Jeevan dharam

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Wednesday, 2 August 2017

छाछ बनाने की विधि

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छाछ

सामग्री (Ingredients) 
ताजा दही - 2 कप 
ठंडा पानी - 2 कप
आइस क्य़ूब्स - 1 कप
पोदीना - 6-7 पत्ती 
भुना हुआ जीरा - 1 छोटी स्पून 
काला नमक - 1 छोटी स्पून 
काली मिर्च - 1/4 छोटी स्पून 


विधि (Method) 

ताजा दही, नमक, बर्फ के टुकड़े, जीरा और पोदीना को मिक्सर जार में डाल कर अच्छी तरह फैट ले
अब इसमें पानी मिला कर दुबारा से मिक्सी में चला फेंट लीजिये.
अब एक ग्लास में छाछ निकाल लीजिये. आपका छाछ तयार है
अब इसके ऊपर पोदीना के 1-2 पत्ते डाल कर सजाये और सर्व करे.



Ruchi Sehgal

Thursday, 27 July 2017

मासिक धर्म से जुडी पौराणिक कथा ( mythological story related to mensuration)

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मासिक धर्म  से जुडी पौराणिक  कथा 
क्या आप जानते हैं कि महिलाओं को होने वाले मासिक धर्म का पुराणों में उल्लेख शामिल है? उन्हें मासिक धर्म क्यों होता है इस पर एक पौराणिक कथा भी मौजूद है जो इन्द्र देव से सम्बन्धित है। भागवत पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार एक बार ‘बृहस्पति’ जो देवताओं के गुरु थे, वे इन्द्र देव से काफी नाराज़ हो गए। इस के चलते असुरों ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया और इन्द्र को अपनी गद्दी छोड़ कर भागना पड़ा।
असुरों से खुद को बचाते हुए वे सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे मदद मांगने लगे। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें बताया कि उन्हें एक ब्रह्म-ज्ञानी की सेवा करनी चाहिए, यदि वह प्रसन्न हो जाए तभी उन्हें उनकी गद्दी वापस प्राप्त होगी। आज्ञानुसार इन्द्र देव एक ब्रह्म-ज्ञानी की सेवा में लग गए। लेकिन वे इस बात से अनजान थे कि उस ज्ञानी की माता एक असुर थी इसलिए उसके मन में असुरों के लिए एक विशेष स्थान था।
इन्द्र देव द्वारा अर्पित की गई सारी हवन की सामग्री जो देवताओं को चढ़ाई जाती है, वह ज्ञानी उसे असुरों को चढ़ा रहा था। इससे उनकी सारी सेवा भंग हो रही थी। जब इन्द्र देव को सब पता लगा तो वे बेहद क्रोधित हो गए और उन्होंने उस ब्रह्म-ज्ञानी की हत्या कर डाली।
एक गुरु की हत्या करना घोर पाप था, जिस कारण उन पर ब्रह्म-हत्या का पाप आ गाया। ये पाप एक भयानक राक्षस के रूप में इन्द्र का पीछा करने लगा। किसी तरह इन्द्र ने खुद को एक फूल के अंदर छुपाया और एक लाख साल तक भगवान विष्णु की तपस्या की।
तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने इन्द्र देव को बचा तो लिया लेकिन उनके ऊपर लगे पाप की मुक्ति के लिए एक सुझाव दिया। इसके लिए इन्द्र को पेड़, जल, भूमि और स्त्री को अपने पाप का थोड़ा-थोड़ा अंश देना था। इन्द्र के आग्रह पर सब राज़ी तो हो गए लेकिन उन्होंने बदले में इन्द्र देव से उन्हें एक वरदान देने को कहा।
सबसे पहले पेड़ ने उस पाप का एक-चौथाई हिस्सा ले लिया जिसके बदले में इन्द्र ने उसे एक वरदान दिया। वरदान के अनुसार पेड़ चाहे तो स्वयं ही अपने आप को जीवित कर सकता है।
इसके बाद जल को पाप का हिस्सा देने पर इन्द्र देव ने उसे अन्य वस्तुओं को पवित्र करने की शक्ति प्रदान की।
यही कारण है कि हिन्दू धर्म में आज भी जल को पवित्र मानते हुए पूजा-पाठ में इस्तेमाल किया जाता है।

तीसरा पाप इन्द्र देव ने भूमि को दिया इसके वरदान स्वरूप उन्होंने भूमि से कहा कि उस पर आई कोई भी चोट हमेशा भर जाएगी।
अब आखिरी बारी स्त्री की थी। इस कथा के अनुसार स्त्री को पाप का हिस्सा देने के फलस्वरूप उन्हें हर महीने मासिक धर्म होता है। लेकिन उन्हें वरदान देने के लिए इन्द्र ने कहा की “महिलाएं, पुरुषों से कई गुना ज्यादा काम का आनंद उठाएंगी”।
इस दौरान वे ब्रह्म-हत्या यानी कि अपने गुरु की हत्या का पाप ढो रही होती हैं, इसलिए उन्हें अपने गुरु तथा भगवान से दूर रहने को कहा जाता है। यही कारण है कि प्राचीन समय से ही मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को मंदिर जाने की मनाही थी।
mythological story related to mensuration

नारद की समस्या

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एक बार देवर्षि नारद अपने पिता ब्रम्हा जी के सामने “नारायण-नारायण” का जप करते हुए उपस्थित हुए और पूज्य पिताजी को दंडवत प्रणाम किया ।  नारद जी को सामने देख ब्रम्हा जी ने पुछा, “नारद! आज कैसे आना हुआ ? तुम्हारे मुख के भाव कुछ कह रहे हैं! कोई विशेष प्रयोजन है अथवा कोई नई समस्या ?”
नारद जी ने उत्तर देते हुए कहा, “ पिताश्री ऐसा कोई विशेष प्रयोजन तो नहीं है, कई दिनों से एक प्रश्न मन में खटक रहा है । आज आपसे इसका उत्तर जानने के लिए उपस्थित हुआ हूँ । 

“तो फिर विलम्ब कैसा? मन की शंकाओं का समाधान शीघ्रता से कर लेना ही ठीक रहता है! इसलिए निः संकोच अपना प्रश्न पूछो!”   – ब्रम्हाजी ने कहा ।
नारद जी ने उत्तर देते हुए कहा, “ पिताश्री ऐसा कोई विशेष प्रयोजन तो नहीं है, कई दिनों से एक प्रश्न मन में खटक रहा है । आज आपसे इसका उत्तर जानने के लिए उपस्थित हुआ हूँ । ”
“पिताश्री आप सारे सृष्टि के परमपिता है, देवता और दानव आप की  ही संतान हैं । भक्ति और ज्ञान में देवता श्रेष्ठ हैं तो शक्ति तथा तपाचरण में दानव श्रेष्ठ हैं! परन्तु मैं इसी प्रश्न में उलझा हुआ हूँ कि इन दोनों में कौन अधिक श्रेष्ठ है। और आपने देवों को स्वर्ग और दानवों को पाताल लोक में जगह दी ऐसा क्यों? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए मैं आपकी शरण में आया हूँ” – नारद ने ब्रम्हाजी से अपना प्रश्न बताते हुए कहा ।
नारद का प्रश्न सुन ब्रम्हदेव बोले, नारद इस प्रश्न का उत्तर देना तो कठिन है और इसका उत्तर मैं नहीं दे पाऊँगा क्योंकि देव और दानव दोनों ही मेरे पुत्र हैं एवं अपने ही दो पुत्रों की तुलना अपने ही मुख से करना उचित नहीं होगा! लेकिन फिर भी तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ढूंढने में मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ ।  तुम आज ही देवों और दानवों दोनों को मेरी और से भोजन का निमंत्रण भेजो ।  कल ही हम उनके लिए भोज का आयोजन करेंगे ।  और  कल ही तुम्हे तुम्हारे प्रश्न कि देव क्यों स्वर्ग-लोक में हैं तथा दानव पाताल-लोक में ; का उत्तर भी मिल जायेगा!
नारद तत्काल ही असुरों और देवों को निमंत्रण दे आये।
दुसरे दिन दानव ब्रम्ह-लोक में भोजन का आनंद लेने के लिए पहुँच गए और उन्होंने पहले पहुँचने के कारण भोजन की पहली शुरूआत खुद से करने के लिए ब्रम्हा जी से आग्रह किया ।
भोजन की थालियाँ परोसी गई, दानव भोजन करने के लिए बैठे, वे भोजन शुरू करने ही वाले थे कि ब्रम्हा जी हाथ में कुछ लकड़ियाँ लेकर उनके समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने कहा, “आज के भोजन की एक छोटी-सी शर्त है मैं यहाँ उपस्थित हर एक अतिथि के दोनों हाथों में इस प्रकार से लकड़ी बांधूंगा कि वो कोहनी से मुड़ नहीं पाए और इसी स्थिति में सभी को भोजन करना होगा । ”
कुछ देर बाद सभी असुरों के हाथों में लकड़ियाँ बंध चुकीं थीं। अब असुरों ने खाना शुरू किया , पर ऐसी स्थिति में कोई कैसे खा सकता था। कोई असुर सीधे थाली में मुँह डालकर खाने का प्रयास करने लगा तो कोई भोजन को हवा में उछालकर मुँह में डालने का प्रयत्न करने लगा ।  दानवों की ऐसी स्थिति देखकर नारद जी अपनी हंसी नहीं रोक पाए !
अपने सारे प्रयास विफल होते देख दानव बिना खाए ही उठ गए और क्रोधित होते हुए बोले, “हमारी यही दशा ही करनी थी तो हमें भोजन पर बुलाया ही क्यों? कुछ देर पश्चात् देव भी यहाँ पहुँचने वाले हैं ऐसी ही लकड़ियाँ आप उनके हाथों में भी बांधियेगा ताकि हम भी उनकी दुर्दशा का आनदं ले सकें…. ”
कुछ देर पश्चात् देव भी वहाँ पहुँच गए और अब देव भोजन के लिए बैठे, देवों के भोजन मंत्र पढ़ते ही ब्रम्हा जी ने सभी के हाथों में लकड़ियाँ बाँधी और भोजन की शर्त भी रखी ।

हाथों में लकड़ियाँ बंधने पर भी देव शांत रहे , वे समझ चुके थे कि खुद अपने हाथ से भोजन करना संभव नहीं है अतः वे थोड़ा आगे खिसक गए और थाली से अन्न उठा सामने वाले को खिलाकर भोजन आरम्भ किया । बड़े ही स्नेह के साथ वे एक दूसरे को खिला रहे थे, और भोजन का आनंद ले रहे थे, उन्होंने भोजन का भरपूर स्वाद लिया साथ ही दूसरों के प्रति अपना स्नेह, और सम्मान जाहिर किया ।
यह कल्पना हमे क्यों नहीं सूझी इसी विचार के साथ दानव बहुत दुखी होने लगे । नारद जी यह देखकर मुस्कुरा रहे थे । नारद जी ने ब्रम्हा जी से कहा, “पिताश्री  आपकी लीला अगाध है । युक्ति, शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग स्वार्थ हेतु करने की अपेक्षा परमार्थ के लिए करने वाले का जीवन ही श्रेष्ठ होता है । दूसरों की भलाई में ही अपनी भलाई है यह आपने सप्रमाण दिखा दिया और मुझे अपने प्रश्नों का उत्तर मिल गया है ।  ब्रम्हा जी को सबने प्रणाम किया और वहाँ से विदा ली ।