Tuesday, 6 November 2018
गजेन्द्र मोक्ष की पौराणिक कथा कहानी
गजेन्द्र मोक्ष की कथा कहानी
गजेंद्र मोक्ष की कथा का वर्णन श्रीमद भागवत पुराण में किया गया है। क्षीरसागर में दस हजार योजन ऊँचा त्रिकुट नाम का पर्वत था। उस पर्वत के घोर जंगल में बहुत-सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र (हाथी) निवास करता था। वह सभी हाथियों का सरदार था। एक दिन वह उसी पर्वत पर अपनी हथिनियों के साथ बड़ी-बड़ी झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था। उसके पीछे-पीछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे तथा हथिनियाँ घूम रही थी ।
बड़े जोर की धुप के कारण उसे तथा उसके साथियों को प्यास लगी । तब वह अपने समूह के साथ पास के सरोवर से पाने पी कर अपनी प्यास बुझाने लगा। प्यास बुझाने के बाद वे सभी साथियों के साथ जल- स्नान कर जल- क्रीड़ा करने लगे । उसी समय एक बलवान मगरमच्छ ने उस गजराज के पैर को मुँह मे दबोच कर पाने के अंदर खीचने लगा । गजेंद्र ने अपनी पूरी शक्ति लगा कर स्वयं को छुड़ाने की कोशिश की लेकिन असफल रहा । उसके झुण्ड के साथियों ने भी उसे बचाना चाहा पर सफल ना हो सके |
जब गजेंद्र ने अपने आप को मौत के निकट पाया और कोई उपाय शेष नहीं रह गया तब उसने प्रभु की शरण ली और आर्तनाद सए प्रभु की सतुति करने लगा। जिसे सुनकर भगवान श्री हरि स्वयं आकर उसके प्राणों की रक्षा की ।
पूर्व जन्म कथा
जब शुकदेव जी ने राजा परिक्षित को यह कथा सुनायी तो राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा कि हे शुकदेव महाराज ! यह गजेंद्र कौन था जिसकी पुकार सुनकर भगवान भोजन छोड़कर आ गए ।
तब शुकदेव जी महाराज कहते हैं- हे परिक्षित पूर्व जन्म में गजेंद्र का नाम इन्द्रद्युम्न था । वह द्रविड देश का पाण्ड्वंशी राजा था । वह भग्वान का बहुत बड़ा सेवक था। उसने अपना राजपाट छोड़कर मलय पर्वत पर रहते हुए जटाएँ बढाकर तपस्वी के वेष में भगवान की आराधना था। एक दिन वहाँ से अगस्त्य मुनि अपने शिष्यों के साथ गुजरे और उन्होंने राजा को एकाग्रचित होकर उपासना करते हुए देखा। अगस्त्य मुनि ने देखा कि यह राजा अपने प्राजापालन और गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म को छोड़कर तपस्वी की तरह रह रहा है अत: उस राजा इन्द्रद्युम्न पर क्रोधित हो गये । और क्रोध में आकर उन्होंने राजा को शाप दिया – कि हे राजा तुमने गुरुजनों से बिना शिक्षा ग्रहण किये हुए अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहे हो अर्थात् हाथी के समान जड़ बुद्धि हो गये इसलिये तुम्हें वही अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो’।
राजा ने इस श्राप को अपना प्रारब्ध समझा। इसके बाद दूसरे जन्म में उसे आत्मा की विस्मृति करा देने वाली हाथी की योनि प्राप्त हुई। परन्तु भगवान की आराधना के प्रभाव से हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी। भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना लोक में जगह दी ।
गजेंद्र को जिस ग्राह ने पकड़ा था वह पूर्व जन्म में ‘हूहू’ नाम का श्रेष्ठ गन्धर्व था। एक बार देवल ऋषि जलाशय में स्नान कर रहे थे । उसी जलाशय यह हूहू नामक गंधर्व ने चुपचाप अंदर जाकर ऋषि के पैर पकड़ लिये और मगर मगर (मगरमच्छ) कहकर चिल्लाने लगा। इससे क्रोधित होकर देवल ऋषि ने श्राप दे हूहू को श्राप देते हुए कहा –हे! हुहु गन्धर्व तुझे लाज नहीं आती। तुझे संत-महात्मा का आदर करना चाहिए और तू मजाक उड़ा रहा है। और मगर की तरह आकर मेरा पैर पकड़ता है। अरे दुष्ट! अगर तुझे मगर बनने का इतना ही शोक है तो तुझे मगर की योनि प्राप्त होगी। शाप मिलते हीं वह गंधर्व ऋषि से क्षमायाचना करने लगा । तब ऋषि ने कहा – तू मगर की योनी में जरूर जन्म लेगा लेकिन तेरा उद्धार भग्वान के हाथों होगा। इसी ग्राह रूपी हूहू गंधर्व का उद्धार भगवान श्री हरि ने किया ।
बबूल पेड़ के प्रेम से थामी कृष्ण ने बाँसुरी
बबूल पेड़ के प्रेम से थामी कृष्ण ने बाँसुरी
कृष्णा हर दिन एक बाग़ में जाया करते थे और उस बाग़ के सभी पुष्पों को प्यार किया करते थे | बदले में वे सभी पुष्प भी कृष्णा की तरफ अपना प्यार दर्शाया करते थे | उन सभी पुष्पों के चेहरों पर कृष्ण को देखकर एक मधुर मुस्कान आ जाया करती थी |
उसी बाग़ में एक बबूल का पेड़ भी था पर कृष्ण से उसे वो प्यार नही मिल पा रहा था जो अन्य सभी पुष्पों को मिल जाता था | एक दिन बबूल ने अपनी यह व्यथा उन्हें सुनाई |
कृष्णा ने कहा की तुम यदि मेरा प्यार चाहते हो तो तुम्हारे अंगो को मेरे लिए बलिदान करना होगा और ऐसा करने से तुम्हे बहुत दर्द होगा | बबूल ने कहा की प्रभु आपके लिए जीवन में दर्द सहना भी मेरे लिए परम आनदं के तुल्य है |
कृष्ण ने यह बात सुनकर मुस्कुराये और बबूल के पेड़ की एक शाखा काट दी | बबूल दर्द से बेहाल हो रहा था पर कृष्ण के हाथो के स्पर्श से उसे आनंद भी आ रहा था | कृष्ण ने उस शाखा से एक सुन्दर सी बांसुरी बना दी | बबूल के इस बलिदान के कारण कृष्ण इसे हमेशा अपने पास रखते और इसे बहुत प्यार करते |
गोपिया यह देखकर कृष्णा से बहुत नाराज होती की प्रभु इस बांसुरी में ऐसा क्या है की यह आपके साथ ही सोती है आपके साथ ही जगती है और हमेशा आपके साथ ही रहती है |
तब कृष्ण ने गोपियों से कहा की तुम यह बात इस बबूल की बांसुरी से ही पूछो |
तब बांसुरी ने कहा की मैंने तो पूर्ण रूप से अपने आप को भगवान कृष्णा को समर्प्रित कर दिया है अब यह इनके ऊपर है यह मुझे किस तरह रखते है | मैं अन्दर से बिलकुल खाली हूँ |
इस कहानी से हम्हे भी यह सीख मिलती है की प्रभु को अपना सब कुछ दे दो बस प्रभु फिर आपको अपना सब कुछ दे देंगे | और इस तरह भक्त और भगवान का एक प्यारा रिश्ता जुड़ जाता है |
शिव तांडव स्त्रोत
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम् ॥१॥
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विकराल सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें. ||१||
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पर लहरा रही हैं, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे. ||२||
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?. ||३||
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रमकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो. ||४||
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें. ||५||
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें. ||६||
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो. ||७||
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें. ||८||
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ. ||९||
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ. ||१०||
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवा