्ति का विकास करता है। अत: समस्त बीजाक्षरों वाला यह मंत्र जिसमें मूल ध्वनिरूप बीजाक्षरों का संयोजन भी शक्ति के क्रमानुसार किया गया है।
मातृकाओं का महत्त्व :— विद्यानुवाद में मातृकाओं का महत्त्व स्वीकार करते हुए बताया है कि मातृकाएं शक्तिपुञ्ज हैं। शक्ति मातृकाओं से भिन्न नहीं है।
जो व्यक्ति मन्त्र—बीजो मेें निबद्धकर इन मातृकाओं का व्यवहार करता है, वह आत्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की शक्तियों का विकास कर लेता है। मातृकाएं बीजाक्षरों और पल्लवों के साथ मिलकर आकर्षण विकर्षणों को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाती हैं। मातृकाएं बीजों में निबद्ध हो कर चाञ्चल्य का सृजन भी करती हैं, जिससे किसी भी पदार्थ में टूट—फूट की क्रिया उत्पन्न होती है। यह क्रिया ही शक्ति का आधार स्रोत है और इसी से मन्त्र—जाप द्वारा चमत्कारी कार्य उत्पन्न किये जाते हैं।
वर्तमान विज्ञान भी यह बतलाता है कि बीजमंत्रों में निहित शक्ति ब्यूह हमारी इन्द्रियों को उत्तेजित कर देता है और यह उत्तेजना जलतरंग की अनुरणन ध्वनि के तुल्य क्रमश: मन्द, तीव्र, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर होती हुई कतिपय क्षणों तक रणन करती रहती है। इसी प्रकार बीजों का घर्षण की शक्ति—व्यूह का संचार करता है। इसी कारण आचार्यों ने कहा है—
न दुष्टवर्णप्रायश्चेन्मनत्र: सिद्धि प्रयच्छति।
इत्युक्तो वर्णयोगोऽत्र परेषां वण्र्यते मतम्।।
अर्थात् दुष्टवर्ण मन्त्र में प्रयुक्त होकर कभी भी सिद्धि प्राप्त नहीं करा सकते हैं। सिद्धि, साधन नक्षत्र, राशि और ग्रह परिशुद्ध बीज हैं, इन्हीं बीजों द्वारा चमत्कारपूर्ण भौतिक शक्तियां प्राप्त की जाती हैं।
मंत्र—बीजों के वर्णन में वश्य, आकर्षण और उच्चाटन मेंं ह्रूँ का प्रयोग, मारण मेंं फट् का प्रयोग,स्तम्भन, विद्वेषण और मोहन में नम: का प्रयोग एवं शक्ति और पौष्टिक के लिए ‘वष्ट्’ पल्लव का प्रयोग किया जाता है। मन्त्र के अंत में स्वाहा शब्द रहता है। यह शब्द पापनाशक, मंगलकारक तथा आत्मा की आन्तरिक शक्ति को उद्बुद्ध करने वाला बताया है। मंत्र के बीजाक्षरों को शक्तिशाली बनाने के लिये उसकी समस्त विधियों का निर्वाह करना अत्यावश्यक है। दिशा, आसन, वस्त्र, माला एवं अन्य उपकरणों का विचार कर मन्त्र सिद्धि करनी चाहिये। मातृकाओं द्वारा ही अग्नियन्त्र, जलयन्त्र नाभियन्त्र, अष्टकर्म यन्त्र, जलमण्डल, अग्निमण्डल, माहेन्द्रमण्डल, तीर्थज्र्रमंत्र, विजययंत्र, जययंत्र, हंसयंत्र, सू समयत्र, कुलिक यंत्र, महापद्य यंत्र, रक्षायन्त्र, महारक्षायन्त्र, स्तम्भनयन्त्र, विद्यायन्त्र, परविद्याछेदनयन्त्र, पिशाचदि मोचनयन्त्र, कामचाण्डालीयन्त्र, प्रभृति शताधिक यन्त्र और मण्डलों का निर्माण किया गया है। मातृकाएँ समस्त द्वादशाङ्ग वाणी का मूल हैं, मन्त्र शास्त्र और यन्त्रशास्त्र का पल्लवन इन्हीं के द्वारा होता है। अत: व्याकरण, साहित्य, मंत्र यन्त्र प्रभृति समस्त वाङ् मय का मूलाधार मातृकाएँ हैं। जिन यन्त्रों का ऊपर उल्लेख किया गया है वे सभी शक्ति कूट हैं और उसमें शक्तिव्यूह निहित हैं। यहाँ सामान्य जानकारी के लिये ध्वनियों की शक्ति पर प्रकाश डालना आवश्यक है।
अव्यय, व्यापक, आत्मा के एकत्व का सूचक, शुद्ध ज्ञानरूप, शक्तिद्योतक, प्रणव बीज का जनक। अव्यय, शक्ति और बुद्धि का परिचायक, सारस्वतबीज का जनक, मायाबीज के साथ कीर्ति, धन और आशा का पूरक गत्यर्थक, लक्ष्मी प्राप्ति का साधक, कार्य साधक, कठोर कर्मों का बाधक, वह्निबीज का जनक। अमृतबीज का मूल कार्य साधक, अल्पशक्तिद्योतक, स्तम्भक, मोहक जृम्भक। उच्चाटन बीजों का मूल अद्भुत शक्तिशाली। उच्चाटक और मोहक बीजों का मूल, विशेष शक्ति का परिचायक, कार्यध्वंस के लिये शक्तिदायक। ऋद्धिबीज, सिद्धिदायक शुभ कार्य सम्बन्धी बीजों का मूल कार्यसिद्धि का सूचक। सत्य का संचारक, वाणी का ध्वंसक, लक्ष्मी बीज की उत्पत्ति का कारण। पूर्ण गति सूचक, अरिष्ट निवारण बीजों का जनक पोषक और संवद्र्धक। उच्चस्वर का प्रयोग करने पर वशीकरण बीजों का जनक पोषक और संवद्र्धक, जलबीज की उत्पत्ति का कारक, सिद्धिप्रद कार्यों का उत्पादक बीज, शासन देवताओं का आह्वान कराने में सहायक, क्लिष्ट और कठोर कार्यों के लिए प्रयुक्त बीजों का मूल, ऋण विद्युत का उत्पादक।
ओ—अनुदात्त मेें मायाबीज का उत्पादक, उदात्त में कठोर कार्यों का उत्पादक बीज, कार्य साधक, रमणीय पदार्थों की प्राप्ति के लिये प्रयुक्त होने वाले बीजों में अग्रणी औ—मारण और उच्चाटन सम्बन्धी बीजों में प्रधान अनेक बीजों का मूल। अं—स्वतन्त्र शक्ति रहित कर्माभाव के लिये प्रयुक्त ध्यान मंत्रों में प्रमुख,शून्य या अभाव का सूचक, आकाश बीजों का जनक, अनेक मृदुल शक्तियों का उद्घाटक, लक्ष्मी बीजों का मूल। अ:—शक्ति बीजों में प्रधान, निरपेक्ष अवस्था में कार्य असाधक, सहयोगी का अपेक्षक। क—शक्ति बीज, प्रभावशाली, सुखोत्पादक, सन्तान प्राप्ति की कामना का पूरक काम बीज का जनक ख—आकाश बीज अभाव सिद्धि के लिये कल्पवृक्ष, उच्चाटन बीजों का जनक। ग—पृथक् करने वाले कार्यों का साधक प्रणव और माया बीज के साथ कार्य सहायक। घ—स्तम्भक कार्यों का साधक विघ्न विघातक, मारण और मोहक बीजों का जनक। ङ—शत्रु का विघ्वंसक, स्वर मातृका बीजों के सहयोगनुसार फलोत्पादक। च—अंगहीन खण्ड शक्ति द्योतक उच्चाटन बीज का जनक। छ—छाया सूचक, माया बीज का सहयोगी, बन्धन कारक। ज—नूतन कार्यों का साधक शक्ति का वद्र्धक, आधि व्याधि का शामक, आकर्षक बीजो का जनक। झ— रेफयुक्त होने पर कार्य साधक, आधि व्याधि विनाशक शक्ति का संचारक श्री बीजों का जनक। ञ— स्तम्भक और मोहक बीजों का जनक साधना का अवरोधक। ट— आग्नेय कार्यों का प्रसारक, विध्वंसक कार्यों का साधक। ठ— अशुभ सूचक बीजों का जनक। ड— शासन देवताओं की शक्ति का प्रस्फोटक, निकृष्ट कार्यों की सिद्धि के लिये अमोघ, अचेतन क्रिया साधक। ढ—मायाबीज व मारण बीजों में प्रधान, शक्ति का विरोधी। ण—शक्ति सूचक। त—आकर्षक शक्ति का आविष्कारक। थ—मंगल साधक, लक्ष्मी बीज का सहयोगी स्वर मातृकाओं के साथ मिलने पर मोहक। द—कर्मनाश के लिये प्रधन बीज, आत्मशक्ति का प्रस्फोटक वशीकरण बीजों का जनक। ध—श्रीं और क्लीं बीजों का सहायक सहयोगी के समान फलदाता, माया बीजो का जनक। न—मृदुत्तर कार्यों का साधक हितैषी। प—जन्म तत्त्व के प्राधान्य से युक्त समस्त कार्यों की सिद्धि के लिये। फ—विघ्न विधातक, कठोर कार्य साधक। ब—विघ्नों का निरोधक सिद्धि का सूचक। भ—साधक को मारण और उच्चाटन के लिये उपयोगी। म—लौकिक तथा पारलौकिक सिद्धियों का प्रदाता। य—शक्ति का साधक,मित्र प्राप्ति या अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिये उपयोगी,ध्यान का साधक। र—कार्य साधक, समस्त प्रधान बीजों का जनक। ल—लक्ष्मी प्राप्ति में सहायक श्रीं बीज का निकटतम सहयोगी और कल्याण सूचक। ब—सिद्धिदायक, रोगहर्ता, लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिये सहयोगापेक्षी, मंगलसाधक विपत्तियों का रोधक और स्तम्भक। श—निरर्थक सामान्यबीजों का जनक या हेतु उपेक्षा धर्मयुक्त शक्ति का पोषक। ष—आह्वान बीजों का जनक सापेक्षध्वनि ग्राहक सहयोग या संयोग द्वारा विलक्षण कार्य साधक आत्मोन् नति से शून्य रुद्रबीजों का जनक भयंकर और वीभत्स कार्यों के लिये प्रयुक्त होने पर कार्य साधक। स—सभी प्रकार के बीजों में प्रयोग योग्य शक्ति के लिये परम आवश्यक, पौष्टिक कार्यों के लिये परम उपयोगी। ह—शक्ति, पौष्टिक और माङ्गलिक कार्यों का उत्पादक, साधना के लिये उपयोगी, आकाश तत्त्व युक्त कर्मनाशक सभी प्रकार के बीजों का जनक। उपर्युक्त ध्वनियोें के विश्लेषण से स्पष्ट है कि कि मातृका मंत्र ध्वनियों के स्वर और व्यञ्जनों के संयोग से ही समस्त बीजक्षरों की उत्पत्ति हुई है। इन मातृका ध्वनियों की शक्ति ही मंत्र में आती है। णमोकार मंत्र से ही मातकाध्वनियां नि:सृत हैं। अत: समस्त मन्त्रशास्त्र इसी महामंत्र से प्रादुर्भूत हैं। बीजाक्षरों का संक्षिप्त कोष—— ऊँ—प्रणव, ध्रव, तैजस बीज है। ऐं—वाग् और तत्त्व बीज है। क्लीं—काम बीज है। हो—शासन बीज है। क्षि—पृथ्वी बीज है। प—अप् बीज है। स्वा—वायु बीज है। हा:—आकाश बीज है। ह्रीं—माया और त्रैलोक्य बीज है। क्रों—अंकुश और निरोध बीज है। आ—फास बीज है। फट्—विसर्जन और चलन बीज है। वषट्—दहन बीज है। वोषट्—आकर्षण और पूजा ग्रहण बीज है। संवौषट्—आकर्षण बीज है। ब्लूँ—द्रावण बीज है। ब्लैं—आकर्षण बीज है। ग्लौं—स्तम्भन बीज है। क्ष्वीं—विषापहार बीज है। द्रां द्रीं क्लीं ब्लूँ स:—ये पांच बाण बीज हैं। हूँ—द्वेष और विद्वेषण बीज है। स्वाहा—हवन और शक्ति बीज है। स्वधा—पौष्टिक बीज है। नम:—शोधन बीज है। श्रीं—लक्ष्मी बीज है। अर्हं—ज्ञान बीज है। क्ष: फट्—शस्त्र बीज है। य:—उच्चाटन और विसर्जन बीज है। जूँ—विद्वेषण बीज है। श्लीं—अमृत बीज है। क्षीं—सोम बीज है। हंव—विष दूर करने वाला बीज है। क्ष्म्ल्व्र्यूं— पिंड बीज है। क्ष—कूटाक्षर बीज है। क्षिप ऊँ स्वाहा—शत्रु बीज है। हा:—निरोध बीज है। ठ:—स्तम्भन बीज है। ब्लौं—विमल पिंड बीज है। ग्लैं—स्तम्भन बीज है। घे घे—वद्य बीज है। द्रां द्रीं—द्रावण संज्ञक है। ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौ ह्र:—शून्य रूप बीज हैं।
मंत्र की सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर है ध्यान के अस्थिर होने से भी मंत्र असफल हो जाता है। मन्त्र तभी सफल होता है, जब श्रद्धा भक्ति तथा संकल्प दृढ़ हो। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियां भरी रहती हैं। इन्हीं शक्तियों को मंत्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य में अकेली विचार शक्ति काम नहीं करती है। इसकी सहायता के लिये उत्कट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि—संचालन की भी आवश्यकता है। मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिये नैष्ठिक आचार की आवश्यकता है। मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिये नैष्ठिक आचार की आवश्यकता है। मंत्र निर्माण के लिए ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्र: ह्रा ह स: क्लीं द्रां द्रीं द्रँ द्र: श्रीं क्षीं क्ष्वीं र्हं क्ष्वीं र्हं अं फट् वषट् संवौषट घे घै य: ख ह् पं वं यं झं तं थं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है। साधारण व्यक्ति को ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु हैं ये सार्थक और इनमें ऐसी शक्ति अन्तर्निहित रहती है, जिसमें आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। अत: ये बीजाक्षर अन्त:करण और वृत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं, जिनसे आत्मिक शक्ति का विकास किया जा सकता है।
इन बीजाक्षरों की उत्पत्ति प्रधानत: णमोकार मंत्र से ही हुई हैं, क्योंकि मातृका ध्वनियां इसी मन्त्र से उद्भूत हैं।