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Tuesday, 6 November 2018

शिव तांडव स्त्रोत

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जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम्‌ ॥१॥
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विकराल सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें. ||१||

जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पर लहरा रही हैं, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे. ||२||

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?. ||३||
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रमकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो. ||४||

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें. ||५||

ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्‌।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें. ||६||

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो. ||७||

नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें. ||८||

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ. ||९||

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ. ||१०||

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवा


रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्त्रोत की महिमा

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मंत्र व स्तोत्र में बड़ी शक्ति होती है अपने आराध्य का ध्यान अपनी तरफ खीचने की | स्तोत्र का पाठ करना कृपा सागर में दुबकी लगाने जैसा ही है | प्रत्येक देवी देवताओं के वेदों व पुराणों में उल्लेखित अलग अलग स्त्रोत हैं |

हम यहा शिवजी की आराधना में बनाये गये शिव तांडव स्त्रोत की बात कर रहे है जो महाविद्वान लंकापति राक्षक राज रावण ने कुछ पलो में ही बना दिया था | यह स्त्रोत इतना चमत्कारी और प्रभावशाली है की इसके पाठ से मनुष्य अपने जीवन से दुखो को भगा कर सुखी जीवन प्राप्त कर सकता है | शिवतांडव स्तोत्र अद्वितीय काव्य रचना है जो इसे अन्य स्त्रोत से अलग दिखाती है |
रावण ने कब और क्यों किया था शिव तांडव स्रोत


शास्त्रों के अनुसार एक बार रावण ने अहंकार में शिव के वास कैलाश पर्वत को ही उठा लिया और उसे लंका ले जाना चाहा | यह बात शिव को क्रोधित करने लगी | उन्होंने अहंकारी रावण को सबक सिखाने के लिए अपने अंगूठे से कैलाश को दबा दिया | इस तरह रावण का हाथ इस पर्वत के निचे दब गया | लाख प्रयास के बाद भी वो कुछ नही कर सका | इसी वेदना में उसने भोले भंडारी की मंद मंद प्रशंसा करने के लिए 17 श्लोको से युक्त शिव तांडव स्त्रोत रच डाला | शिव तो है ही भोले उन्हें अपने भक्त का श्लोक बहूत ही प्यारा लगा और उन्होंने रावण को उस पर्वत से निकाल दिया और उन्हें आशीष दिया की यह तुम्हारा स्त्रोत अजर और अमर रहेगा और जो भी इसका पाठ करेगा उसे मेरी कृपा प्राप्त होगी |



शिवतांडव स्तोत्र द्वारा भगवान शिव की स्तुति से होने वाले लाभ निम्न है :-
1) शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को धन सम्पति जैसे भौतिक सुखो के साथ समाज में उत्कृष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है |

2) शनि काल है और शिव कालो के काल ( महाकाल ) है अत: शनि से पीड़ित लोगों को इसके पाठ से लाभ मिलता है |

3) नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान, समाधी आदि कलाओ में जुड़े लोगों को शिवतांडव स्तोत्र से अच्छा लाभ मिलता है

4) | इस स्तोत्र के नियमित पाठ से वाणी सिद्धि की भी प्राप्ति होती है |
5) आपके जीवन में किसी भी सिद्धि की महत्वकांक्षा हो तो इस स्तोत्र के जाप से आसानी से प्राप्त की जा सकती है |

6) कालसर्प से पीड़ित लोगों को यह स्त्रोत काफी मदद करता है |

7) शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है |


सोने की लंका का बनना और भस्म होना पार्वती की इच्छा

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माँ पार्वती के लिए बनी थी सोने की लंका :
हम सभी जानते है की सतयुग काल में रावण की एक सोने की लंका थी जिसे हनुमान जी ने अपनी पुंछ में आग लगाकर जला दिया था | पर क्या आप जानते है की यह लंका शिवजी के आदेश पर माँ पार्वती के लिए बनाई गयी थी ??

जाने इसके पीछे की कथा :
हम जानते है की मोह माया से बहूत दूर रहने वाले शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत पर निवास करते है | बहुत ही सादा जीवन और तपस्या में लीन रहने वाले भोलेनाथ को स्वर्ण से ज्यादा भस्म प्यारी है |
एक बार शिव शक्ति से मिलने भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी आये | पर कैलाश पर ठण्ड ज्यादा होने की वजह से लक्ष्मी जी उस ठण्ड से ठिठुरने लगी | उन्होंने पार्वती से व्यंग में कहा की आप खुद राजकुमारी होते हुए इस तरह का जीवन कैसे व्यतीत कर सकती है | जाते जाते उन्होंने पार्वती जी और शिवजी को बैकुण्ठ आने का न्योता भी दिया |

कुछ दिनों बाद आमंत्रण पर शिवजी पार्वती के साथ बैकुण्ठ धाम पहुँचे | पार्वती जी उनके वैभव को देखकर चकित हो गयी | अब उनकी लालसा बढ़ गयी की उनका भी एक वैभवशाली महल हो | कैलाश पहुँचने पर माँ पार्वती शिवजी से हठ करने लगी की उनके लिए भी एक भव्य महल का निर्माण कराया जाये |

तब शिवजी ने विश्वकर्मा को एक भव्य स्वर्ण महल बनाने का कार्य दिया | विश्वकर्मा ने आदेश अनुसार लंका का स्वर्ण महल बनाया जो उस समय सबसे भव्य था | पार्वती के निवेदन पर सभी देवी देवताओ और महान ऋषियों को उस जगह आमंत्रित किया गया |




विश्रवा नामक महर्षि ने उस नगर की वास्तुप्रतिष्ठा की। और दान के रूप में यह महल ही शिवजी से मांग लिया | भोले बाबा ने बस वो नगरी उन्हें दान में दे दी |

इस तरह अपने सपनो के महल को दान में जाता देख माँ पार्वती को क्रोध आ गया और उन्होंने विश्रवा को श्राप दे दिया एक दिन यह नगरी आग की लपटों में भस्म हो जाएगी |