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Saturday, 12 May 2018

बुद्तत्व की प्राप्ति

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बुद्तत्व की प्राप्ति

   ॐ ॐ   ध्यान योग  ॐ ॐ
‘’मन को भूलकर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’
यह सूत्र इतना ही है।
किसी भी वैज्ञानिक सूत्र की तरह यह छोटा है, लेकिन ये थोड़ से शब्‍द भी तुम्‍हारे जीवन को समग्ररतः: बदल सकते है।
‘’मन को भूल कर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’‘’मध्‍य में रहो।‘’—
बुद्ध ने अपने ध्‍यान की विधि इसी सूत्र के आधार पर विकसित की। उनका मार्ग मज्झम निकाय या मध्‍य मार्ग कहलाता है। बुद्ध कहते है, सदा मध्‍य में रहो, प्रत्‍येक चीज में।
एक बार राजकुमार श्रोण दीक्षित हुआ, बुद्ध ने उसे सन्‍यास में दीक्षित किया। वह राजकुमार अद्भुत व्‍यक्‍ति था। और जब वह संन्‍यास में दीक्षित हुआ तो सारा राज्‍य चकित रह गया। लोगों को यकीन नहीं हुआ कि राजकुमार श्रोण संन्‍यासी हो गया। किसी ने स्‍वप्‍न में भी नहीं सोचा था। क्‍योंकि श्रोण पूरा सांसारिक था। भोग-विलास में सर्वथा लिप्‍त रहता था। सारा दिन सूरा और सुंदरी ही उसका संसार थी।तभी अचानक एक दिन बुद्ध उसके नगर में आए। राजकुमार श्रोण उनके दर्शन को गया। वह बुद्ध के चरणों में गिरा और बोला कि मुझे दीक्षित कर लें, मैं संसार छोड़ दूँगा।जो लोग उसके साथ आए थे उन्‍हें भी इसकी खबर नहीं थी। ऐसी अचानक घटना थी यह। उन्‍होंने बुद्ध से पूछा कि यह क्‍या हो रहा है। यह तो चमत्‍कार है। श्रोण उस कोटि का व्‍यक्‍ति नहीं है। वह तो भोग विलास में रहा है। यह तो चमत्‍कार है। हमने तो कल्‍पना भी नहीं की थी कि श्रोण संन्‍यासी होगा। यह क्‍या हो रहा है। आपने कुछ कर दिया है।
बुद्ध ने कहा कि मैंने कुछ नहीं किया है। मन एक अति से दूसरी अति पर जा सकता है। वह मन का ढंग है। एक अति से दूसरी अति पर जाना।
श्रोण कुछ नया नहीं कर रहा है। यह होना ही था। क्‍योंकि तुम मन के नियम नहीं जानते, इसलिए तुम चकित हो रहे हो।मन एक अति से दूसरी अति पर गति करता रहता है। मन का यही ढंग है। यह रोज-रोज होता है।
जो आदमी धन के पीछे पागल था वह अचानक सब कुछ छोड़कर नंगा फकीर हो जाता है। हम सोचते है कि चमत्‍कार हो गया। लेकिन यह सामान्‍य नियम के सिवाय कुछ नहीं है। जो आदमी धन के पीछे पागल नहीं है। उसके यह उपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह त्‍याग करेगा। क्‍योंकि तुम एक अति से ही दूसरी अति पर जा सकेत हो। वैसे ही जैसे घड़ी का पैंडुलम एक अति से दूसरी अति पर डोलता रहता है।इसलिए जो आदमी धन के लिए पागल था वह पागल होकर धन के खिलाफ जाएगा। लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा। वही मन है।
जो आदमी कामवासना के लिए जीता था वह ब्रह्मचारी हो जा सकता है। एकांत में चला जा सकता है। लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा। पहले वह कामवासना के लिए जीता था अब वह कामवासना के खिलाफ होकर जिएगा। लेकिन उसका रूख उसकी दृष्‍टि वहीं की वहीं रहेगी। इसलिए ब्रह्मचारी सच में कामवासना के पार नहीं गया है। उसका पूरा चित काम-वासना प्रधान हे। वह सिर्फ विरूद्ध हो गया है। उसने काम का अतिक्रमण नहीं किया है। अतिक्रमण का मार्ग सदा मध्य में है। वह कभी अति में नहीं है।तो बुद्ध ने कहा कि यह होना ही था। यह कोई चमत्‍कार नहीं है। मन ऐसे ही व्‍यवहार करता है।श्रोण भिक्‍खु बन गया, संन्‍यासी हो गया।
शीध्र ही बुद्ध के दूसरे शिष्‍यों ने देखा कि वह दूसरी अति पर जा रहा था। बुद्ध ने किसी को नग्‍न रहने को नहीं कहा था, लेकिन श्रोण नग्‍न रहने लगा। बुद्ध नग्‍नता के पक्ष में नहीं थे। उन्‍होंने कहा कि यह दूसरी अति है। लोग है जो कपड़ों के लिए ही जीते है, मानों वही उनका जीवन हो। और ऐसे लोग भी है जो नग्‍न हो जाते है। लेकिन दोनों वस्‍त्रों में विश्‍वास करते है।बुद्ध ने कभी नग्‍नता की शिक्षा नहीं दी। लेकिन श्रोण नग्‍न हो गया। वह बुद्ध का अकेला शिष्‍य था जो नग्‍न हुआ। श्रोण आत्‍म उत्‍पीड़न में भी गहरे अतर गया।
बुद्ध ने अपने संन्‍यासियों को दिन में एक बार भोजन की व्‍यवस्‍था दी थी। लेकिन श्रोण दो दिनों में एक बार भोजन लेने लगा। वह बहुत दुर्बल हो गया। दूसरे भिक्षु पेड़ की छाया में ध्‍यान करते। लेकिन श्रोण कभी छाया में नहीं बैठता था। वह सदा कड़ी घूप में रहता था। वह बहुत सुंदर आदमी था, उसकी देह बहुत सुंदर थी। लेकिन छह महीने के भीतर पहचानना मुश्‍किल हो गया कि यह वही आदमी है। वह कुरूप, काला, झुलसा-झुलसा दिखने लगा।
एक रात बुद्ध श्रोण के पास गए और उससे बोले: श्रोण मैंने सूना है कि जब तुम राजकुमार थे, तब तुम्‍हें वीणा बजाने का शोक था। और तुम एक कुशल वीणावादक और बड़े संगीतज्ञ थे। तो मैं तुमसे एक प्रश्‍न पूछने आया हूं। अगर वीणा के तार बहुत ढीले हो तो क्‍या होता है?
अगर तार ढीले होंगे तो कोई संगीत संभव नहीं है।और फिर बुद्ध ने पूछा कि अगर तार बहुत कसे हों तो क्‍या होगा? श्रोण ने कहा कि तब भी संगीत नहीं पैदा होगा। तारों को मध्‍य में होना चाहिए। वे न ढीले हो और न कसे हुए, ठीक मध्‍य में हो। और श्रोण ने कहा कि वीणा बजाना तो आसान है। लेकिन एक परम संगीतज्ञ ही तारों को मध्‍य में रख सकता है।
तो बुद्ध ने कहा कि छह महीनों तक तुम्‍हारा निरीक्षण करने के बाद मैं तुमसे यही कहने आया हूं, कि जीवन में भी संगीत तभी जन्‍मता है जब उसके तार न ढीले हो और न कसे हुए ठीक मध्‍य में हों। इसलिए त्‍याग करना आसान है, लेकिन परम कुशल ही मध्‍य में रहना जानता है।
इसलिए श्रोण, कुशल बनो और जीवन के तारों को मध्‍य में, ठीक मध्‍यम में रखो। इस या उस अति पर मत जाओ। और प्रत्‍येक चीज के दो छोर है, दो अतियां है। लेकिन तुम्‍हें सदा मध्‍य में रहना है।
लेकिन मन बहुत बेहोश है। इसलिए सूत्र में कहा गया है
‘’मन को भूलकर।‘’
तुम यह बात सुन भी लोगे, तुम इसे समझ भी लोगे, लेकिन मन उसको नहीं ग्रहण करेगा। मन सदा अतियों को चुनता है। मन में अतियों के लिए बड़ा आकर्षण है। मोह है। क्‍यों?
क्‍योंकि मध्‍य में मन की मृत्‍यु हो जाती है।घड़ी के पैंडुलम को देखो। अगर तुम्‍हारे पास कोई पुरानी घड़ी हो तो उसके पैंडुलम को देखो। पैंडुलम सारा दिन चलता रहता है। यदि वह अतियों तक आता जाता रहे। जब वह बांए जाता है तब दांए जाने के लिए शक्‍ति अर्जित कर रहा है। जब वह दांए जा रहा है तो मत सोचो की वह दांए जा रहा है। वह बांए जाने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहा है। अतियां ही दांए-बांए है। पैंडुलम को बीच में ठहरने दो और सब गति बंद कर दो, तब पैंडुलम में उर्जा नहीं रहेगी। क्‍योंकि उर्जा तो एक अति से आ रही थी। एक अति से दूसरी अति उसे दूसरी अति की और फेंकती है। उससे एक वर्तुल बनता है। और पैंडुलम गतिमान होता है। उसको बीच में होने दो और तब सब गति ठहर जाएगी।
मन पैंडुलम की भांति है। और अगर तुम इसका निरीक्षण करो तो रोज ही इसका पता चलेगा। तुम एक अति के पक्ष में निर्णय लेते हो और तब तुम दूसरी अति की और जाने लगते हो।
तुम अभी क्रोध करते हो, फिर पश्‍चाताप करते हो।
तुम कहते हो, नहीं, बहुत हुआ, अब मैं कभी क्रोध न करूंगा। लेकिन तुम कभी अति को नहीं देखते।
यह ….‘’कभी नहीं’’ …अति है। तुम कैसे निशचित हो सकते हो कि तुम कभी नहीं क्रोध करोगे। तुम कह क्‍या रहे है? एक बार और सोचो। कभी नहीं? अतीत में जाओ और याद करो कि कितनी बार तुमने निश्‍चय किया है। कि मैं कभी क्रोध नहीं करूंगा। जब तुम कहते हो कि मैं कभी क्रोध नहीं करूंगा। तो तुम नहीं जानते हो कि क्रोध करते समय। ही तुमने दूसरे छोर पर जाने की ऊर्जा इकट्ठी कर ली थी।
अब तुम पश्‍चाताप कर रहे हो। अब तुम्‍हें बुरा लग रहा है। तुम्‍हारी आत्‍म छवि हिल गई है। गिर गई है। अब तुम नहीं कह सकते कि मैं अच्‍छा आदमी हूं। धार्मिक आदमी हूं। मैंने क्रोध किया और धार्मिक व्‍यक्‍ति क्रोध नहीं करता। है। अच्‍छा आदमी क्रोध कैसे करेगा? तो तुम अपनी अच्‍छाई को वापस पाने के लिए पश्‍चाताप करते हो। कम से कम अपनी नजर में तुम्‍हें लगेगा कि मैंने पश्‍चाताप कर लिया, चैन हो गया और अब फिर क्रोध नहीं होगा। इससे तुम्‍हारी हिली हुई आत्‍म-छवि पुरानी अवस्‍था में लौट आएगी।
अब तुम चैन महसूस करोगे। क्‍योंकि अब तुम दूसरी अति पर चले गए।
लेकिन जो मन कहता है कि अब मैं फिर कभी क्रोध नहीं करूंगा। वह फिर क्रोध करेगा। अब जब तुम फिर क्रोध में होगें तो तुम अपने पश्‍चाताप को, अपने निर्णय को, सब को बिलकुल भूल जाओगे। और क्रोध के बाद फिर वह निर्णय लौटेगा। और पश्‍चाताप वापस आएगा। और तुम कभी उसके धोखे को नहीं समझ पाओगे।
ऐसा सदा हुआ है। मन क्रोध से पश्‍चाताप और पश्‍चाताप से क्रोध के बीच डोलता रहता है।बीच में रहो। न क्रोध करो, न पश्‍चाताप करो।
और अगर क्रोध कर गए तो कृपा कर क्रोध ही करो। पश्‍चाताप मत करो। दूसरी अति पर मत जाओ। बीच में रहो।
कहो कि मैंने क्रोध किया है। मैं बुरा आदमी हूं। हिंसक हूं। मैं ऐसा ही हूं। लेकिन पश्‍चाताप मत करो। दूसरी अति पर मत जाओ। मध्‍य में रहो। और अगर तुम मध्‍य में रह सके तो फिर तुम क्रोध करने के लिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं कर पाओगे।
इसलिए यह सूत्र कहता है: ‘’मन को भूलकर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’
इस ‘’जब तक’’ का क्‍या मतलब है? मतलब यह है कि जब तक तुम्‍हारा विस्‍फोट न हो जाए।
मतलब यह है कि तब तक मध्‍य में रहो जब तक मन की मृत्‍यु न हो जाए। तब तक मध्‍य में रहो
जब तक मन…. अ-मन न हो जाए। अगर मन अति पर है तो अ-मन मध्‍य में होगा।लेकिन मध्‍य में होना संसार में सबसे कठिन काम है। दिखता तो सरल है। दिखता तो यह आसान है। तुम्‍हें लगेगा कि मैं कर सकता हूं, और तुम्‍हें यह सोचकर लगेगा कि पश्‍चाताप की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन प्रयोग करो। और तब तुम्‍हें पता चलेगा। कि जब क्रोध करोगे तो मन पश्‍चाताप करने पर जोर देगा।
पति-पत्‍नियों का झगड़ा सदा से चलता आया है। और सदियों से महापुरुष और सलाहकार समझा रहे है कि कैसे रहें और प्रेम करें। और यह झगड़ा जारी है।
पहली बार फ्रायड को इस तथ्‍य को बोध हुआ। कि जब भी तुम प्रेम, तथाकथित प्रेम में होओगे। तुम्‍हें धृणा में भी होना पड़ेगा। सुबह प्रेम करोगे और श्‍याम घृणा करोगे। और इस तरह पैंडुलम हिलता रहेगा। प्रत्‍येक पति-पत्‍नी को इसका पता है।
लेकिन फ्रायड की अनंतदृष्टि बड़ी अद्भुत है। वह कहता है कि अगर किसी दंपति ने झगड़ा बंद कर दिया है तो समझो कि उनका प्रेम मर गया। घृणा और लड़ाई। के साथ जो प्रेम है, वह मर गया।
अगर किसी जोड़े का तुम देखो कि वह कभी लड़ता नहीं है तो यह मत समझो कि यह आदर्श जोड़ा है। उसका इतना ही अर्थ है कि यह जोड़ा ही नहीं है। वे समांतर रह रहे है। लेकिर साथ-साथ नहीं रहते। वे समांतर रेखाएं है। जो कहीं नहीं मिलती। लड़ने के लिए भी नहीं।
वे दोनों साथ रहकर भी अकेले-अकेले है—अकेले-अकेले और समांतर।
मन विपरीत पर गति करता है। इसलिए अब मनोविज्ञान के पास दंपतियों के लिए बेहतर निदान है—बेहतर और गहरा। वह कहता है। कि अगर तुम सचमुच प्रेम-इसी मन के साथ—करना चाहते हो तो लड़ने झगड़ने से मत डरों। सच तो यह है कि तुम्‍हें प्रामाणिक ढंग से लड़ना चाहिए। ताकि तुम प्रामाणिक प्रेम के दूसरे छोर को प्राप्‍त कर सको। इसलिए अगर तुम अपनी पत्‍नी के लड़ रहे हो तो लड़ने से चूको मत। अन्यथा प्रेम से भी चूक जाओगे। झगड़े से बचो मत। उसका मौका आए तो अंत तक लड़ों। तभी संध्‍या आते-आते तुम फिर प्रेम करने योग्‍य हो जाओगे। मन तब तक शक्‍ति जुटा लेगा।सामान्‍य प्रेम संघर्ष के बिना नहीं जी सकता। क्‍योंकि उसमे मन की गति संलग्‍न है। सिर्फ वही प्रेम संघर्ष के बिना जिएगा जो कि मन का नहीं है। लेकिन वह बात ही और है। बुद्ध का प्रेम और ही बात है।लेकिन अगर बुद्ध तुम्‍हें प्रेम करें तो तुम बहुत अच्‍छा नहीं महसूस करोगे। क्‍यों? क्‍योंकि उसमें कुछ दोष नहीं रहेगा। वह मीठा ही मीठा होगा। और उबाऊ होगा। क्‍योंकि दोष तो झगड़े से आता है।
बुद्ध क्रोध नहीं कर सकते। वे केवल प्रेम कर सकते है। तुम्‍हें उनका प्रेम पता नहीं चलेगा। क्‍योंकि पता तो विरोध में विपरीतता में चलता है।
जब बुद्ध बारह वर्षों के बाद अपने नगर वापस आए तो उनकी पत्‍नी उनके स्‍वागत को नहीं आई।
सारा नगर उनके स्‍वागत के लिए इकट्ठा हो गया, लेकिन उनकी पत्‍नी नहीं आई। बुद्ध हंसे। और उन्‍होंने अपने मुख्‍य शिष्‍य आनंद से कहा कि यशोधरा नहीं आई, मैं उसे भली-भांति जानता हूं। ऐसा लगता है कि वह मुझे अभी भी प्रेम करती है। वह मानिनी है, वह आहत अनुभव कर रही है। मैं तो सोचता था बारह वर्ष का लम्‍बा समय है, वह अब प्रेम में न होगी। लेकिन मालूम होता है कि यह अब भी प्रेम में है। अब भी क्रोध में है। वह मुझे लेने नहीं आई, मुझे ही उसके पास जाना होगा।और बुद्ध गए। आनंद भी उनके साथ था। आनंद को एक वचन दिया हुआ था। जब आनंद ने दीक्षा ली थी तो उसने एक शर्त रखी—और बुद्ध ने मान ली। कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा। वह बुद्ध का बड़ा चचेरा भाई था।
इसलिए उन्‍हें मानना पडा था। सो आनंद राजमहल तक उनके साथ गया। वहां बुद्ध ने उनसे कहां। कि कम से कम यहां तुम मेरे साथ मत चलो। क्‍योंकि यशोधरा बहुत नाराज होगी। मैं बारह वर्षों के बाद लौट रहा हूं। और उसे खबर किए बिना यहाँ से चला गया था। वह अब भी नाराज है। तो तुम मेरे साथ मत चलो, अन्‍यथा वह समझेगा कि मैंने उसे कुछ कहने का भी अवसर नहीं दिया।
वह बहुत कुछ कहना चाहती होगी। तो उसे क्रोध कर लेने दो, तुम कृपा इस बार मेरे साथ मत आओ।बुद्ध भीतर गए। यशोधरा ज्‍वालामुखी बनी बैठी थी। वह फूट पड़ी। वह रोने चिल्‍लाने लगी। बकने लगी, बुद्ध चुपचाप बैठे सुनते रहे। धीरे-धीरे वह शांत हुई और तब वह समझी कि उस बीच बुद्ध एक शब्‍द भी नहीं बोले। उसने अपनी आंखें पोंछी और बुद्ध की और देखा।
बुद्ध ने कहा कि मैं यह कहने आया हूं कि मुझे कुछ मिला है, मैंने कुछ जाना है। मैंने कुछ उपल्‍बध किया है। अगर तुम शांत होओ तो मैं तुम्‍हें वह संदेश, वह सत्‍य दूँ, जो मुझे उपलब्‍ध हुआ है। मैं इतनी देर इसलिए रुका रहा कि तुम्‍हारा रेचन हो जाए। बारह साल लंबा समय है। तुमने बहुत घाव इकट्ठे किए होंगे। और तुम्‍हारा क्रोध समझने योग्‍य है। मुझे इसकी प्रतीक्षा थी।
उसका अर्थ है कि तुम अब भी मुझे प्रेम करती हो। लेकिन इस प्रेम के पार भी एक प्रेम है, और उसी प्रेम के कारण मैं तुम्‍हें कुछ कहने वापस आया हूं।लेकिन यशोधरा उस प्रेम को नहीं समझ सकी। इसे समझना कठिन है। क्‍योंकि यह इतना शांत है। यह प्रेम इतना शांत है। कि अनुपस्‍थित सा लगता है।
जब मन विसर्जित होता है तो एक और ही प्रेम घटित होता है। लेकिन उस प्रेम का कोई विपरीत पक्ष नहीं है। विरोधी पक्ष नहीं है। जब मन विसर्जित होता है तब जो भी घटित होता है उसका विपरीत पक्ष नहीं रहता। मन के साथ सदा उसका विपरीत खड़ा रहता है। और मन एक पैंडुलम की भांति गति करता है।
यह सूत्र अद्भुत है। उससे चमत्‍कार घटित हो सकता है।
‘’मन को भूलकर मध्‍य में रहो—जब तक।‘’
इस प्रयोग में लाओ। और यह सूत्र तुम्‍हारे पूरे जीवन के लिए है। ऐस नहीं है कि उसका अभ्‍यास यदा-कदा किया और बात खत्‍म हो गई। तुम्‍हें निरंतर इसका बोध रखना होगा। होश रखना होगा। काम करते हुए चलते हुए, भोजन करते हुए। संबंधों में, सर्वत्र मध्‍य में रहो। प्रयोग करके देखो और तुम देखोगें कि एक मौन, एक शांति तुम्‍हें घेरने लगी है और तुम्‍हारे भीतर एक शांत केंद्र निर्मित हो रहा है।अगर ठीक मध्‍य में होने में सफल न हो सको तो भी मध्‍य में होने की कोशिश करो। धीरे-धीरे तुम्‍हें मध्‍य की अनुभूति होने लगेगी। जो भी हो, घृणा या प्रेम, क्रोध या पश्‍चाताप, सदा ध्रुवीय विपरीतताओं को ध्‍यान में रखो और उनके बीच मे रहो।
और देर अबेर तुम ठीक मध्‍य को पा लोगे।और एक बार तुमने इसे जान लिया तो फिर तुम उसे नहीं भूलोगे। क्‍योंकि मध्‍य बिंदू मन के पार है। और वह मध्‍य बिंदु अध्‍यात्‍म का सार सूत्र है।

शाबर मोहिनी बशिकरण अनुभूत

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मोहिनी वशीकरण शाबर मंत्र :
तेल तेल महा तेल! देखूं री मोहिनी तेरा खेल,
लौंग लौंगा लौंगा,बैर एक लौंग मेरी आती पाती ,दूसरी लौंग दिखाए छाती,
रूठी को मना लाए ,बैठी को उठा लाए ,सोती को जगा लाए ,चलती फिरती को लेवा लाए,
आकास की जोगनी,पताल का सिद्व ,
””जिसको वश में करना हो”” को लाग लाग री मोहिनी ,
तुझे भैरों की आन!!!
प्रयोग विधि:
यह वशीकरण मोहिनी शाबर प्रयोग है!आपको बस इतना करना है की किसी भी रविवार से इस प्रयोग को शुरू करें!रात 12 बजे यह प्रयोग करें!दिशा उत्तर और आसन लाल रंग का उत्तम है!दो साबुत फूलवाली लौंग अपने पास रखें !गूगल या लौबान की अगरबत्ती जलाएं और दीया सरसों के तेल का जलाएं !अपने पास पांच रंग की मिठाई और पांच गुलाब के फूल रखें!रोजाना 41 बार यह मंत्र पढ़े और जहाँ ””जिसको वश में करना हो”” लिखा हैं वहां जिसको वश में करना हो उसका नाम लें फिर दोनों लौंग पर फूंक मारें!ऐसा आपको 7 दिनों तक करना हैं!हर दिन 41 बार मंत्र को जप कर उन्ही लौंगो पर फूंक मारनी हैं!आपको रोज़ नए गुलाब के पांच फूल और नयी पांच रंग की मिठाई रखनी होगी!अब जब 7 दिन हो जाए तो आप उन दोनों लौंगो को अपने पास संभाल कर रख लें और जिसके नाम से यह मंत्र आपने पढ़ा हैं उसकी पीठ पर मारें!बसआपका काम हो जाएगा !प्रयोग के बाद मिठाई और फूल किसी नदी में परवाह कर दें !

तीसरी आँख को पाने की सरलतम विधि

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‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्‍थान सर्वग्राही हो जाता है।‘’
यह एक पुरानी से पुरानी विधि है और इसका प्रयोग भी बहुत हुआ है। यह सरलतम विधियों में एक है।
सिर के सभी द्वारों को, आँख, कान, नाक, मुंह, सबको बंद कर दो। जब सिर के सब द्वार दरवाजे बंद हो जाते है तो तुम्‍हारी चेतना तो सतत बहार बह रही है। एकाएक रूक जाती है। ठहर जाती है। वह अब बाहर नहीं जा सकती।
तुमने ख्‍याल नहीं किया कि अगर तुम क्षण भर के लिए श्‍वास लेना बंद कर दो तो तुम्‍हारा मन भी ठहर जाता है। क्‍यों? क्‍योंकि श्‍वास के साथ मन चलता है। वह मन का एक संस्‍कार है।
तुम्‍हें समझना चाहिए कि यह संस्‍कार क्‍या है। तभी इस सूत्र को समझना आसान होगा।
रूस के अति प्रसिद्ध मानस्‍विद पावलफ ने संस्‍कारजनित प्रतिक्रिया को, कंडीशंड रिफ्लेक्‍स को दुनियाभर में आम बोलचाल में शामिल करा दिया है। जो व्‍यक्‍ति भी मनोविज्ञान से जरा भी परिचित है, इस शब्‍द को जानता है। विचार की दो श्रृंखलाएं कोई भी दो श्रृंखलाएं इस तरह एक दूसरे से जुड़ सी जाती है। कि अगर तुम उनमें से एक को चलाओ तो दूसरी अपने आप शुरू हो जाती है।
पावलफ ने एक कुत्‍ते पर प्रयोग किया। उसने देखा कि तुम अगर कुत्‍ते के सामने खाना रख दो वक उसकी जीभ से लार बहने लगती है। जीभ बहार निकल आती है। और वह भोजन के लिए तैयार हो जाता है। कुत्‍ता जब भोजन देखता है या उसकी कल्‍पना करता है तो लार बहने लगती है। लेकिन
पावलफ ने इस प्रक्रिया के साथ दूसरी बात जोड़ दी। जब भी भोजन रखा जाए और कुत्‍ते की लार टपकने लगे। वह दूसरी चीज करता; उदाहरण के लिए, वह एक घंटी बजाता और कुत्‍ता उस घंटी को सुनता।पंद्रह दिन तक जब भी भोजन रखा जाता, घंटी भी बजती। और तब सोलहवें दिन कुत्‍ते के सामने भोजन नहीं रखा गया, केवल घंटी बजाईं गई। लेकिन तब भी कुत्‍ते के मुहँ से लार बहने लगी। और जीभ बाहर आ गई, मानो भोजन सामने रखा हो।वहां भोजन नहीं था, सिर्फ घंटी थी। अब घंटी बजने और लार टपकने के बीच कोई स्‍वाभाविक संबंध नहीं था। लार का स्‍वाभाविक संबंध भोजन के साथ है। लेकिन अब घंटी का रोज-रोज बजना लार के साथ जुड़ गया था, संबंधित हो गया था। और इसलिए मात्र घंटी के बजने पर भी लार बहने लगी।पावलफ के अनुसार—और पावलफ सही है—हमारा समूचा जीवन एक कंडीशंड प्रोसेस है।
मन संस्‍कार है। इसलिए अगर तुम उस संस्‍कार के भीतर कोई एक चीज बंद कर दो तो उससे जूड़ी और सारी चीजें भी बंद हो जाती है।
उदाहरण के लिए विचार और श्‍वास है। विचारणा सदा ही श्‍वास के साथ चलती है। तुम बिना श्‍वास विचार नहीं कर सकते। तुम श्‍वास के प्रति सजग नहीं रहते, लेकिन श्‍वास सतत चलती रहती है। दिन-रात चलती रहती है। और प्रत्‍येक विचार, विचार की प्रक्रिया ही श्‍वास की प्रक्रिया से जुड़ी है। इसलिए अगर तुम अचानक अपनी श्‍वास रोक लो तो विचार भी रूक जाएगा।वैसे ही अगर सिर के सातों छिद्र, उसके सातों द्वार बंद कर दिए जाएं तो तुम्‍हारी चेतना अचानक गति करना बंद कर देगी। तब चेतना भीतर थिर हो जाती है। और उसका यह भीतर थिर होना तुम्‍हारी आंखों के बीच के बीच स्‍थान बना देता है। वह स्‍थान ही त्रिनेत्र, तीसरी आँख कहलाती है।
अगर सिर के सभी द्वार बंद कर दिये जाये तो तुम बाहर गति नहीं कर सकते। क्‍योंकि तुम सदा इन्‍हीं द्वारों से बाहर जाते रहे हो। तब तुम भीतर थिर हो जाते हो। और वह थिर होना, एकाग्र इन दो आंखों, साधारण आंखों के बीच घटित होता है। चेतना इन दो आंखों के बीच के स्‍थान पर केंद्रित हो जाती है। उस स्‍थान को ही त्रिनेत्र कहते है।
यह स्‍थान सर्वग्राही सर्वव्‍यापक हो जाता है। यह सूत्र कहता है कि इस स्‍थान में सब सम्‍मिलित है सारा आस्‍तित्‍व समाया है। अगर तुम इस स्‍थान को अनुभव कर लो तो तुमने सब को अनुभव कर लिया।
एक बार तुम्‍हें इन दो आंखों के बीच के आकाश की प्रतीति हो गई तो तुमने पूरे अस्‍तित्‍व को जाने लिया, उसकी समग्रता को जान लिया, क्‍योंकि यह आंतरिक आकाश सर्वग्राही है, सर्वव्‍यापक है, कुछ भी उसके बाहर नहीं है।
उपनिषाद कहते है:
‘’एक को जानकर सब जान लिया जाता है।‘’
ये दो आंखें तो सीमित को ही देख सकती है; तीसरी आँख असीम को देखती है। ये दो आंखे तो पदार्थ को ही देख सकती है; तीसरी आँख अपदार्थ को, अध्‍यात्‍म को देखती है। इन दो आंखों से तुम कभी ऊर्जा की प्रतीति नहीं कर सकते , ऊर्जा को नहीं देख सकते, सिर्फ पदार्थ को देख सकते हो। लेकिन तीसरी आँख से स्‍वयं ऊर्जा देखी जाती है।द्वारों का बंद किया जाना केंद्रित होने का उपाय है। क्‍योंकि एक बार जब चेतना के प्रवाह का बाहर जाना रूक जाता है। वह अपने उदगम पर थिर हो जाती है। और चेतना का यह उदगम ही त्रिनेत्र है।
अगर तुम इस त्रिनेत्र पर केंद्रित हो जाओ तो बहुत चीजें घटित होती है। पहली चीज तो यह पता चलती है कि सारा संसार तुम्‍हारे भीतर है।स्‍वामी राम कहा करते थे कि सूर्य मेरे भीतर चलता है। तारे मेरे भीतर चलते है, चाँद मेरे भीतर उदित होता है; सारा ब्रह्मांड मेरे भीतर है। जब उन्‍होंने पहली बार यह कहा तो उनके शिष्‍यों कि वे पागल हो गए है। राम तीर्थ के भीतर सितारे कैसे हो सकते है।वे इसी त्रिनेत्र की बात कर रहे थे। इसी आंतरिक आकाश के संबंध में। जब पहली बार यह आंतरिक आकाश उपलब्‍ध होता है तो यही भाव होता है। जब तुम देखते हो कि सब कुछ तुम्‍हारे भी तर है तब तुम ब्रह्मांड ही हो जाते हो।
त्रिनेत्र तुम्‍हारे भौतिक शरीर का हिस्‍सा नहीं है। वह तुम्‍हारे भौतिक शरीर का अंग नहीं है। तुम्‍हारी आंखों के बीच का स्‍थान तुम्‍हारे शरी तक ही सीमित नहीं है। वह तो वह अनंत आकाश है जो तुम्‍हारे भीतर प्रवेश कर गया है। और एक बार यह आकाश जान लिया जाए तो तुम फिर वही व्‍यक्‍ति नहीं रहते। जिस क्षण तुमने इस अंतरस्‍थ आकाश को जान लिया उसी क्षण तुमने अमृत को जान लिया तब कोई मृत्‍यु नहीं है।जब तुम पहली बार इस आकाश को जानोंगे, तुम्‍हारा जीवन प्रामाणिक और प्रगाढ़ हो जाएगा; तब पहली बार तुम सच में जीवंत होओगे। तब किसी सुरक्षा की जरूरत नहीं रहेगी। अब कोई भय संभव नहीं है। अब तुम्‍हारी हत्‍या नहीं हो सकती। अब तुमसे कुछ भी छीना नहीं जा सकता।
अब सारा ब्रह्मांड तुम्‍हारा है, तुम ही ब्रह्मांड हो। जिन लोगों ने इस अंतरस्‍थ आकाश को जाना है उन्‍होंने ही
आनंदमग्‍न होकर उरदघोषणा की है: अहं ब्रह्मास्‍मि। मैं ही ब्रह्मांड हूं, मैं ही ब्रह्मा हूं……..।
सूफी संत मंसूर को इसी तीसरी आँख के अनुभव के कारण कत्‍ल कर दिया गया। जब उसने पहली बार इस आंतरिक आकाश को जाना, वह चिल्‍लाकर कहने लगा:
अनलहक़, मैं ही परमात्‍मा हूं,
भारत में वह पूजा जाता। क्‍योंकि भारत ने ऐसे अनेक लोग देखे है जिन्‍हें इस तीसरी आँख आंतरिक आकाश का बोध हुआ। लेकिन मुसलमानों के देश में यह बात कठिन हो गई। और मंसूर का यह वक्‍तव्‍य कि मैं परमात्‍मा हूं, अनलहक़, अहं ब्रह्मास्‍मि, धर्मविरोधी मालूम हुआ। क्‍योंकि
मुसलमान यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्‍य और परमात्‍मा एक है।
मनुष्‍य–मनुष्‍य है। मनुष्‍य सृष्‍टि है, और परमात्‍मा सृष्‍टा। सृष्टि स्‍त्रष्‍टा कैसे हो सकता है।
इस लिए मंसूर का यह वक्‍तव्‍य नहीं समझा जा सका। और उसकी हत्‍या कर दी गई।
लेकिन जब उसको कत्‍ल किया जा रहा था तब वह हंस रहा था। तो किसी ने पूछा कि हंस क्‍यों रहे हो। मंसूर। कहते है कि मंसूर ने कहा मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम मुझे नहीं मार रहे हो। तुम मेरी हत्‍या नहीं कर सकते। तुम्‍हें मेरे शरीर से धोखा हुआ है। लेकिन मैं शरीर नहीं हूं। मैं इस ब्रह्मांड को बनाने वाला हूं; यह मेरी अंगुलि थी जिसने आरंभ में समूचे ब्रह्मांड को चलाया था।
भारत में मंसूर आसानी से समझा जाता, सदियों-सदियों से यह भाषा जानी पहचानी है। हम जानते हे कि एक घड़ी आती है जब यह आंतरिक आकाश जाना जाता है।
तब जानने वाला पागल हो जाता है। और यह ज्ञान इतना निश्‍चित है कि यदि तुम मंसूर की हत्‍या भी कर दो तो वह अपना वक्‍तव्‍य नहीं बदलेगा। क्‍योंकि हकीकत में, जहां तक उसका संबंध है,तुम उसकी हत्‍या नहीं कर सकते। अब वह पूर्ण हो गया है। उसे मिटाने का उपाय नहीं है।
मंसूर के बाद सूफी सीख गए कि चुप रहना बेहतर है। इसलिए मंसूर के बाद सूफी पंरम्‍परा में शिष्‍यों को सतत सिखाया गया कि जब भी तुम तीसरी आँख को उपल्‍बध करो चुप रहो, कुछ कहो मत। जब भी घटित हो, चुप्‍पी साध लो। कुछ भी मत कहो। या वे ही चीजें औपचारिक ढंग से कहे जाओ जो लोग मानते है।
इसलिए अब इस्‍लाम में दो परंपराएं है। एक सामान्‍य परंपरा है—बाहरी, लौकिक।
और दूसरी परंपरा असली इसलाम है, सूफीवाद जो गुह्म है।
लेकिन सूफी चुप रहते है। क्‍योंकि मंसूर के बाद उन्‍होंने सीख लिया कि उस भाषा में बोलना जो कि तीसरी आँख के खुलने पर प्रकट होती है। व्‍यर्थ की कठिनाई में पड़ना है, और उससे किसी को मदद भी नहीं होती।
यह सूत्र कहता है: ‘’सिर के सात द्वारों को अपने हाथों से बंद करने पर आंखों के बीच का स्‍थान सर्वग्राही, सर्वव्‍यापी हो जाता है।‘’तुम्‍हारा आंतरिक आकाश पूरा आकाश हो जाता है।
ॐ विधि ॐ
प्रत्‍येक विधि किसी मन-विशेष के लिए उपयोगी है। जिस विधि की अभी हम चर्चा कर रहे थे—
तीसरी विधि, सिर के द्वारों को बंद करने वाली विधि—उसका उपयोग अनेक लोग कर सकते है। वह बहुत सरल है और बहुत खतरनाक नहीं है। उसे तुम आसानी से काम में ला सकते हो।
यह भी जरूरी नहीं है कि द्वारों को हाथ से बंद करो; बंद करना भी जरूरी है। इसलिए कानों के लिए डाट और आंखों के लिए पट्टी से काम चल जाएगा
असली बात यह कि कुछ क्षणों के लिए ये कुछ सेंकेंड के लिए सिर के द्वारों को पूरी तरह से बंद कर लो।इसका प्रयोग करो, अभ्‍यास करो। अचानक करने से ही यह कारगर है, अचानक में ही राज छिपा है।
बिस्‍तर में पड़े-पड़े अचानक सभी द्वारों को कुछ सेकेंड के लिए बंद कर लो। और तब भीतर देखो क्‍या होता है।जब तुम्‍हारा दम घुटने लगे, क्‍योंकि श्‍वास भी बंद हो जाएगी, तब भी इसे जारी रखे और तब तक जारी रखो जब तक कि असह्य न हो जाये। और जब असह्य हो जाएगा, तब तुम द्वारों को ज्‍यादा देर बंद नहीं रख सकोगे, इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दो। तब आंतरिक शक्‍ति सभी द्वारों के खुद खोल देगी।
लेकिन जहां तक तुम्‍हारा संबंध है, तुम बंद रखो। जब दम घुटने लगे, तब वह क्षण आता है, निर्णायक क्षण, क्‍योंकि घुटन पुराने एसोसिएशन तोड़ डालती है।
इसलिए कुछ और क्षण जारी रख सको तो अच्‍छा।यह काम कठिन होगा, मुश्‍किल होगा, और तुम्‍हें लगेगा कि मौत आ गई।
लेकिन डरों मत। तुम मर नहीं सकते। क्‍योंकि द्वारों को बंद भर करने से तुम नहीं मरोगे। लेकिन जब लगे कि में मर जाऊँगा, तब समझो कि वह क्षण आ गया।अगर तुम उस क्षण में धीरज से लगे रहे तो अचानक हर चीज प्रकाशित हो जाएगी। तब तुम उस आंतरिक आकाश को महसूस करोगे। जो कि फैलता ही जाता है, और जिसमें समग्र समाया हुआ है। तब द्वारों को खोल दो और तब इस प्रयोग को फिर-फिर करो। जब भी समय मिले, इसका प्रयोग में लाओ।
लेकिन इसका अभ्‍यास मत बनाओ। तुम श्‍वास को कुछ क्षण के लिए रोकने का अभ्‍यास कर सकते हो। लेकिन उससे कुछ लाभ नहीं होगा।
एक आकस्‍मिक, अचानक झटक की जरूरत है।
उस झटके में तुम्‍हारी चेतना के पुराने स्रोतों का प्रवाह बंद हो जाता है। और कोई नयी बात संभव हो जाती है।
भारत में अभी भी सर्वत्र अनेक लोग इस विधि का अभ्‍यास करते है। लेकिन कठिनाई यह है कि वे अभ्‍यास करते है।
जब कि यह एक अचानक विधि हे। अगर तुम अभ्‍यास करो तो कुछ भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं होगा। अगर मैं तुम्‍हें अचानक इस कमरे से बाहर निकाल फेंकूंगा तो तुम्‍हारे विचार बंद हो जाएंगे।
लेकिन अगर हम रोज-रोज इसका अभ्‍यास करें तो कुछ नहीं होगा। तब वह एक यांत्रिक आदत बन जाएगी।इसलिए अभ्यास मत करो;
जब भी हो सके प्रयोग करो। तो धीरे-धीरे तुम्‍हें अचानक एक आंतरिक आकाश का बोध होगा। वह आंतरिक आकाश तुम्‍हारी चेतना में तभी प्रकट होता है जब तुम मृत्‍यु के कगार पर होते हो।
तब तुम्‍हें लगता है कि अंग में एक क्षण भी नहीं जीऊूंगा। अब मृत्‍यु निकट है; तभी वह सही क्षण आता है।
इसलिए लगे रहो, डरों मत।मृत्‍यु इतनी आसान नहीं है। कम से कम इस विधि को प्रयोग में लाते हुए कोई व्‍यक्‍ति अब तक मरा नहीं है। इसमे अंतर्निहित सुरक्षा के उपाय है, यही कारण है कि तुम नहीं मरोगे।
मृत्‍यु के पहले आदमी बेहोश हो जाता है। इसलिए होश में रहते हुए यह भाव आए कि मैं मर रहा हूं तो डरों मत। तुम अब भी होश में हो, इसलिए मरोगे नहीं।
और अगर तुम बेहोश हो गए तो तुम्‍हारी श्‍वास चलने लगेगी। तब तुम उसे रोक नहीं पाओगे।और
तुम कान के लिए डाट काम में ला सकते हो। आंखों के पट्टी बाँध सकते हो। लेकिन नाक और मुंह के लिए कोई डाट उपयोग नहीं करने है। क्‍योंकि तब वह संघातक हो सकता है।
कम से कम नाक को छोड़ रखना ठीक है। उसे हाथ से ही बंद करो। उस हालत में जब बेहोश होने लगोगे तो हाथ अपने आप ही ढीला हो जाएगा। और श्‍वास वापस आ जाएगी। तो इसमे अंतर्निहित सुरक्षा है।
यह विधि बहुतों के काम की है।