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Saturday, 12 May 2018

प्रबल पुष्प वशीकरण

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पुष्प द्वारा वशीकरण के लिए मन्त्र
|| ॐ नमो आदेश गुरु का
कामरू देश कामक्षा देवी
तहां ठे ठे इस्मायल जोगी
जोगी के आंगन फूल क्यारी
फूल चुन चुन लावे लोना चमारी
फूल चल फूल फूल बिगसे
फूल पर वीर नाहरसिंह बसे
जो नहीं फूल का विष
कबहुं न छोड़े मेरी आस
मेरी भक्ति गुरु की शक्ति
फुरो मन्त्र इश्वरोवाचा || 
विधि :- पहले इस मन्त्र को शुभ महूर्त में 11 माला जप करके सिद्ध कर ले फिर गुलाब का फूल लेकर उस पर 21 बार मन्त्र पढकर फूंके और ये फूल जिस स्त्री को दिया जायेगा वो लेने वाले के वश में रहेगी | सोच समझ कर ही ये प्रयोग करे अगर कोई पीछे
पड़ गयी तो छुड़ाना मुश्किल हो जायेगा

मूलबंध कैसे लगाये

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योग में मूलत: पांच प्रकार के बंध है- 1.मूलबंध, 2.उड्डीयान बंध, 3.जालंधर बंध, 4.बंधत्रय और 5.महाबंध। यहां प्रस्तुत है मूलबंध के बारे में जानकारी। गुदाद्वार को सर्वथा बंद कर देने को मूलबंध कहा जाता है।
लाभ और प्रभाव- योग में मूलबंध के बहुत से फायदे बताए गए हैं। इस मुद्रा को करने से शरीर के अंदर जमा कब्ज का रोग समाप्त हो जाता है और भूख भी तेज हो जाती है। शरीर का भारीपन समाप्त होता है और सुस्ती मिटती है।
यौन रोग में लाभदायक : इस बंध के नियमित अभ्यास से यौन ग्रंथियां पुष्ट होकर यौन रोग में लाभ मिलता है। पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में ये मुद्रा बहुत ही लाभकारी मानी जाती है।
इसे करने की विधि- बाएं पांव की एड़ी से गुदाद्वार को दबाकर, फिर दाएं पांव को बाएं पांव की जांघ पर रखकर सिद्धासन में बैठें। इसके बाद गुदा को संकुचित करते हुए नीचे की वायु को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें। सिद्धासन में एड़ी के द्वारा ही यह काम लिया जाता है।
सिद्धासन में बैठे तब दोनों घुटने जमीन को छूते हुए होने चाहिए तथा हथेलियां उन घुटनों पर टिकी होनी चाहिए। फिर गहरी श्वास लेकर वायु को अंदर ही रोक लें। इसके बाद गुदाद्वार को पूरी तरह से सिकोड़ लें। अब श्वास को रोककर रखने के साथ आरामदायक समयावधि तक बंध को बनाए रखें। इस अवस्था में जालंधर बंध भी लगाकर रखें फिर मूलाधार का संकुचन छोड़कर जालंधर बंध को धीरे से खोल दें और धीरे से श्वास को बाहर छोड़ दें। इस अभ्यास को 4 से 5 बार करें।
गुदासंकुचन क्रिया : गुदा को सुं‍कुचित करना और फिर छोड़ देना। इस तरह 15-20 बार करने से गुदा संबंधी समस्त रोग समाप्त हो जाते हैं। इस क्रिया को करने से बवासीर रोग भी समाप्त हो जाता है। मूलबंध के साथ इसका नियमित अभ्यास से उम्र भी बढ़ती है।
निर्देश- इस मूलबंध का अभ्यास किसी जानकार योगाचार्य के निर्देशन में ही करना चाहिए।
बंध मुद्राएँ शरीर की कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं जिनके द्वारा कुंडलिनी सफलतापूर्वक जाग्रत की जा सकती है। घेरंड संहिता में २५ मुद्राओं एवं महत्वपूर्ण हैं:
(१) मूलबंध, (२) जालंधरबंध, (३) उड्डीयानबंध, (४) महामुद्रा, (५) महाबंध, (६) महावेध (७) योगमुद्रा, (८) विपरीतकरणीमुद्रा, (९) खेचरीमुद्रा, (१०) वज्रिणीमुद्रा, (११) शक्तिचालिनीमुद्रा, (१२) योनिमुद्रा।
उपर्युक्त अनेक क्रियाओं का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। किसी किसी अभ्यास में दो या तीन बंधों और मुद्राओं को सम्मिलित करना पड़ता है। यौगिक क्रियाओं का जब नित्य विधिपूर्वक अभ्यास किया जाता है निश्चय ही उनका इच्छित फल मिलता है। मुद्राओं एवं बंधों के प्रयोग करने से मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, बवासीर, खाँसी, दमा, तिल्ली का बढ़ना, योनिरोग, कोढ़ एवं अनेक असाध्य रोग अच्छे हो जाते हैं। ये ब्रहृाचर्य के लिये प्रभावशाली क्रियाएँ हैं। ये आध्यात्मिक उन्नति के लिये अनिवार्य हैं।
घेरंड संहिता में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पार्ष्णिाना वाम पादस्य योनिमाकुचयेत्तत:।
नाभिग्रंथि मेरूदंडे संपीड्य यत्नत: सुधी:।।
मेद्रं दक्षिणामुल्मे तु दृढ़बंध समाचरेत्‌।
जरा विनाशिनी मुद्रा मूलबंधो निगद्यते।।’
गुहृाप्रदेश को बाईं एड़ी संकुचित करके यत्नपूर्वक नाभिग्रंथि को मेरूदंड में दृढ़ता से संयुक्त करे। पुन: नाभि को भीतर खींचकर पीठ से लगाकर फिर उपस्थ को दाहिनी एड़ी से दृढ़ भाव से संबंद्ध करे। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह मुद्रा बुढ़ापे को नष्ट करती है। घेरंड संहिता में मूलबंध का फल इस प्रकार दिया हुआ है: जो मनुष्य संसार रूपी समुद्र को पार करना चाहते हैं उन्हें छिपकर इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से निश्चय ही महत्‌ सिद्धि होती है। अत: साधक आलस्य का परित्याग करके मौन होकर यत्न के साथ इसकी साधना करे।
मतांतर में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पादमूलेन संपीड्य गुदमार्ग सुमंत्रितं।
बलादपानमाकृष्य क्रमादूर्द्ध समम्येसेत्‌।
कल्पितीय मूलबंधो जरामरण नाशन:।।’
एड़ी से मध्यप्रदेश का यत्नपूर्वक संपीडन करते हुए अपान वायु की बलपूर्वक धीरे-धीरे ऊपर की ओर खींचना चाहिए। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह बुढ़ापा एवं मृत्यु को नष्ट करता है। इसके द्वारा योनिमुद्रा सिद्ध होती है। इसके प्रभाव से साधक आकाश में उड़ सकते हैं।
मूलबंध के नित्य अभ्यास करने से अपान वायु पूर्णरूपेण नियंत्रित हो जाती है। उदर रोग से मुक्ति हो जाती है। वीर्य रोग हो ही नहीं सकता। मूलबंध का साधक निर्द्वद्व होकर वास्तविक स्वस्थ शरीर से आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करता है। आयु बढ़ जाती है। इसका साधक भौतिक कार्यो को भी उल्लासपूर्वक संपन्न करता है। सभी बंधों में मूलबंध सर्वोच्च एवं शरीर के लिये अत्यंत उपयोगी है।

जीव के अन्दर के ग्यारह रूद्र

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2) भूत प्रेत जिंद इत्यादि से बचावपूर्ण
पूर्ण सृष्टि में चार प्रकार के जीव होते है अंडज, पिंडज, जलज और स्वेदज स्थूल देह के अतिरिक्त भारतीय दार्शनिकों ने सूक्ष्म देह का अस्तित्व माना है | सूक्ष्म देह अतिवाहिक देह कहलाती है जो सत्रह तत्वों से बनी होती है | इस देह को आत्मा पूर्ण मानसरूपी सात जन्मों के पश्चात ग्रहण करती है | स्थूल शरीर की सारी योनियों से पार होने के पश्चात ही आत्मा देवयोनि अथवा आसुरी योनि ग्रहण कर पाती है | इस योनि में आत्मा स्थूल तत्वों से स्वाद ग्रहण करती है | देवी साधना और आसुरी साधना द्वारा ही इन आत्माओं को वश में किया जाता है और उनकी शक्तियों को मानव उपयोग में लेता है |
मानव का स्थूल शरीर इनकी चपेट में अधिकतर तब आता है जब ये आत्माएं भोग प्राप्त करती हैं | उदाहरण के तौर पर श्राद्ध के समय चौराहे पर किसी ने अपने पूर्वजों के लिए भोजन रखा और दूसरे शरीर के पांव से ठोकर लग गई तो वो आत्मा उसी समय उस शरीर पर हावी होने लगती है और पीड़ा देना प्रारंभ कर देती है | एक दूसरा पहलू इसका मानव स्वयं तांत्रिक साधनाओं को संपन्न करता है और अनेक आसुरी आत्माओं को अपने वश में कर लेता है फिर आदेशानुसार किसी के भी शरीर अंश द्वारा उस आत्मा से पीड़ा पहुंचाना संभव होता है | इन आत्माओं की शक्तिअनुसार वेदानुसार अनेक प्रकार की क्रियाएं हैं जिनके संपन्न करने से स्थूल शरीर इन आसुरी शक्तियों के प्रभाव से दूर रह सकता है |
3) जीव आत्मा के लिए मुक्ति मार्ग
सृष्टि का निर्माण परमात्मा द्वारा जीव आत्माओं से ही किया गया है | प्रत्येक वस्तु पूर्ण सृष्टि में चक्र में ही चलती है उसी प्रकार से हमारी जीव आत्मा भी इस सृष्टि चक्र में जन्म ग्रहण करती है | हमारा जन्म हमारे कर्मों पर आधारित होता है | कर्मों का फल शरीर में मन सुख और दुख के रूप में भोग लेता है |जिस प्रकार से जीव आत्मा अनश्वर है उसी प्रकार से मन भी अनश्वर ही होता है | पूर्ण सृष्टि चक्र में जीव आत्मा और मन को चौरासी लाख योनियों से गुजरना पड़ता है तद पश्चात मानव जन्म प्राप्त होता है | इस चक्र में फंसने से पहले हमारा मन सृष्टि के कल्याण का संकल्प परमात्मा से धारण करता है | उस संकल्प को पूर्ण करने हेतु मानव शरीर में जीव आत्मा को सात बार इस चक्र में जन्म प्राप्त होता है | संकल्प के ज्ञान हेतु मानव को संकल्पमस्तु के मंत्रों का मंथन करना पड़ता है | इन सात जन्मों में भी अगर जीव आत्मा का मन संकल्प के जान तक नहीं पहुंच पाता और उसे पूर्ण नहीं कर पाता तो फिर से इस सृष्टि चक्र में फंस जाता है और युगों तक मानव जन्म तक पहुंचने हेतु जन्म ग्रहण करता रहता है | मानव शरीर की क्रियाओं की वजह से और वैदिक मंत्रों से दूर होने के कारण ही मानव मन दुखी है |
कर्मों का ही प्रभाव हमारी आत्मा पर भी पड़ता है | शरीर धारण करने के पश्चात हमारी आत्मा भी शरीर का ही एक हिस्सा बन जाती है | भावनाओं की उत्पत्ति आत्मा से होती है | शिव और शक्ति द्वारा रचना सृष्टि की होने के कारण हमारी आत्मा का स्वरूप अर्धनारीश्वर का स्वरुप है | इसका ज्ञान मानव को बीज मंत्र से प्राप्त होता है ॐ नम: शिवाय स्त्री भाव देव भाव और पुरुष भाव राक्षस भाव माना गया है | काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार इन पांच तरह की भावनाओं की व्याख्या देवभाव और राक्षस भाव में ही की जाती है | जिस प्रकार से ज्योतिष शास्त्र कहता है पहले बना प्रारब्ध फिर बना शरीर | शरीर की रचना तो मन को दिए गए संकल्प के अनुसार प्राणी की माता के गर्भ में हो जाती है |
पूर्ण मानव का शरीर वायु मंडल में होने के कारण हमारा कोई भी कर्म वायु से छुपाया नहीं जा सकता इसलिए प्रत्यक्ष समय कलयुग में मानव बुराई की ओर चल पड़ा और सृष्टि को उथल-पुथल कर बैठा | कर्मानव की मृत्यु के समय मस्तिष्क से बिंदू स्वरुप मन हट जाता है | पूर्ण शरीर की क्रियाएं ऊर्जा से चलती हैं | मन स्थान से हटने के कारण ऊर्जा का बहाव शरीर में बंद हो जाता है | इसके पश्चात मन द्वारा किए गए कर्मोें का हिसाब-किताब होना शुरू होता है | पाप और पुण्य के भोग ही आत्मा जन्मों द्वारा सृष्टि में भोगती है | देह का संस्कार अग्नि द्वारा करने का माध्यम भी इसलिए है कि इस मिट्टी रूपी शरीर को जल्द से जल्द अग्नि को समर्पित कर दिया जाए | क्योंकि मन द्वारा संपन्न किए गए पाप कर्मों की सजा आत्मा शरीर को देती ही है | जिस प्रकार शरीर में दस द्वार होते हैं इस आत्मा के बाहर जाने हेतु | ग्यारहवां द्वार कपाल में ब्रह्म द्वारा होता है जहां से रूद्र रूप शरीर में इसे अमर करने हेतु शिव प्रवेश करते हैं | हृदय से निकल कर बाहर जाने तक के समय में शरीर बहुत पीड़ा महसूस करता है | आत्मा के बाहर निकलने का समय भी शरीर द्वारा संपन्न किए गए पाप कर्मों पर आधारित होता है | अच्छे बुरे कर्मों का फल मन जीवन में भोगा लेता है दुख और सुख के रूप में | उल्टे और सीधे कर्मों का फल शरीर भोगता है रोगी और निरोगी बनकर और पाप व पुण्य कर्मों का फल जीव आत्मा भोगती है जन्म ग्रहण कर इस सृष्टि चक्र में |
प्रत्यक्ष समय में मानव मृत्यु पश्चात शरीर के साथ दो क्रियाएं करता नजर आ रहा है दफनाना (गाड़ना) और जलाना | दफनाने की क्रिया में हमारी आत्मा हमारे शरीर द्वारा किए गए पाप कर्मों की सजा तो शरीर के द्वार से निकलते समय दे ही देती है परंतु मन को दिया गया संकल्प पूर्ण न हो पाने की वजह से उसी मन की रचना फिर से सृष्टि में हो ही जाती है | हमारी आत्मा का स्वरुप मन में मिल जाने से बिल्कुल धीमा हो जाता है | पाप कर्मों की पीड़ा अधिक भयानक होती है क्योंकि जिस द्वार से निकलेगी वहां अग्नि की पीड़ा शरीर प्राप्त करेगा | पंचभूत शरीर में प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय दशवायु तथा जीवात्मा ये ही ग्यारह रूद्र होते है जो पाप कर्मों की तरह मन को ले जाते हैं | रूद्र प्रलयंकारी होता है और शिव कल्याणकारी होता है |सृष्टि चक्र से मुक्ति तो मन और जीव आत्मा को तब मिलती है जब परमात्मा से लिया संकल्प प्राणी पूर्ण कर लेता है |