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Monday 10 September 2018

भगवान दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं की कथा

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आज हम आपको भगवान दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं की कथा विस्तार से  बतायेंगे,,,,

श्री दत्तात्रेय भगवान जी ने अपने जीवन में चौबीस(24) गुरु  बनाये थे। अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को उपदेश किया। और उन सभी से अद्भुत शिक्षा प्राप्त की। जिनका वर्णन इस प्रकार हैं-

पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चन्द्रमा रविः। कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतङ्गो मधुकृद्गजः।।
मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः। कुमारी शरकृत् सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्।।

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिन, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट ।

पृथ्वी – पृथ्वी से शिक्षा ली की साधु पुरुष को चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे। क्योंकि धरती हमेशा देने में लगी रहती है और बदले में किसी से कुछ भी नही लेती। लोग धरती पर हल चलते हैं लेकिन पृथ्वी की दयालुता देखिये अपना सीना चीर के अन्न प्रदान करती है। हमेशा परोपकार में लगी रहती है।

वायु – प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे किसी को भूख लगती है और वह खाना खाने पर सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिये जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाय ।

शरीर के बाहर रहने वाले वायु से शिक्षा ली की जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाय, परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे। किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाय, किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे।

गन्ध वायु का गुण नहीं, पृथ्वी का गुण है। परन्तु वायु को गन्ध का वहन करना पड़ता है। ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्ध से उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधन का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है, तब तक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपने को शरीर नहीं, आत्मा के रूप में देखने वाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है ।

आकाश – आकाश कितना विशाल है। कितना बड़ा है लेकिन उसमे रंच मात्र भी अहंकार नही है। साधक को चाहिये कि सूत के मणियों के व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंगरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिए साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिये ।

जल – जल अर्थात पानी। जल से शिक्षा ली है की जिस प्रकार जल मीठा होता है तो सभी की प्यास बुझाता है और शीतल रहता है। उसी तरह साधक को भी मीठी वाणी का उपयोग करना चाहिए और सबको शीतलता प्रदान करना चाहिए। गंगा आदि तीर्थों के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं—वैसे ही साधक को भी स्वभाव से शुद्ध, स्निग्ध, मधुर भाषी और लोक पावन होना चाहीये।

अग्नि – अग्नि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं—सब कुछ अपने पेट में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियों से अपराभूत, भोजन मात्र का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे, किसी का दोष अपने में न आने दे ।

जैसे आग (लकड़ी आदि में) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय।

साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियों में रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लम्बी-चौड़ी दिखाई पड़ती है—वास्तव में वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य-कारण रूप जगत् में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम-रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है ॥

चन्द्रमा – चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है । आत्मा सदैव एक जैसी रहती है।

सूर्य – सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग—उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती ।

कबूतर – कबूतर से शिक्षा ली की किसी के साथ भी अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति नहीं करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायगी और उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा।

किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था।  वह एक कबूतरी के साथ कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा । दोनों आपस में बहुत प्रेम करते थे। एक दूसरे के बिना एक क्षण के लिए भी रह नही पाते थे। उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे।vकबूतर उस कबूतरी की हर इच्छा पूरी करता।

समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये । भगवान की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैर वाले बच्चे निकल आये। अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन—सुनकर आनन्द मग्न हो जाते ।

एक दिन दोनों कबूतर-कबूतरी अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। उसी समय एक बहेलिया(शिकारी) घूमता-घूमता उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया।  अब कबूतर कबूतरी चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये । कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हे बच्चे उसके ह्रदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें चिल्लाता हुआ देख कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी । और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी ।

जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह रोने अत्यन्त दुःखी होकर करने लगा। और अपने आपको कोसने लगा। हाय मेरी पत्नी!, हाय मेरे बच्चे! वह कहने लगा मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही है। मेरा अब संसार में क्या काम है ? मुझ दीन का यह विधुर जीवन—बिना गृहणी के जीवन जलन का—व्यथा का जीवन है। अब मैं इस सूने घर में किसके लिये जिऊँ ?

कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तड़फड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान-बूझकर जाल में कूद पड़ा ।

वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना ।

जो कुटुम्बी है–, विषयों और लोगों के संग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पता है । यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर-गृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढ़कर गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह ‘आरूढ़च्युत’ है ।

अजगर – अजगर से शिक्षा प्राप्त कि जैसे एक अजगर भोजन के लिए बहुत ज्यादा प्रयास नही करता उसी तरह साधक को केवल भोजन के लिए प्रयास नही करना चाहिए। उसके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार उसे भोग अवश्य मिलेंगे लेकिन इस जन्म को भोगों में पड़कर व्यर्थ न करें। बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन-निर्वाह कर ले और उदासीन रहे । यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकार की चेष्टा न करे, बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे। रसना(जीभ) को कभी भी स्वाद मत दो नही तो दुःख मिलेगा।

समुद्र – समुद्र से शिक्षा प्राप्त कि जिस परकास समुद्र कितना विशाल और बड़ा है लेकिन ये अपनी मर्यादा तोड़कर बाहर नही आता है चाहे गर्मी हो सर्दी हो। उसी प्रकार साधक को जीवन में मर्यादित रहना चाहिए। साधक को समुद्र कि तरह सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ न होना चाहिये।

पतंगा– पतंगा से शिक्षा ली कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव-भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में, नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है।

सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया है, जिससे जीव भगवान या मोक्ष की प्राप्ति से दूर ही रह जाता है । जो मूढ़ कामिनी-कंचन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थों में फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोग के लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेक बुद्धि खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है।

भौंरा या मधुमक्खी – संन्यासी को चाहिये कि गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीर के लिये उपयोगी रोटी के कुछ टुकड़े कई घरों से माँग ले। जिस प्रकार भौर विभिन्न पुष्पों से—चाहे वे छोटे हों या बड़े—उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार—उनका रस निचोड़ ले ।

यदि भौंरा कहीं किसी कमल के फूल पर आशक्त होकर रात्रि भर उसमे बैठा रह गया तो कमल का फूल बंद हो जाता है।  और फूल बंद होने पर वह मर जाता है इसी तरह स्वादवासना से एक ही गृहस्थ का अन्न खाने से उसके सांसर्गिक मोह में फँसकर यति भी नष्ट हो जायगा।

संन्यासी को सायंकाल अथवा दूसरे दिन के लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेने को कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियों के समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा ।

यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे-शाम के लिये किसी प्रकार का संग्रह न करे; यदि संग्रह करेगा तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ जीवन भी गँवा बैठेगा ।

हाथी – हाथी से यह सीखा कि सन्यासी को कभी पैर से भी काठ की बनी हुई स्त्री का स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी के अंग-संग से हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह बँध जायगा(हाथी पकड़ने वाले तिनकों से ढके हुए गड्ढे पर कागज की हथिनी खड़ी कर देते हैं। उसे देखकर हाथी वहाँ आता है और गड्ढों में गिरकर फँस जाता है।)

विवेकी पुरुष किसी भी स्त्री को कभी भी भोग्यरूप से स्वीकार न करे; क्योंकि यह मूर्तिमयी मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियों से हाथी की तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषों के द्वारा मारा जायगा ।

मधु(शहद) निकलने वाला – शहद निकालने वाले आदमी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन इकठ्ठा तो करते रहते हैं, लेकिन वह इस धन का न किसी को दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं।

बस, जैसे शहद निकालने वाला मधुमक्खियों द्वारा संचित रस को निकाल ले जाता है वैसे ही उनके संचित धन को भी उसकी टोह रखने वाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है।

तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियों का जोड़ा हुआ मधु उनके खाने से पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थों के बहुत कठिनाई से संचित किये पदार्थों को, जिनसे वे सुख भोग की अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रम्हचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि-अभ्यागतों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ।

हिरन – हिरन से यह सीखा है कि वनवासी संन्यासी को कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बात की शिक्षा उस हरिन से ग्रहण से जो व्याध के गीत से मोहित होकर बँध जाता है । तुम्हें इस बात का पता है कि हरिनी के गर्भ से पैदा हुए ऋष्य श्रृंग मुनि स्त्रियों का विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वश मने हो गये थे और उनके हाथ की कठपुतली बन गये थे ।

मछली – जैसे मछली काँटे में लगे हुए मांस के टुकड़े के लोभ से अपनी जान गँवा देती है, वैसे ही स्वाद का लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य अपनी जिभ्या(जीभ) के वश में हो जाता है और मारा जाता है ।

विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियों पर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वश में नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर देने से और भी प्रबल हो जाती है । मनुष्य और सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी तब तक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जब तक रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रिय को वश में कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश में हो गयीं ।

पिंगला वैश्या – पिंगला वैश्या से शिक्षा मिली कि आशा ही दुःख का घर है। आशक्ति किसी से नही करनी चाहिए।

कुरर पक्षी – एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छिनने के लिये उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला। मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकठ्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है। जो बुद्धिमान पुरुष यह बात समझकर अकिंचन भाव से रहता है—शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता—उसे अनन्त सुखस्वरुप परमात्मा की प्राप्ति होती है ।

बालक – बालक से मान और अपमान कि शिक्षा ली। जीव को एक बालक की तरह रहना चाहिए । जैसे बच्चे को डांट देते है तो वह नाराज हो जाता है लेकिन फिर प्रेम से बुलाने पर वह वापिस आ जाता है । क्योंकि वो मान और अपमान से परे है। इस जगत् में दो ही प्रकार के व्यक्ति आनंद में रहते हैं—एक तो भोला भाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ।

कुँआरी कन्या – एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिए उसने खुद ही उनका आतिथ्य-सत्कार किया ।

उनको भोजन कराने के लिये वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी। उस समय कलाई में पड़ी शंख की चूड़ियाँ जोर-जोर बज रही थीं। इस शब्द को निन्दित समझकर कुमार को बड़ी लज्जा मालूम हुई(क्योंकि उससे उसका स्वयं धान कूटना सूचित होता था, जो कि उसकी दरिद्रता का द्दोतक था।) और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं । अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाईयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गयी तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई।

मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमार कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिये । ध्यान में भी अकेले ही बैठना चाहिए।

बाण बनाने वाला – मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे । जब परमानन्दस्वरुप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो बहाता है।

एक बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना मस्त हो रहा था कि उसके पास से ही एक दलबल के साथ राजा की सवारी निकल गयी और उसे पता तक न चला । इस प्रकार कुछ भी हो जाये मन परमात्मा के चरणों में लगा रहना चाहिए।

सर्प – सर्प(साँप) से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाय। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले । इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है ।

मकड़ी – जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस संसार को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने लीन कर लेते हैं।

भृंगी कीट – भृंगी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरुप प्राप्त हो जाता है। जैसे भृंगी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है(जब उसी शरीर से चिन्तन किये रूप की प्राप्ति हो जाती है; तब दूसरे शरीर से तो कहना ही क्या है ?

इसलिये मनुष्य को अन्य वस्तु का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये)।

और फिर दत्तात्रेय भगवान ने इस देह(शरीर) को भी अपना गुरु बनाया है। दत्तात्रेय जी कहते हैं यह शरीर मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ। यद्यपि यह मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही—मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है।

इससे परमपुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है; इसलिए अनेक जन्मों के बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय-भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये।


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