Monday, 20 August 2018
उतारा क्या है और किस दिन केसे प्रयोग करे-
उतारा शब्द का तात्पर्य व्यक्ति विशेष पर हावी बुरी हवा अथवा बुरी आत्मा, नजर आदि के प्रभाव को उतारने से है - ये उतारे आमतौर पर जादा तर मिठाइयों द्वारा किए जाते हैं क्योंकि मिठाइयों की ओर ये शीघ्र आकर्षित होते हैं-
उतारा करने की विधि :-
उतारे की वस्तु सीधे हाथ में लेकर नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति के सिर से पैर की ओर सात अथवा ग्यारह बार घुमाई जाती है। इससे वह बुरी आत्मा उस वस्तु में आ जाती है। उतारा की क्रिया करने के बाद वह वस्तु किसी चौराहे, निर्जन स्थान या पीपल के नीचे रख दी जाती है और व्यक्ति ठीक हो जाता है।
किस दिन किस मिठाई से उतारा करना चाहिए-इसका विवरण यहां प्रस्तुत है:-
रविवार को नमक अथवा सूखे फलयुक्त बर्फी से उतारा करना चाहिए।
सोमवार को बर्फी से उतारा करके बर्फी गाय को खिला दें।
मंगलवार को मोती चूर के लड्डू से उतार कर लड्डू कुत्ते को खिला दें।
बुधवार को इमरती से उतारा करें व उसे कुत्ते को खिला दें।
गुरुवार को सायं काल एक दोने में अथवा कागज पर पांच मिठाइयां रखकर उतारा करें। उतारे के बाद उसमें छोटी इलायची रखें व धूपबत्ती जलाकर किसी पीपल के वृक्ष के नीचे पश्चिम दिशा में रखकर घर वापस जाएं। ध्यान रहे, वापस जाते समय पीछे मुड़कर न देखें और घर आकर हाथ और पैर धोकर व कुल्ला करके ही अन्य कार्य करें।
शुक्रवार को मोती चूर के लड्डू से उतारा कर लड्डू कुत्ते को खिला दें या किसी चौराहे पर रख दें।
शनिवार को उतारा करना हो तो इमरती या बूंदी का लड्डू प्रयोग में लाएं व उतारे के बाद उसे कुत्ते को खिला दें।
इसके अतिरिक्त रविवार को सहदेई की जड़, तुलसी के आठ पत्ते और आठ काली मिर्च किसी कपड़े में बांधकर काले धागे से गले में बांधने से ऊपरी हवाएं सताना बंद कर देती हैं।
नजर उतारने अथवा उतारा आदि करने के लिए कपूर, बूंदी का लड्डू, इमरती, बर्फी, कड़वे तेल की रूई की बाती, जायफल, उबले चावल, बूरा, राई, नमक, काली सरसों, पीली सरसों मेहंदी, काले तिल, सिंदूर, रोली, हनुमान जी को चढ़ाए जाने वाले सिंदूर, नींबू, उबले अंडे, गुग्गुल, शराब, दही, फल, फूल, मिठाइयों, लाल मिर्च, झाडू, मोर छाल, लौंग, नीम के पत्तों की धूनी आदि का प्रयोग किया जाता है।
स्थायी व दीर्घकालीन लाभ के लिए संध्या के समय गायत्री मंत्र का जप और जप के दशांश का हवन करना चाहिए।
हनुमान जी की नियमित रूप से उपासना, भगवान शिव की उपासना व उनके मूल मंत्र का जप, महा-मृत्युंजय मंत्र का जप, मां दुर्गा और मां काली की उपासना करें। स्नान के पश्चात् तांबे के लोटे से सूर्य को जल का अर्य दें।
मानसिक शान्ति और सम्पन्नता के लिए पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा स्वयं करें अथवा किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से सुनें। संध्या के समय घर में दीपक जलाएं, प्रतिदिन गंगाजल छिड़कें और नियमित रूप से गुग्गुल की धूनी दें। प्रतिदिन शुद्ध आसन पर बैठकर सुंदर कांड का पाठ करें। किसी के द्वारा दिया गया सेव व केला न खाएं। रात्रि बारह से चार बजे के बीच कभी स्नान न करें।
बीमारी से मुक्ति के लिए नीबू से उतारा करके उसमें एक सुई आर-पार चुभो कर पूजा स्थल पर रख दें और सूखने पर फेंक दें। यदि रोग फिर भी दूर न हो, तो रोगी की चारपाई से एक बाण(बान जिससे चारपाई को बिना जाता है ) निकालकर रोगी के सिर से पैर तक छुआते हुए उसे सरसों के तेल में अच्छी तरह भिगोकर बराबर कर लें व लटकाकर जला दें और फिर राख पानी में बहा दें।
शंख बजाने के फायदे
शंख बजाने और इसके इस्तेमाल के फायदे:-
शंख का महत्त्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक रूप से भी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख-ध्वनि के प्रभाव में सूर्य की किरणें बाधक होती हैं। अतः प्रातः व सायंकाल में जब सूर्य की किरणें निस्तेज होती हैं, तभी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इससे आसपास का वातावरण तता पर्यावरण शुद्ध रहता है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।
तंत्र शास्त्र के अनुसार सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले शंख को यदि पूर्ण विधि-विधान के साथ करके इस शंख को लाल कपड़े में लपेटकर अपने घर में अलग- अलग स्थान पर रखने से विभिन्न परेशानियों का हल हो सकता है। दक्षिणावर्ती शंख को तिज़ोरी मे रखा जाए तो घर में सुख-समृद्धि बढ़ती है। इसलिए घर में शंख रखा जाना शुभ माना जाता है।
लक्ष्मी के हाथ में जो शंख होता है वो दक्षिणावर्ती अर्थात सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले होते हैं। वामावर्ती शंख को जहां विष्णु का स्वरुप माना जाता है और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है। दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है।
वर्तमान समय में वास्तु-दोष के निवारण के लिए जिन चीज़ों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से यदि शंख आदि का उपयोग किया जाए तो कई प्रकार के लाभ हो सकते हैं। यह न केवल वास्तु-दोषों को दूर करता है, बल्कि आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह में विलंब जैसे अनेक दोषों का निराकरण एवं निवारण भी करता है।
मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।
शंख के जल से शालीग्राम को स्नान कराएं और फिर उस जल को यदि गर्भवती स्त्री को पिलाया जाए तो पैदा होने वाला शिशु पूरी तरह स्वस्थ होता है। साथ ही बच्चा कभी मूक या हकला नहीं होता। यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष दूर होते हैं। शंख बजाने से कई तरह के फेफड़ों के रोग दूर होते हैं जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लून्जा आदि रोगों में शंख ध्वनि फायदा पहुंचाती है। रूक-रूक कर बोलने व हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल का पान करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा। दरअसल मूकता व हकलापन दूर करने के लिए शंख-जल एक महौषधि है।
शंखों में भी विशेष शंख जिसे दक्षिणावर्ती शंख कहते हैं इस शंख में दूध भरकर शालीग्राम का अभिषेक करें। फिर इस दूध को निरूसंतान महिला को पिलाएं। इससे उसे शीघ्र ही संतान का सुख मिलता है।
1928 में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि इसकी ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने कि उत्तम औषधि है।
माना जाता है कि पूजा-पाठ में शंख बजाने से शरीर और आसपास का वातावरण शुद्घ होता है और सतोगुण की वृद्घि होती है, जो मनुष्य के विकास में सहायक होता है।
जहां तक शंख की आवाज जाती है, इसे सुनकर लोगों के मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं और वे पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित होते हैं। ऐसी मान्यता है कि शंख की पूजा से हमारी कामनाएं पूरी होती हैं।
चूंकि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु, दोनों ही अपने हाथों में शंख को धारण करते हैं, लिहाजा शंख को बेहद शुभ माना जाता है। साथ ही ऐसी मान्यता है कि जिस घर में शंख होता है, वहां लक्ष्मी का वास होता है और दिनोंदिन उन्नति होती है।
शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है और स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। खासतौर पर श्वास के रोगी के लिए यह बेहद असरदार माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार शंख बजाने से दमा, यकृत और इन्फ़्लुएन्ज़ा जैसी बीमारियां भी दूर होती हैं।
पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।
शंख में जल रखने और इसे छिड़कने से वातावरण शुद्ध होता है। शंख में कैल्शियम और फॉस्फोरस के गुण मौजूद होते हैं। लिहाजा शंख में रखे पानी के सेवन से हड्डियां मजबूत होती हैं।
प्रयोग के लिए कुछ दिन के लिए शंख को घर में लाये और उपरोक्त नियम-अनुसार लाभ प्राप्त करे .
शंख की उत्पति
शंख की उत्पत्ति:-
शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में [विष्णु] ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के पश्चात् सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई।
भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है।
इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।
भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। उससे निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।
शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्री कृष्ण कवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।
प्राचीन काल से ही प्रत्येक घर में पूजा-वेदी पर शंख की स्थापना की जाती है। निर्दोष एवं पवित्र शंख को दीपावली, होली, महाशिवरात्रि, नवरात्र, रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य नक्षत्र आदि शुभ मुहूर्त में विशिष्ट कर्मकांड के साथ स्थापित किया जाता है। रुद्र, गणेश, भगवती, विष्णु भगवान आदि के अभिषेक के समान शंख का भी गंगाजल, दूध, घी, शहद, गुड़, पंचद्रव्य आदि से अभिषेक किया जाता है। इसका धूप, दीप, नैवेद्य से नित्य पूजन करना चाहिए और लाल वस्त्र के आसन में स्थापित करना चाहिए।
शंखराज सबसे पहले वास्तु-दोष दूर करते हैं। मान्यता है कि शंख में कपिला (लाल) गाय का दूध भरकर भवन में छिड़काव करने से वास्तुदोष दूर होते हैं। परिवार के सदस्यों द्वारा आचमन करने से असाध्य रोग एवं दुःख-दुर्भाग्य दूर होते हैं। विष्णु शंख को दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि में स्थापित करने पर वहाँ के वास्तु-दोष दूर होते हैं तथा व्यवसाय आदि में लाभ होता है। शंख की स्थापना से घर में लक्ष्मी का वास होता है।
स्वयं माता लक्ष्मी कहती हैं कि शंख उनका सहोदर भ्राता है। शंख, जहाँ पर होगा, वहाँ वे भी होंगी। देव प्रतिमा के चरणों में शंख रखा जाता है। पूजास्थली पर दक्षिणावृत्ति शंख की स्थापना करने एवं पूजा-आराधना करने से माता लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। इस शंख की स्थापना के लिए नर-मादा शंख का जोड़ा होना चाहिए। गणेश शंख में जल भरकर प्रतिदिन गर्भवती नारी को सेवन कराने से संतान गूंगेपन, बहरेपन एवं पीलिया आदि रोगों से मुक्त होती है। अन्नपूर्णा शंख की व्यापारी व सामान्य वर्ग द्वारा अन्नभंडार में स्थापना करने से अन्न, धन, लक्ष्मी, वैभव की उपलब्धि होती है। मणिपुष्पक एवं पांचजन्य शंख की स्थापना से भी वास्तु-दोषों का निराकरण होता है। शंख का तांत्रिक-साधना में भी उपयोग किया जाता है। इसके लिए लघु शंखमाला का प्रयोग करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।