Tuesday, 22 May 2018
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पुतली तंत्र (क्रमांक २) श्वांसों का विज्ञान – शरीर के मर्म स्थान
किया-कराया; जादू-टोना; काला-जादू
पुतली तंत्र में दूसरा महत्वपूर्ण स्थान श्वांसों की गति का है. यहाँ यह जानना समीचीन होगा कि ये जानकारियां सभी मार्ग और विधि में आवश्यक होतीं हैं, जब हम अभिचार कर्म करते हैं.
श्वांसों की वाम एवं दक्षिण गति
हमारी दो नासिकाएँ हैं. हम दोनों से श्वांस लेते रहते हैं, मगर हमें ज्ञात नहीं होता कि सूर्य और चन्द्रमा के संतुलन और समीकरण से दोनों नासिकाओं का समीकरण बदलता रहता है. वस्तुत: हम एक समय में एक ही नासिका से श्वांस लेते हैं. दूसरी इतनी धीमी होती है कि उसे नगण्य ही कहा जा सकता है.
तंत्र की गणना के अनुसार, ३६० श्वांसों की एक नाडी होती है. ६० नाडी का एक दिन + रात होता है. फिर दूसरा दिन शुरू हो जाता है. यह क्रम चलता ही रहता है. इस प्रकार एक दिन रात में श्वासों की संख्या २१६०० होती है. श्वांसों में कभी बांयी नासिका तेज होती है, कभी दांयी. एक निष्क्रिय सी बनी रहती है. इसमें केवल ८० श्वांस प्रति दिन प्रात: सायं समभाव से दोनों नासिकाओं से चलतीं हैं. इसी लिए यह समय जप-ध्यान के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है.
श्वांसों का यह परिवर्तन नक्षत्र, राशि, भोगोलिक अक्षांश, आदि के कारण होता है. इसे प्रत्यक्ष अनुभूत किया जा सकता है और उन जड़ बुद्धियों को प्रमाण मिल सकता है, जो ज्योतिष को तीर तुक्का समझते हैं.
चन्द्र नाडी के समय बांयी नासिका और सूर्य नाडी के समय दांयी नासिका से श्वांस चलती है. दोनों पक्षों में सूर्य एवं चन्द्र की संक्रांति दस-दस बार होती है. इस सक्रांति काल में दोनों नासिका से स्वांस चलती है.
शुक्ल पक्ष की १, २, ३, ७, ८, ९, १३, १४, १५ का सूर्योदय काल चन्द्र नाडी में, शेष तिथि का सूर्य नाडी में होता है, जो समय के निश्चित अंतराल पर बदलता रहता है, कृष्ण पक्ष में उल्टा होता है. यह गणना सभी चर-अचर इकाइयों पर लागू है, उसकी अपनी उर्जा संरचना के अनुसार; क्योंकि श्वांस सभी लेते हैं, परमाणु तक (पृथ्वी नामक ग्रह के लिए)
शरीर के रहस्यमय मर्मस्थान
दो अंगूठे, दो घुटने, दो जंघाएँ, दायें बांये दो पीठ, दो उरू, एक सिवनी, एक गुदा, एक लिंग या योनि, दो पार्श्व, एक ह्रदय, दो स्तन, एक कंठ, दो कंधे, दो भृकुटी, दो कान, दो कनपट्टी, दो फाल, दो नासिकाएं, दो आँखें, दो कपाल – ये ३८ मर्म स्थान है.
ये मर्म स्थान सिद्ध होने पर अलौकिक शक्तियों को देने वाले हैं. परकाया प्रवेश की क्रिया में भी इनकी सिद्धि की आवश्यकता होती है; पर ये मारक स्थान भी हैं. इन पर अभिचार करके सभी प्रकार के रोगों को दूर किया जा सकता है, अभिषेक करके गुरु शक्ति दान किया जा सकता है; पर इन्ही पर समस्त भयानक अभिचार कर्म भी किया जाता है. इन क्रियाओं में साध्य की गणना होती है, अपनी नहीं. अपनी गणना सिद्धि कार्यों में की जाती है.
इनके ज्ञान के बिना कोई भी अभिचार कर्म ढकोसला है. आचार्य को इन तमाम रहस्यों का ज्ञान होना चाहिए, चाहे वह अनपढ़ ही क्यों न हो.
शरीर में उर्जा प्रवाह की गति
यह एक गुप्त जानकारी है. इसे डिटेल में बताना संभव नहीं है, पर कुछ अनुभूत करने वाली जानकारी आवश्यक है. अंगूठों का सम्बन्ध आंत से, तलवों का मष्तिष्क से, गुदा का नासिका से और सर के चाँद से, लिंग या योनी का रीढ़ की तीनों मुख्य नाड़ियों से, अनामिकाओं का ह्रदय से, माध्यम का रीढ़ और मूलाधार से, तर्जनी का नासिका से, कनिष्ठिका का कंठ से होता है.
ये सभी जानकारियां न केवल अभिचार कर्म में, बल्कि तंत्र न्यास, तन्त्रभिशेक, गुरु दीक्षा, सभी प्रकार की साधनाओं, ध्यानयोग आदि के प्रैक्टिकल में होनी जरूरी हैं, वर्ना सभी ऊपरी रह जायेंगे
Ruchi Sehgal
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पुतली तंत्र (क्रमांक 3) समुद्र मंथन का रहस्य
शरीररूपी समुद्र से अमृत और विष की प्राप्ति
पुतली तंत्र के क्रमांक १ एवं २ में वर्णित विवरणों के साथ अभिचार कर्म में कुछ अन्य सूत्र भी जानना जरूरी है. ये विवरण तिथियों एवं दिशाओं से सम्बंधित हैं. ये विवरण केवल अभिचार कर्म के लिए ही नहीं हैं. इनको जान कर सामन्य स्त्री-पुरूष भी अपने शरीर में अमृत उत्पादन बढ़ा कर दिव्य सक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें किसी सिद्धि की आवश्यकता नहीं है.
षट्कर्म के देवता
शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण – ये छै षट्कर्म कहे जाते हैं. इनके देवता क्रमश:- रति, वाणी यानी सरस्वती, रमा, जेष्ठा, दुर्गा एवं महाकाली हैं.
यहाँ एक बात स्पष्ट समझनी चाहिये. कोई भी देवी-देवता ऐसे नहीं हैं, जिनकी सिद्धि के बाद षट्कर्म नहीं किये जा सकतें हों. केवल मन्त्रों में अंतर आ जाता है. पर छै कर्मों में उनके रूप एक से नहीं होते. शान्ति में सौम्य, वशीकरण में मादक, मोहक, स्तम्भन में जड़, विद्वेषण में कुटिल, उच्चाटन में क्रूर और मारण में उग्र होता है.
देवता के मूल मन्त्र की सिद्धि होने पर भी इनके मन्त्रों की सिद्धि अलग से करनी होती है, क्योकि ये मूल मन्त्र से बदले होते हैं.
ऋतुकाल एवं दिशाओं का समायोजन
उपर्युक्त दिए क्रम से षट्कर्म के लिए – ईशान, उत्तर, पूर्व, नैरित्य, वायव्य, एवं दो अंतिम के लिए आग्नेय प्रशस्त होती हैं.
ऋतू का क्रम हेमंत, वसंत, शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा एवं शरद है. ऋतुएं वर्ष में छै होतीं हैं. एक ऋतु दो महीने की होती है, जो ज्योतिष से जानी जा सकती है; मगर एक दिन-रात में भी ये सुर्योदय काल से चार चार घंटे के अंतराल से बंटी होतीं है.
मन्त्रों का संयोजन
ग्रंथन-इसका उपयोग शांति कर्म में होता है . फिर साध्य के नाम का एक अक्षर करके मन्त्र का समायोजन किया जाता है .
विदर्भ-यह वशीकरण में प्रयुक्त किया जाता है. इसमें मन्त्र के दो अक्षरों के बीच साध्य के नाम का एक अक्षर होता है.
सम्पुट-नाम के आदि और अंत में मन्त्र लिखने या जपने को कहते हैं. यह स्तम्भन में प्रशस्त है.
रोधन- यह विद्वेषण में प्रयुक्त होता है. इसमें नाम के आदि, मध्य और अंत में मन्त्र लिखा जाता है.
योग- उच्चाटन में इसका प्रयोग होता है. इसमें मन्त्र के अंत में नाम लिखा जाता है.
पल्लव- नाम पहले, मन्त्र बाद में हो तो इसे पल्लव कहा जाता है. यह मरण में प्रयुक होता है.
जन साधरण के लिए उपयोग
कोई भी स्त्री पुरुष अपने शरीर के के अमृत विन्दुओं का प्रतिदिन नहाते समय या पूजा के समय जल से “हूँ अस्त्राय फट” मन्त्र से न्यास करे, तो १०८ दिन में सौन्दर्य, स्वास्थ्य, चमक के साथ अपने उर्जा समीकरण के अनुसार कई दिव्य शक्तियों को प्राप्त करेगा.
इसी प्रकार रोग दूर करने में, औषधि खाने में, रतिकाल में, भोजन में इनका उपयोग करके विलक्ष्ण शक्ति की प्राप्ति की जा सकती है.
Ruchi Sehgal
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पुतली तंत्र – ४ जादू टोना
किया-कराया; जादू-टोना; काला-जादू
अन्य विधि में जानकारियों का प्रयोग
पुतली तंत्र की विधि थोड़ी जटिल है और उसे वन शीट नें बताना भी पडेगा, इसलिए उसे भाग ५ में बताने की मजबूरी है. ये चार भाग जाने बिन आप पुतली तंत्र की पूरी वैज्ञानिकता नहीं समझ सकते और ना ही प्रयोग कर सकते है. ये जानकारियां सभी विधि के अभिचार कर्म के प्राण हैं. इनके बिना अभिचार कर्म अपनें प्राणों का भी खतरा मोल लेना है. अभिचार भी शायद ही सफल हो.
इन जानकारियों का गृहस्थ जीवन में सामान्य उपयोग
१ गुदामार्ग पर दो मिनट पानी की तेज धार डालते हुए” हूँ अस्त्राय फट “मन्त्र जपते श्वास लेने से और रात में सरसों तेल की पर्याप्त मात्र मालिश करने से श्वांस की बिमारी दूर होती है.
२ सर के चाँद में, कान में तेल दाल कर “अंह:” मन्त्र जपते सोने वाला [गहरी श्वास खींचते समय अं और छोड़ते समय ह :], श्वास, कास, मानसिक तनाव के विकारों से मुक्त हो कर आयु, नीद, भगवत कृपा और सफलता प्राप्त करता है.
३ शिर के चाँद में औषधियों के (विकार के अनुसार) आद्र कल्क बाँध कर सोने से कठिन रोगों से मुक्ति मिलती है.
४ तलवों को साफ़ करके मदिरा से मालिश करके औषधियों का लेप लगाने और शिर को साफ़ कारके उप्रुक्त तेल मर्दन करने से राहू दोष दूर होता है और मष्तिष्क के रोग मिटते हैं.
५ नाभि में तेल डाल कर मालिश करने से (औषधि युक्त) उदार रोग, गर्भाशय विकार, मोटापा, वायुप्रकोप मिटता है.
६ दांत में कीड़े हों तो कान में मदार के रस और घी (बराबर) को गर्म करके आधा आधा घंटा पर डालने से दन्त शूल दो मिनट में मिटता है और कीड़े के दर्द से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है.
७ स्नान के समय का प्रयोग हम पहले बता आयें हैं.
८ प्रति दिन अमृत विन्दु पर केवल मन्त्र से न्यास करने पर ही दिव्य अनुभूतियाँ होने लगती हैं, चाहे किसी इष्ट का शान्ति भाव का मन्त्र हों.
९ शिर के चाँद पर तेज धर पानी डालने से भी (शिव मन्त्र) श्वास के रोग मिटते है.
अभिचार जर्म में इन जानकारियों का उपयोग
पूजा, न्यास, अभिषेक, गुरुदीक्षा, चक्र पूजा, जप तप, सभी प्रकार के अभिचार कर्म मे इन गणनाओं की जरूरत होती है. शांति कर्म में अमृत योग, वशीकर्ण में अमृत योग, मारण, उच्चात्तन में विष योग की गणना की जाती है. इसी प्रकार ज्योतिष से मजबूत और कमजोर समय को निकाला जाता है. मर्म विन्दु का प्रयोग अभिचार की प्रकृति के अनुसार निकाला जाता है. पुतली तंत्र में तो इसके बिना एक कदम चलना भी खतरनाक है.
Ruchi Sehgal