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Saturday, 12 May 2018

तीसरी आँख को पाने की सरलतम विधि

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‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्‍थान सर्वग्राही हो जाता है।‘’
यह एक पुरानी से पुरानी विधि है और इसका प्रयोग भी बहुत हुआ है। यह सरलतम विधियों में एक है।
सिर के सभी द्वारों को, आँख, कान, नाक, मुंह, सबको बंद कर दो। जब सिर के सब द्वार दरवाजे बंद हो जाते है तो तुम्‍हारी चेतना तो सतत बहार बह रही है। एकाएक रूक जाती है। ठहर जाती है। वह अब बाहर नहीं जा सकती।
तुमने ख्‍याल नहीं किया कि अगर तुम क्षण भर के लिए श्‍वास लेना बंद कर दो तो तुम्‍हारा मन भी ठहर जाता है। क्‍यों? क्‍योंकि श्‍वास के साथ मन चलता है। वह मन का एक संस्‍कार है।
तुम्‍हें समझना चाहिए कि यह संस्‍कार क्‍या है। तभी इस सूत्र को समझना आसान होगा।
रूस के अति प्रसिद्ध मानस्‍विद पावलफ ने संस्‍कारजनित प्रतिक्रिया को, कंडीशंड रिफ्लेक्‍स को दुनियाभर में आम बोलचाल में शामिल करा दिया है। जो व्‍यक्‍ति भी मनोविज्ञान से जरा भी परिचित है, इस शब्‍द को जानता है। विचार की दो श्रृंखलाएं कोई भी दो श्रृंखलाएं इस तरह एक दूसरे से जुड़ सी जाती है। कि अगर तुम उनमें से एक को चलाओ तो दूसरी अपने आप शुरू हो जाती है।
पावलफ ने एक कुत्‍ते पर प्रयोग किया। उसने देखा कि तुम अगर कुत्‍ते के सामने खाना रख दो वक उसकी जीभ से लार बहने लगती है। जीभ बहार निकल आती है। और वह भोजन के लिए तैयार हो जाता है। कुत्‍ता जब भोजन देखता है या उसकी कल्‍पना करता है तो लार बहने लगती है। लेकिन
पावलफ ने इस प्रक्रिया के साथ दूसरी बात जोड़ दी। जब भी भोजन रखा जाए और कुत्‍ते की लार टपकने लगे। वह दूसरी चीज करता; उदाहरण के लिए, वह एक घंटी बजाता और कुत्‍ता उस घंटी को सुनता।पंद्रह दिन तक जब भी भोजन रखा जाता, घंटी भी बजती। और तब सोलहवें दिन कुत्‍ते के सामने भोजन नहीं रखा गया, केवल घंटी बजाईं गई। लेकिन तब भी कुत्‍ते के मुहँ से लार बहने लगी। और जीभ बाहर आ गई, मानो भोजन सामने रखा हो।वहां भोजन नहीं था, सिर्फ घंटी थी। अब घंटी बजने और लार टपकने के बीच कोई स्‍वाभाविक संबंध नहीं था। लार का स्‍वाभाविक संबंध भोजन के साथ है। लेकिन अब घंटी का रोज-रोज बजना लार के साथ जुड़ गया था, संबंधित हो गया था। और इसलिए मात्र घंटी के बजने पर भी लार बहने लगी।पावलफ के अनुसार—और पावलफ सही है—हमारा समूचा जीवन एक कंडीशंड प्रोसेस है।
मन संस्‍कार है। इसलिए अगर तुम उस संस्‍कार के भीतर कोई एक चीज बंद कर दो तो उससे जूड़ी और सारी चीजें भी बंद हो जाती है।
उदाहरण के लिए विचार और श्‍वास है। विचारणा सदा ही श्‍वास के साथ चलती है। तुम बिना श्‍वास विचार नहीं कर सकते। तुम श्‍वास के प्रति सजग नहीं रहते, लेकिन श्‍वास सतत चलती रहती है। दिन-रात चलती रहती है। और प्रत्‍येक विचार, विचार की प्रक्रिया ही श्‍वास की प्रक्रिया से जुड़ी है। इसलिए अगर तुम अचानक अपनी श्‍वास रोक लो तो विचार भी रूक जाएगा।वैसे ही अगर सिर के सातों छिद्र, उसके सातों द्वार बंद कर दिए जाएं तो तुम्‍हारी चेतना अचानक गति करना बंद कर देगी। तब चेतना भीतर थिर हो जाती है। और उसका यह भीतर थिर होना तुम्‍हारी आंखों के बीच के बीच स्‍थान बना देता है। वह स्‍थान ही त्रिनेत्र, तीसरी आँख कहलाती है।
अगर सिर के सभी द्वार बंद कर दिये जाये तो तुम बाहर गति नहीं कर सकते। क्‍योंकि तुम सदा इन्‍हीं द्वारों से बाहर जाते रहे हो। तब तुम भीतर थिर हो जाते हो। और वह थिर होना, एकाग्र इन दो आंखों, साधारण आंखों के बीच घटित होता है। चेतना इन दो आंखों के बीच के स्‍थान पर केंद्रित हो जाती है। उस स्‍थान को ही त्रिनेत्र कहते है।
यह स्‍थान सर्वग्राही सर्वव्‍यापक हो जाता है। यह सूत्र कहता है कि इस स्‍थान में सब सम्‍मिलित है सारा आस्‍तित्‍व समाया है। अगर तुम इस स्‍थान को अनुभव कर लो तो तुमने सब को अनुभव कर लिया।
एक बार तुम्‍हें इन दो आंखों के बीच के आकाश की प्रतीति हो गई तो तुमने पूरे अस्‍तित्‍व को जाने लिया, उसकी समग्रता को जान लिया, क्‍योंकि यह आंतरिक आकाश सर्वग्राही है, सर्वव्‍यापक है, कुछ भी उसके बाहर नहीं है।
उपनिषाद कहते है:
‘’एक को जानकर सब जान लिया जाता है।‘’
ये दो आंखें तो सीमित को ही देख सकती है; तीसरी आँख असीम को देखती है। ये दो आंखे तो पदार्थ को ही देख सकती है; तीसरी आँख अपदार्थ को, अध्‍यात्‍म को देखती है। इन दो आंखों से तुम कभी ऊर्जा की प्रतीति नहीं कर सकते , ऊर्जा को नहीं देख सकते, सिर्फ पदार्थ को देख सकते हो। लेकिन तीसरी आँख से स्‍वयं ऊर्जा देखी जाती है।द्वारों का बंद किया जाना केंद्रित होने का उपाय है। क्‍योंकि एक बार जब चेतना के प्रवाह का बाहर जाना रूक जाता है। वह अपने उदगम पर थिर हो जाती है। और चेतना का यह उदगम ही त्रिनेत्र है।
अगर तुम इस त्रिनेत्र पर केंद्रित हो जाओ तो बहुत चीजें घटित होती है। पहली चीज तो यह पता चलती है कि सारा संसार तुम्‍हारे भीतर है।स्‍वामी राम कहा करते थे कि सूर्य मेरे भीतर चलता है। तारे मेरे भीतर चलते है, चाँद मेरे भीतर उदित होता है; सारा ब्रह्मांड मेरे भीतर है। जब उन्‍होंने पहली बार यह कहा तो उनके शिष्‍यों कि वे पागल हो गए है। राम तीर्थ के भीतर सितारे कैसे हो सकते है।वे इसी त्रिनेत्र की बात कर रहे थे। इसी आंतरिक आकाश के संबंध में। जब पहली बार यह आंतरिक आकाश उपलब्‍ध होता है तो यही भाव होता है। जब तुम देखते हो कि सब कुछ तुम्‍हारे भी तर है तब तुम ब्रह्मांड ही हो जाते हो।
त्रिनेत्र तुम्‍हारे भौतिक शरीर का हिस्‍सा नहीं है। वह तुम्‍हारे भौतिक शरीर का अंग नहीं है। तुम्‍हारी आंखों के बीच का स्‍थान तुम्‍हारे शरी तक ही सीमित नहीं है। वह तो वह अनंत आकाश है जो तुम्‍हारे भीतर प्रवेश कर गया है। और एक बार यह आकाश जान लिया जाए तो तुम फिर वही व्‍यक्‍ति नहीं रहते। जिस क्षण तुमने इस अंतरस्‍थ आकाश को जान लिया उसी क्षण तुमने अमृत को जान लिया तब कोई मृत्‍यु नहीं है।जब तुम पहली बार इस आकाश को जानोंगे, तुम्‍हारा जीवन प्रामाणिक और प्रगाढ़ हो जाएगा; तब पहली बार तुम सच में जीवंत होओगे। तब किसी सुरक्षा की जरूरत नहीं रहेगी। अब कोई भय संभव नहीं है। अब तुम्‍हारी हत्‍या नहीं हो सकती। अब तुमसे कुछ भी छीना नहीं जा सकता।
अब सारा ब्रह्मांड तुम्‍हारा है, तुम ही ब्रह्मांड हो। जिन लोगों ने इस अंतरस्‍थ आकाश को जाना है उन्‍होंने ही
आनंदमग्‍न होकर उरदघोषणा की है: अहं ब्रह्मास्‍मि। मैं ही ब्रह्मांड हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं……..।
सूफी संत मंसूर को इसी तीसरी आँख के अनुभव के कारण कत्‍ल कर दिया गया। जब उसने पहली बार इस आंतरिक आकाश को जाना, वह चिल्‍लाकर कहने लगा:
अनलहक़, मैं ही परमात्‍मा हूं,
भारत में वह पूजा जाता। क्‍योंकि भारत ने ऐसे अनेक लोग देखे है जिन्‍हें इस तीसरी आँख आंतरिक आकाश का बोध हुआ। लेकिन मुसलमानों के देश में यह बात कठिन हो गई। और मंसूर का यह वक्‍तव्‍य कि मैं परमात्‍मा हूं, अनलहक़, अहं ब्रह्मास्‍मि, धर्मविरोधी मालूम हुआ। क्‍योंकि
मुसलमान यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्‍य और परमात्‍मा एक है।
मनुष्‍य–मनुष्‍य है। मनुष्‍य सृष्‍टि है, और परमात्‍मा सृष्‍टा। सृष्टि स्‍त्रष्‍टा कैसे हो सकता है।
इस लिए मंसूर का यह वक्‍तव्‍य नहीं समझा जा सका। और उसकी हत्‍या कर दी गई।
लेकिन जब उसको कत्‍ल किया जा रहा था तब वह हंस रहा था। तो किसी ने पूछा कि हंस क्‍यों रहे हो। मंसूर। कहते है कि मंसूर ने कहा मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम मुझे नहीं मार रहे हो। तुम मेरी हत्‍या नहीं कर सकते। तुम्‍हें मेरे शरीर से धोखा हुआ है। लेकिन मैं शरीर नहीं हूं। मैं इस ब्रह्मांड को बनाने वाला हूं; यह मेरी अंगुलि थी जिसने आरंभ में समूचे ब्रह्मांड को चलाया था।
भारत में मंसूर आसानी से समझा जाता, सदियों-सदियों से यह भाषा जानी पहचानी है। हम जानते हे कि एक घड़ी आती है जब यह आंतरिक आकाश जाना जाता है।
तब जानने वाला पागल हो जाता है। और यह ज्ञान इतना निश्‍चित है कि यदि तुम मंसूर की हत्‍या भी कर दो तो वह अपना वक्‍तव्‍य नहीं बदलेगा। क्‍योंकि हकीकत में, जहां तक उसका संबंध है,तुम उसकी हत्‍या नहीं कर सकते। अब वह पूर्ण हो गया है। उसे मिटाने का उपाय नहीं है।
मंसूर के बाद सूफी सीख गए कि चुप रहना बेहतर है। इसलिए मंसूर के बाद सूफी पंरम्‍परा में शिष्‍यों को सतत सिखाया गया कि जब भी तुम तीसरी आँख को उपल्‍बध करो चुप रहो, कुछ कहो मत। जब भी घटित हो, चुप्‍पी साध लो। कुछ भी मत कहो। या वे ही चीजें औपचारिक ढंग से कहे जाओ जो लोग मानते है।
इसलिए अब इस्‍लाम में दो परंपराएं है। एक सामान्‍य परंपरा है—बाहरी, लौकिक।
और दूसरी परंपरा असली इसलाम है, सूफीवाद जो गुह्म है।
लेकिन सूफी चुप रहते है। क्‍योंकि मंसूर के बाद उन्‍होंने सीख लिया कि उस भाषा में बोलना जो कि तीसरी आँख के खुलने पर प्रकट होती है। व्‍यर्थ की कठिनाई में पड़ना है, और उससे किसी को मदद भी नहीं होती।
यह सूत्र कहता है: ‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्‍थान सर्वग्राही, सर्वव्‍यापी हो जाता है।‘’तुम्‍हारा आंतरिक आकाश पूरा आकाश हो जाता है।
ॐ विधि ॐ
प्रत्‍येक विधि किसी मन-विशेष के लिए उपयोगी है। जिस विधि की अभी हम चर्चा कर रहे थे—
तीसरी विधि, सिर के द्वारों को बंद करने वाली विधि—उसका उपयोग अनेक लोग कर सकते है। वह बहुत सरल है और बहुत खतरनाक नहीं है। उसे तुम आसानी से काम में ला सकते हो।
यह भी जरूरी नहीं है कि द्वारों को हाथ से बंद करो; बंद करना भी जरूरी है। इसलिए कानों के लिए डाट और आंखों के लिए पट्टी से काम चल जाएगा
असली बात यह कि कुछ क्षणों के लिए ये कुछ सेंकेंड के लिए सिर के द्वारों को पूरी तरह से बंद कर लो।इसका प्रयोग करो, अभ्‍यास करो। अचानक करने से ही यह कारगर है, अचानक में ही राज छिपा है।
बिस्‍तर में पड़े-पड़े अचानक सभी द्वारों को कुछ सेकेंड के लिए बंद कर लो। और तब भीतर देखो क्‍या होता है।जब तुम्‍हारा दम घुटने लगे, क्‍योंकि श्‍वास भी बंद हो जाएगी, तब भी इसे जारी रखे और तब तक जारी रखो जब तक कि असह्य न हो जाये। और जब असह्य हो जाएगा, तब तुम द्वारों को ज्‍यादा देर बंद नहीं रख सकोगे, इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दो। तब आंतरिक शक्‍ति सभी द्वारों के खुद खोल देगी।
लेकिन जहां तक तुम्‍हारा संबंध है, तुम बंद रखो। जब दम घुटने लगे, तब वह क्षण आता है, निर्णायक क्षण, क्‍योंकि घुटन पुराने एसोसिएशन तोड़ डालती है।
इसलिए कुछ और क्षण जारी रख सको तो अच्‍छा।यह काम कठिन होगा, मुश्‍किल होगा, और तुम्‍हें लगेगा कि मौत आ गई।
लेकिन डरों मत। तुम मर नहीं सकते। क्‍योंकि द्वारों को बंद भर करने से तुम नहीं मरोगे। लेकिन जब लगे कि में मर जाऊँगा, तब समझो कि वह क्षण आ गया।अगर तुम उस क्षण में धीरज से लगे रहे तो अचानक हर चीज प्रकाशित हो जाएगी। तब तुम उस आंतरिक आकाश को महसूस करोगे। जो कि फैलता ही जाता है, और जिसमें समग्र समाया हुआ है। तब द्वारों को खोल दो और तब इस प्रयोग को फिर-फिर करो। जब भी समय मिले, इसका प्रयोग में लाओ।
लेकिन इसका अभ्‍यास मत बनाओ। तुम श्‍वास को कुछ क्षण के लिए रोकने का अभ्‍यास कर सकते हो। लेकिन उससे कुछ लाभ नहीं होगा।
एक आकस्‍मिक, अचानक झटक की जरूरत है।
उस झटके में तुम्‍हारी चेतना के पुराने स्रोतों का प्रवाह बंद हो जाता है। और कोई नयी बात संभव हो जाती है।
भारत में अभी भी सर्वत्र अनेक लोग इस विधि का अभ्‍यास करते है। लेकिन कठिनाई यह है कि वे अभ्‍यास करते है।
जब कि यह एक अचानक विधि हे। अगर तुम अभ्‍यास करो तो कुछ भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं होगा। अगर मैं तुम्‍हें अचानक इस कमरे से बाहर निकाल फेंकूंगा तो तुम्‍हारे विचार बंद हो जाएंगे।
लेकिन अगर हम रोज-रोज इसका अभ्‍यास करें तो कुछ नहीं होगा। तब वह एक यांत्रिक आदत बन जाएगी।इसलिए अभ्यास मत करो;
जब भी हो सके प्रयोग करो। तो धीरे-धीरे तुम्‍हें अचानक एक आंतरिक आकाश का बोध होगा। वह आंतरिक आकाश तुम्‍हारी चेतना में तभी प्रकट होता है जब तुम मृत्‍यु के कगार पर होते हो।
तब तुम्‍हें लगता है कि अंग में एक क्षण भी नहीं जीऊूंगा। अब मृत्‍यु निकट है; तभी वह सही क्षण आता है।
इसलिए लगे रहो, डरों मत।मृत्‍यु इतनी आसान नहीं है। कम से कम इस विधि को प्रयोग में लाते हुए कोई व्‍यक्‍ति अब तक मरा नहीं है। इसमे अंतर्निहित सुरक्षा के उपाय है, यही कारण है कि तुम नहीं मरोगे।
मृत्‍यु के पहले आदमी बेहोश हो जाता है। इसलिए होश में रहते हुए यह भाव आए कि मैं मर रहा हूं तो डरों मत। तुम अब भी होश में हो, इसलिए मरोगे नहीं।
और अगर तुम बेहोश हो गए तो तुम्‍हारी श्‍वास चलने लगेगी। तब तुम उसे रोक नहीं पाओगे।और
तुम कान के लिए डाट काम में ला सकते हो। आंखों के पट्टी बाँध सकते हो। लेकिन नाक और मुंह के लिए कोई डाट उपयोग नहीं करने है। क्‍योंकि तब वह संघातक हो सकता है।
कम से कम नाक को छोड़ रखना ठीक है। उसे हाथ से ही बंद करो। उस हालत में जब बेहोश होने लगोगे तो हाथ अपने आप ही ढीला हो जाएगा। और श्‍वास वापस आ जाएगी। तो इसमे अंतर्निहित सुरक्षा है।
यह विधि बहुतों के काम की है।

मुस्लिम वशीकरण

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मुस्लिम वशीकरण

सिद्ध वशीकरण मन्त्र
“बिस्मिल्लाह कर बैठिए, बिस्मिल्लाह कर बोल। बिस्मिल्लाह कुञ्जी कुरान की, जो चाहे सो खोल। धरती माता तू बड़ी, तुझसे बड़ा खुदाय। पीर-पैगम्बर औलिया, सब तुझमें रहे समाएँ। डाली से डाली झुकी, झुका झुका फूल-से-फूल। नर बन्दे तू क्यों नहीं झुकता, झुक गए नबी रसूल। गिरा पसीना नूर का, हुआ चमेली फूल। गुन्द-गुन्स लावने मालिनी पहिरे नबी रसूल।”
विधि- बहते पानी के समीप १०१ दाने की माला से प्रातः सायं २१ माला, ४१ दिन तक जपे, ४१वें दिन सायं को हलवा प्रसाद में ले आए। मन्त्र के बाद कुछ हलवा पानी में छोड़ दे और शेष बच्चों में बाँट दे।
जिस पर प्रयोग करना हो, तो मन्त्र को कागज पर केसर-स्याही से लिखे। ‘नर-बन्दे’ के स्थान पर उसका नाम लिखे। मन्त्र को पानी में घोल के साध्य व्यक्ति को पिलावे, तो वशीकरण होगा।

मूलबंध : ब्रह्रम्‍चर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि

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मूलबंध : ब्रह्रम्‍चर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि
जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। लेकिन साधारणत: तुम्‍हारी जीवन-ऊर्जा नीचे की और प्रवाहित हो रही है। इसलिए तुम्‍हारी सब जीवन ऊर्जा अनंत वासना बन जाती है। काम वासना तुम्‍हारा निम्‍नतम चक्र है। तुम्‍हारी ऊर्जा नीचे गिर रही है। और सारी ऊर्जा काम केन्‍द्र पर इकट्ठी हो जाती है। इस लिए तुम्‍हारी सारी शक्ति कामवासना बन जाती है। एक छोटा सा प्रयोग, जब भी तुम्‍हारे मन में कामवासना उठे तो, ड़रो मत शांत होकर बैठ जाऔ। जोर से श्‍वास को बहार फेंको—उच्‍छवास। भीतर मत लो श्‍वास को— क्‍योंकि जैसे भी तुम भीतर गहरी श्‍वास को लोगे, भीतर जाती श्‍वास काम ऊर्जा को नीचे की धकाती है।
जब सारी श्‍वास बहार फिंक जाती है, तो तुम्‍हारा पेट और नाभि‍ वैक्‍यूम हो जाती है, शून्‍य हो जाती है। और जहां कहीं शून्‍य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्‍य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्‍य खींचता है, क्‍योंकि प्रकृति शून्‍य को बरदाश्‍त नहीं करती, शून्‍य को भरती है। तुम्‍हारी नाभि के पास शून्‍य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्‍क्षण नाभि की तरफ अठ जाती है, और तुम्‍हें बड़ा रस मिलेगा—जब तुम पहली दफ़ा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि‍ में उठ गई। तुम पाओगें, सारा तन एक गहन स्‍वास्‍थ्‍य से भर गया। एक ताजगी, ठीक वैसी ही ताजगी का अनुभव करोगे जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है। वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए, तो तुम्‍हें हर्ष का अनुभव होगा। एक प्रफुल्‍लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरू हुआ, तुम ज्‍यादा शक्तिशाली, ज्‍यादा सौमनस्‍यपूर्ण, ज्‍यादा उत्‍फुल्‍ल, सक्रिय, अन-थके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे। जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो, और ताजगी ने घेर लिया है।
इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने सतत साधना बना ली—और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता; तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर स‍कते हो, तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, दफ़तर में काम करते हुए कर सकते हो, कुर्सी पर बैठे हुए, कब तुमने चुपचाप अपने पेट को को भीतर खींच लिया। एक क्षण में ऊर्जा ऊपर की तरफ स्‍फुरण कर जाती है। अगर एक व्‍यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह मैं सुगमंतम मार्ग कह रहा हूँ, जो ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का हो सकता है। फिर और कठिन मार्ग हैं, जिनके लिए सारा जीवन छोड़ कर जाना पड़ेगा। पर कोई जरूरत नहीं है। बस, तुमने एक बात सीख ली कि ऊर्जा कैसे नाभि तक जाए शेष तुम्‍हें चिंता नहीं करनी है। तुम ऊर्जा को, जब भी कामवासना उठे नाभि में इक्ट्ठा करते जाओ। जैसे-जैसे ऊर्जा बढ़ेगी नाभि में, अपने आप ऊपर की तरफ उठने लगेगी। जैसे बर्तन में पानी बढ़ता जाए, तो पानी की सतह ऊपर उठती जाए।
असली बात मूलाधार का बंद हो जाना है। घड़े के नीचे का छेद बंद हो गया, ऊर्जा इकट्ठी होती जाएगी, घड़ा अपने आप भरता जाएगा। एक दिन अचानक पाओगें कि धीरे-धीरे नाभि के ऊपर ऊर्जा आ रही है, तुम्‍हारा ह्रदय एक नई संवेदना से आप्‍लावित हुआ जा रहा है। जिस दिन ह्रदय चक्र पर आएगी तुम्‍हारी ऊर्जा, तुम पाओगें कि तुम भर गये प्रेम से। तुम जहां भी ऊठोगे, बैठोगे, तुम्‍हारे चारों तरफ एक हवा बहने लगेगी प्रेम की। दूसरे लोग भी अनुभव करेंगे कि तुममें कुछ बदल गया है। तुम अब वह नहीं रहे हो, तुम किसी और तरंग पर बैठ गये हो। तुम्‍हारे साथ कोई और लहर भी आती है—कि उदास प्रसन्‍न हो जाते है, कि दुःखी थोड़ी देर को दुःख भूल जाते है, कि अशांत शांत हो जाते है, कि तुम जिसे छू देते हो, उस पर ही एक छोटी सी प्रेम की वर्षा हो जाती है। लेकिन, ह्रदय में ऊर्जा आएगी, तभी यह होगा।
ऊर्जा जब बढ़ेगी, ह्रदय से कंठ में आएगी, तब तुम्‍हारी वाणी में माधुर्य आ जाएगा। तब तुम्‍हारी वाणी में एक संगीत, एक सौंदर्य आ जाएगा। तुम साधारण से शब्‍द बोलोगे और उन शब्‍दों में काव्‍य होगा। तुम दो शब्‍द किसी से कह दोगे और उसे तृप्‍त कर दोगे। तुम चुप भी रहोगे, तो तुम्‍हारे मौन में भी संदेश छिप जाएंगे। तुम न भी बोलोगे तो तुम्‍हारा अस्तित्‍व बोलेगा। ऊर्जा कंठ पर आ गई।
ऊर्जा ऊपर उठती जाती है। एक घड़ी आती है कि तुम्‍हारे नेत्र पर ऊर्जा का आविर्भाव होता है। तब तुम्‍हे पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होता है। तुम अंधे नहीं होते। उससे पहले तुम अंधे हो। क्‍योंकि उसके पहले तुम्‍हें आकार दिखाई पड़ते है, निराकार नहीं दिखाई पड़ता; और वही असली में है। सब आकारों में छिपा है‍ निराकार। आकार तो मूलाधार में बंधी हुई ऊर्जा के कारण दिखाई पड़ते है। अन्‍यथा कोई आकार नहीं है।
मूलाधार अंधा चक्र है। इस लिए तो कामवासना को अंधी कहते है। वह अंधी है। उसके पास आँख बिलकुल नहीं है। आँख तो खुलती है—तुम्‍हारी असली आँख, जब तीसरे नेत्र पर ऊर्जा आकर प्रकट होती है। जब लहरे तीसरे नेत्र को छूने लगती हैं। तीसरे नेत्र के किनारे पर जब तुम्‍हारी ऊर्जा की लहरे आकर टकराने लगती है, पहले दफ़ा तुम्‍हारे भीतर दर्शन की क्षमता जागती है। दर्शन की क्षमता, विचार की क्षमता का नाम नहीं है। दर्शन की क्षमता देखने की क्षमता है। वह साक्षात्‍कार है। जब बुद्ध कुछ कहते है, तो देख कर कहते है। वह उनका अपना अनुभव है। अनानुभूत शब्‍दों का क्‍या अर्थ है ? केवल अनुभूत शब्‍दों में सार्थकता होती है।
ऊर्जा जब तीसरी आँख में प्रवेश करती है। तो अनुभव शुरू होता है, और ऐसे व्‍यक्ति के वचनों में तर्क का बल नहीं होता, सत्‍य का बल होता है। ऐसे व्‍यक्ति के वचनों में एक प्रामाणिकता होती है, जो वचनों के भीतर से आती है। किन्‍हीं बाह्रा प्रमाणों के आधार पर नहीं। ऐसे व्‍यक्ति के वचन को ही हम शास्‍त्र कहते है। ऐसे व्‍यक्ति के वचन वेद बन जाते है। जिसने जाना है, जिसने परमात्‍मा को चखा है, जिसने पीया है, जिसने परमात्‍मा को पचाया है, जो परमात्‍मा के साथ एक हो गया है।
फिर ऊर्जा और ऊपर जाती है। सहस्‍त्रार को छूती है। पहला सबसे नीचा केंद्र मूलाधार चक्र है, मूलबंध, और अंतिम चक्र है, सहस्‍त्रार। क्‍योंकि वह ऐसा है, जैसे सहस्‍त्र पंखुडि़यों वाला कमल। बड़ा सुंदर है, और जब खिलता है तो भीतर ऐसी ही प्रतीति होती है, जैसे पूरा व्‍यक्तित्‍व सहस्‍त्र पंखूडि़यों वाला कमल हो गया है। पूरा व्‍यक्तित्‍व खिल गया ।
जब ऊर्जा टकराती है सहस्‍त्र से, तो उसकी पंखुडि़यां खिलनी शुरू हो जाती है। सहस्‍त्रार के खिलते ही व्‍यक्तित्‍व से आनंद का झरना बहने लगता है। मीरा उसी क्षण नाचने लगती है। उसी क्षण चैतन्‍य महाप्रभु उन्‍मुक्‍त हो नाच उठते है। चेतना तो प्रसन्‍न होती ही है, रोआं-रोआं शरीर का आन्ंदित हो उठता है। आनंद की लहर ऐसी बहती है कि मुर्दा भी—शरीर तो मुर्दा है—वह भी नाचते लगता है।