Thursday, 27 July 2017
बालक ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कहानी
बालक ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कहानी
स्वयंभुव मनु और शतरुपा के दो पुत्र थे-प्रियवत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नियां थीं। राजा उत्तानपाद को सुनीति से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। यद्पि सुनीति बड़ी रानी थी परन्तु उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था। एक बार सुनीति का पुत्र ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठा खेल रहा था। इतने में सुरुचि वहां आ पहुंची।
ध्रुव को उत्तानपाद की गोद में खेलते देख उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। सौतन के पुत्र को अपने पति की गोद में वह बर्दाश्त न कर सकी। उसका मन ईष्र्या से जल उठा। उसने झपट कर बालक ध्रुव को राजा की गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उसकी गोद में बिठा दिया तथा बालक ध्रुव से बोली, अरे मूर्ख! राजा की गोद में वही बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ हो।
तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है। इसलिए तुझे इनकी गोद में या राजसिंहासन पर बैठने का कोई अधिकार नहीं है। पांच वर्ष के ध्रुव को अपनी सौतेली मां के व्यवहार पर क्रोध आया। वह भागते हुए अपनी मां सुनीति के पास आए तथा सारी बात बताई। सुनीति बोली, बेटा! तेरी सौतेली माता सुरुचि से अधिक प्रेम के कारण तुम्हारे पिता हम लोगों से दूर हो गए हैं।
तुम भगवान को अपना सहारा बनाओ। माता के वचन सुनकर ध्रुव को कुछ ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह भगवान की भक्ति करने के लिए पिता के घर को छोड़ कर चल पड़े। मार्ग में उनकी भेंट देवार्षि नारद से हुई। देवार्षि ने बालक ध्रुव को समझाया, किन्तु ध्रुव नहीं माना। नारद ने उसके दृढ़ संकल्प को देखते हुए ध्रुव को मंत्र की दीक्षा दी। इसके बाद देवार्षि राजा उत्तानपाद के पास गए।
राजा उत्तानपाद को ध्रुव के चले जाने से बड़ा पछतावा हो रहा था। देवार्षि नारद को वहां पाकर उन्होंने उनका सत्कार किया। देवॢष ने राजा को ढांढस बंधाया कि भगवान उनके रक्षक हैं। भविष्य में वह अपने यश को सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैलाएंगे। उनके प्रभाव से आपकी कीर्ति इस संसार में फैलेगी। नारद जी के इन शब्दों से राजा उत्तानपाद को कुछ तसल्ली हुई।
उधर बालक ध्रुव यमुना के तट पर जा पहुंचे तथा महॢष नारद से मिले मंत्र से भगवान नारायण की तपस्या आरम्भ कर दी। तपस्या करते हुए ध्रुव को अनेक प्रकार की समस्याएं आईं परन्तु वह अपने संकल्प पर अडिग रहे। उनका मनोबल विचलित नहीं हुआ। उनके तप का तेज तीनों लोकों में फैलने लगा। ओम नमो भगवते वासुदेवाय की ध्वनि वैकुंठ में भी गूंज उठी।
तब भगवान नारायण भी योग निद्रा से उठ बैठे। ध्रुव को इस अवस्था में तप करते देख नारायण प्रसन्न हो गए तथा उन्हें दर्शन देने के लिए प्रकट हुए। नारायण बोले, हे राजकुमार! तुम्हारी समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी। तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वह लोक प्रदान कर रहा हूं, जिसके चारों ओर ज्योतिष चक्र घूमता है तथा जिसके आधार पर सब ग्रह नक्षत्र घूमते हैं।
प्रलयकाल में भी जिसका कभी नाश नहीं होता। सप्तऋषि भी नक्षत्रों के साथ जिस की प्रदक्षिणा करते हैं। तुम्हारे नाम पर वह लोक ध्रुव लोक कहलाएगा। इस लोक में छत्तीस सहस्र वर्ष तक तुम पृथ्वी पर शासन करोगे। समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अंत समय में तुम मेरे लोक को प्राप्त करोगे। बालक ध्रुव को ऐसा वरदान देकर नारायण अपने लोक लौट गए। नारायण के वरदान स्वरूप ध्रुव समय पाकर ध्रुव तारा बन गए .
जानिए क्यों किया सीता जी ने स्वयं कुम्भकरण के पुत्र का वध (why sita jee killed the son of kumbkaran)
जानिए क्यों किया सीता जी ने स्वयं कुम्भकरण के पुत्र का वध
रावण का अंत तथा विभीषण को लंका का राजा घोषित कर श्रीराम अयोध्या वापिस आ चुके थे। एक दिन की बात है। उनके पास विभीषण पहुंचे। वह रावण के छोटे भाई थे। उन्होंने प्रभु राम से कहा, 'कुंभकर्ण का एक पुत्र मूलकासुर था, जो मूल नक्षत्र में पैदा हुआ था। तब उसे वन में रहने भेज दिया था। जहां उसे मधुमक्खियों ने पाल-पोस कर बढ़ा किया था।
लेकिन अब वो वापिस आ गया है। और मुझे मारकर अपने पिता की मौत का बदला लेना चाहता है। मैंने उसके साथ लगभग 6 माह तक युद्ध किया लेकिन अंततः उसकी विजयी हुई। तब मैं किसी तरह आपके पास न्याय के लिए मौजूद हुआ हूं।'
श्रीराम ने यह व्यथा सुन, अपने पुत्र लव-कुश और भाई लक्ष्मण से कहा, 'आप तुरंत सेना तैयार करें, हम लंका पुनः कूच, करेंगे।' इस तरह श्रीराम पुष्पक विमान से लंका की ओर चल निकले। जब मूलकासुर को पता चला कि श्रीराम आ रहे हैं तब वह अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए रणभूमि में पहुंच गया।
दोनों तरफ से युद्ध सात 7 तक चलता रहा। जो भी घायल होता उसे हनुमानजी संजीवनी बूटी से स्वस्थ करते लेकिन युद्ध मूलकासुर की तरफ से भारी दिख रहा था। तब चिंतित होकर श्रीराम ने एक वृक्ष के नीचे बैठकर ब्रह्मा जी का ध्यान किया।
ब्रह्माजी प्रकट हुए और उन्होंने श्रीराम से कहा, 'हे राम मैंने मूलकासुर को किसी स्त्री के हाथ मृत्यु का वरदान दिया है। मूलकासुर का वध सीता जी ही कर सकती हैं।'
तब श्रीराम ने युद्ध भूमि में लाने को हनुमानजी और विनतानंदन गरुड़ को सीता जी को युद्ध भूमि में लाने के लिए भेजा। सीता जी वहां पहुंची तो उन्होंने चंडिकास्त्र चलाकर मूलकासुर का वध कर दिया।
॥ कालीकवचम् ॥ kaali kavacham
॥ कालीकवचम् ॥
भैरव् उवाच -
कालिका या महाविद्या कथिता भुवि दुर्लभा ।
तथापि हृदये शल्यमस्ति देवि कृपां कुरु ॥ १॥
कवचन्तु महादेवि कथयस्वानुकम्पया ।
यदि नो कथ्यते मातर्व्विमुञ्चामि तदा तनुं ॥ २॥
श्रीदेव्युवाच -
शङ्कापि जायते वत्स तव स्नेहात् प्रकाशितं ।
न वक्तव्यं न द्रष्टव्यमतिगुह्यतरं महत् ॥ ३॥
कालिका जगतां माता शोकदुःखविनाशिनी ।
विशेषतः कलियुगे महापातकहारिणी ॥ ४॥
काली मे पुरतः पातु पृष्ठतश्च कपालिनी ।
कुल्ला मे दक्षिणे पातु कुरुकुल्ला तथोत्तरे ॥ ५॥
विरोधिनी शिरः पातु विप्रचित्ता तु चक्षुषी ।
उग्रा मे नासिकां पातु कर्णौ चोग्रप्रभा मता ॥ ६॥
वदनं पातु मे दीप्ता नीला च चिबुकं सदा ।
घना ग्रीवां सदा पातु बलाका बाहुयुग्मकं ॥ ७॥
मात्रा पातु करद्वन्द्वं वक्षोमुद्रा सदावतु ।
मिता पातु स्तनद्वन्द्वं योनिमण्डलदेवता ॥ ८॥
ब्राह्मी मे जठरं पातु नाभिं नारायणी तथा ।
ऊरु माहेश्वरी नित्यं चामुण्डा पातु लिङ्गकं ॥ ९॥
कौमारी च कटीं पातु तथैव जानुयुग्मकं ।
अपराजिता च पादौ मे वाराही पातु चाङ्गुलीन् ॥ १०॥
सन्धिस्थानं नारसिंही पत्रस्था देवतावतु ।
रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु ॥ ११॥
तत्सर्वं रक्ष मे देवि कालिके घोरदक्षिणे ।
ऊर्द्धमधस्तथा दिक्षु पातु देवी स्वयं वपुः ॥ १२॥
हिंस्रेभ्यः सर्वदा पातु साधकञ्च जलाधिकात् ।
दक्षिणाकालिका देवी व्यपकत्वे सदावतु ॥ १३॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद्देवदक्षिणां ।
न पूजाफलमाप्नोति विघ्नस्तस्य पदे पदे ॥ १४॥
कवचेनावृतो नित्यं यत्र तत्रैव गच्छति ।
तत्र तत्राभयं तस्य न क्षोभं विद्यते क्वचित् ॥ १५॥
इति कालीकुलसर्वस्वे कालीकवचं समाप्तम् ॥
bhairav uvAcha \-
kAlikA yA mahAvidyA kathitA bhuvi durlabhA |
tathApi hR^idaye shalyamasti devi kR^ipA.n kuru || 1||
kavachantu mahAdevi kathayasvAnukampayA |
yadi no kathyate mAtarvvimu~nchAmi tadA tanu.n || 2||
shrIdevyuvAcha \-
sha~NkApi jAyate vat.hsa tava snehAt.h prakAshita.n |
na vaktavya.n na draShTavyamatiguhyatara.n mahat.h || 3||
kAlikA jagatA.n mAtA shokaduHkhavinAshinI |
visheShataH kaliyuge mahApAtakahAriNI || 4||
kAlI me purataH pAtu pR^iShThatashcha kapAlinI |
kullA me daxiNe pAtu kurukullA tathottare || 5||
virodhinI shiraH pAtu viprachittA tu chaxuShI |
ugrA me nAsikA.n pAtu karNau chograprabhA matA || 6||
vadana.n pAtu me dIptA nIlA cha chibuka.n sadA |
ghanA grIvA.n sadA pAtu balAkA bAhuyugmaka.n || 7||
mAtrA pAtu karadvandva.n vaxomudrA sadAvatu |
mitA pAtu stanadvandva.n yonimaNDaladevatA || 8||
brAhmI me jaThara.n pAtu nAbhi.n nArAyaNI tathA |
Uru mAheshvarI nitya.n chAmuNDA pAtu li~Ngaka.n || 9||
kaumArI cha kaTI.n pAtu tathaiva jAnuyugmaka.n |
aparAjitA cha pAdau me vArAhI pAtu chA~NgulIn.h || 10||
sandhisthAna.n nArasi.nhI patrasthA devatAvatu |
raxAhInantu yat.hsthAna.n varjita.n kavachena tu || 11||
tat.hsarva.n raxa me devi kAlike ghoradaxiNe |
UrddhamadhastathA dixu pAtu devI svaya.n vapuH || 12||
hi.nsrebhyaH sarvadA pAtu sAdhaka~ncha jalAdhikAt.h |
daxiNAkAlikA devI vyapakatve sadAvatu || 13||
ida.n kavachamaj~nAtvA yo japeddevadaxiNA.n |
na pUjAphalamApnoti vighnastasya pade pade || 14||
kavachenAvR^ito nitya.n yatra tatraiva gachChati |
tatra tatrAbhaya.n tasya na xobha.n vidyate kvachit.h || 15||
iti kAlIkulasarvasve kAlIkavacha.n samAptam.h ||
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