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Saturday, 12 May 2018

जीव के अन्दर के ग्यारह रूद्र

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2) भूत प्रेत जिंद इत्यादि से बचावपूर्ण
पूर्ण सृष्टि में चार प्रकार के जीव होते है अंडज, पिंडज, जलज और स्वेदज स्थूल देह के अतिरिक्त भारतीय दार्शनिकों ने सूक्ष्म देह का अस्तित्व माना है | सूक्ष्म देह अतिवाहिक देह कहलाती है जो सत्रह तत्वों से बनी होती है | इस देह को आत्मा पूर्ण मानसरूपी सात जन्मों के पश्चात ग्रहण करती है | स्थूल शरीर की सारी योनियों से पार होने के पश्चात ही आत्मा देवयोनि अथवा आसुरी योनि ग्रहण कर पाती है | इस योनि में आत्मा स्थूल तत्वों से स्वाद ग्रहण करती है | देवी साधना और आसुरी साधना द्वारा ही इन आत्माओं को वश में किया जाता है और उनकी शक्तियों को मानव उपयोग में लेता है |
मानव का स्थूल शरीर इनकी चपेट में अधिकतर तब आता है जब ये आत्माएं भोग प्राप्त करती हैं | उदाहरण के तौर पर श्राद्ध के समय चौराहे पर किसी ने अपने पूर्वजों के लिए भोजन रखा और दूसरे शरीर के पांव से ठोकर लग गई तो वो आत्मा उसी समय उस शरीर पर हावी होने लगती है और पीड़ा देना प्रारंभ कर देती है | एक दूसरा पहलू इसका मानव स्वयं तांत्रिक साधनाओं को संपन्न करता है और अनेक आसुरी आत्माओं को अपने वश में कर लेता है फिर आदेशानुसार किसी के भी शरीर अंश द्वारा उस आत्मा से पीड़ा पहुंचाना संभव होता है | इन आत्माओं की शक्तिअनुसार वेदानुसार अनेक प्रकार की क्रियाएं हैं जिनके संपन्न करने से स्थूल शरीर इन आसुरी शक्तियों के प्रभाव से दूर रह सकता है |
3) जीव आत्मा के लिए मुक्ति मार्ग
सृष्टि का निर्माण परमात्मा द्वारा जीव आत्माओं से ही किया गया है | प्रत्येक वस्तु पूर्ण सृष्टि में चक्र में ही चलती है उसी प्रकार से हमारी जीव आत्मा भी इस सृष्टि चक्र में जन्म ग्रहण करती है | हमारा जन्म हमारे कर्मों पर आधारित होता है | कर्मों का फल शरीर में मन सुख और दुख के रूप में भोग लेता है |जिस प्रकार से जीव आत्मा अनश्वर है उसी प्रकार से मन भी अनश्वर ही होता है | पूर्ण सृष्टि चक्र में जीव आत्मा और मन को चौरासी लाख योनियों से गुजरना पड़ता है तद पश्चात मानव जन्म प्राप्त होता है | इस चक्र में फंसने से पहले हमारा मन सृष्टि के कल्याण का संकल्प परमात्मा से धारण करता है | उस संकल्प को पूर्ण करने हेतु मानव शरीर में जीव आत्मा को सात बार इस चक्र में जन्म प्राप्त होता है | संकल्प के ज्ञान हेतु मानव को संकल्पमस्तु के मंत्रों का मंथन करना पड़ता है | इन सात जन्मों में भी अगर जीव आत्मा का मन संकल्प के जान तक नहीं पहुंच पाता और उसे पूर्ण नहीं कर पाता तो फिर से इस सृष्टि चक्र में फंस जाता है और युगों तक मानव जन्म तक पहुंचने हेतु जन्म ग्रहण करता रहता है | मानव शरीर की क्रियाओं की वजह से और वैदिक मंत्रों से दूर होने के कारण ही मानव मन दुखी है |
कर्मों का ही प्रभाव हमारी आत्मा पर भी पड़ता है | शरीर धारण करने के पश्चात हमारी आत्मा भी शरीर का ही एक हिस्सा बन जाती है | भावनाओं की उत्पत्ति आत्मा से होती है | शिव और शक्ति द्वारा रचना सृष्टि की होने के कारण हमारी आत्मा का स्वरूप अर्धनारीश्वर का स्वरुप है | इसका ज्ञान मानव को बीज मंत्र से प्राप्त होता है ॐ नम: शिवाय स्त्री भाव देव भाव और पुरुष भाव राक्षस भाव माना गया है | काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार इन पांच तरह की भावनाओं की व्याख्या देवभाव और राक्षस भाव में ही की जाती है | जिस प्रकार से ज्योतिष शास्त्र कहता है पहले बना प्रारब्ध फिर बना शरीर | शरीर की रचना तो मन को दिए गए संकल्प के अनुसार प्राणी की माता के गर्भ में हो जाती है |
पूर्ण मानव का शरीर वायु मंडल में होने के कारण हमारा कोई भी कर्म वायु से छुपाया नहीं जा सकता इसलिए प्रत्यक्ष समय कलयुग में मानव बुराई की ओर चल पड़ा और सृष्टि को उथल-पुथल कर बैठा | कर्मानव की मृत्यु के समय मस्तिष्क से बिंदू स्वरुप मन हट जाता है | पूर्ण शरीर की क्रियाएं ऊर्जा से चलती हैं | मन स्थान से हटने के कारण ऊर्जा का बहाव शरीर में बंद हो जाता है | इसके पश्चात मन द्वारा किए गए कर्मोें का हिसाब-किताब होना शुरू होता है | पाप और पुण्य के भोग ही आत्मा जन्मों द्वारा सृष्टि में भोगती है | देह का संस्कार अग्नि द्वारा करने का माध्यम भी इसलिए है कि इस मिट्टी रूपी शरीर को जल्द से जल्द अग्नि को समर्पित कर दिया जाए | क्योंकि मन द्वारा संपन्न किए गए पाप कर्मों की सजा आत्मा शरीर को देती ही है | जिस प्रकार शरीर में दस द्वार होते हैं इस आत्मा के बाहर जाने हेतु | ग्यारहवां द्वार कपाल में ब्रह्म द्वारा होता है जहां से रूद्र रूप शरीर में इसे अमर करने हेतु शिव प्रवेश करते हैं | हृदय से निकल कर बाहर जाने तक के समय में शरीर बहुत पीड़ा महसूस करता है | आत्मा के बाहर निकलने का समय भी शरीर द्वारा संपन्न किए गए पाप कर्मों पर आधारित होता है | अच्छे बुरे कर्मों का फल मन जीवन में भोगा लेता है दुख और सुख के रूप में | उल्टे और सीधे कर्मों का फल शरीर भोगता है रोगी और निरोगी बनकर और पाप व पुण्य कर्मों का फल जीव आत्मा भोगती है जन्म ग्रहण कर इस सृष्टि चक्र में |
प्रत्यक्ष समय में मानव मृत्यु पश्चात शरीर के साथ दो क्रियाएं करता नजर आ रहा है दफनाना (गाड़ना) और जलाना | दफनाने की क्रिया में हमारी आत्मा हमारे शरीर द्वारा किए गए पाप कर्मों की सजा तो शरीर के द्वार से निकलते समय दे ही देती है परंतु मन को दिया गया संकल्प पूर्ण न हो पाने की वजह से उसी मन की रचना फिर से सृष्टि में हो ही जाती है | हमारी आत्मा का स्वरुप मन में मिल जाने से बिल्कुल धीमा हो जाता है | पाप कर्मों की पीड़ा अधिक भयानक होती है क्योंकि जिस द्वार से निकलेगी वहां अग्नि की पीड़ा शरीर प्राप्त करेगा | पंचभूत शरीर में प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय दशवायु तथा जीवात्मा ये ही ग्यारह रूद्र होते है जो पाप कर्मों की तरह मन को ले जाते हैं | रूद्र प्रलयंकारी होता है और शिव कल्याणकारी होता है |सृष्टि चक्र से मुक्ति तो मन और जीव आत्मा को तब मिलती है जब परमात्मा से लिया संकल्प प्राणी पूर्ण कर लेता है |

त्रि ग्रंथि में फसी आत्मा को त्रिबंध से मुक्त करना

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🍃तीन ग्रन्थि से आबद्ध आत्मा को जीवधारी, प्राणी या नर पशु माना गया है।
🍃वही भव बन्धनों में बँधा हुआ कोल्हू के बैल की तरह परायों के लिए श्रम करता रहा है।
🍃ग्रन्थियों को युक्ति पूर्वक खोलना पड़ता है। बन्धनों को बंधो और मुद्राओ आदि साधनों से काटना पड़ता है।
🍃योगाभ्यास के साधना प्रकरण में आत्मा को भव बन्धनों में जकड़ने वाली तीन ग्रन्थियों को खोलने के लिए तीन मुख्य बंध बताये गए है
🍃वे करने में सुगम किन्तु प्रतिफल की दृष्टि से आश्चर्यजनक हैं।
🍃ब्रह्म ग्रन्थि के उन्मूलन के लिए मूलबंध।
🍃विष्णु ग्रन्थि खोलने के लिए उड्डियानबंध
🍃रुद्र ग्रन्थि खोलने के लिए जालन्धर बन्ध की
🍃 …..साधनाओं का विधान है। इन्हें करते रहने से आत्मा की बन्धन मुक्ति प्रयोजन में सफलता सहायता मिलती है।
🍃मूलबंध:–के दो आधार हैं। एक मल मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एड़ी का हलका दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेंद्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना।
इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना।
🍃दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाये और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी एड़ी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाये। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हलका हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है।
🍃दूसरा साधन::–संकल्प शक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाये और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाये। गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियां भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही सांस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरम्भ में 10 बार करनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है।
🍃यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या वज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिए कि कामोत्तेजना का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसककर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है
🍃……..और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र तक पहुंच रहा है। यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है।
🍃उड्डियान बंध::–दूसरा बन्ध उड्डियान है। इसमें पेट को फुलाना और सिकोड़ना पड़ता है। सामान्य आसन में बैठकर मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठना चाहिए और पेट को सिकोड़ने फुलाने का क्रम चलाना चाहिए।
इस स्थिति में सांस खींचें और पेट को जितना फुला सकें, फुलायें फिर साँस छोड़ें और साथ ही पेट को जितना भीतर ले जा सकें ले जायें। ऐसा बार-बार करना चाहिए साँस खींचने और निकलने की क्रिया धीरे-धीरे करें ताकि पेट को पूरी तरह फैलने और पूरी तरह ऊपर खिंचने में समय लगे। जल्दी न हो।
🍃इस क्रिया के साथ भावना करनी चाहिए कि पेट के भीतरी अवयवों का व्यायाम हो रहा है उनकी सक्रियता बढ़ रही है।
🍃जालंधर बंध::–तीसरा जालन्धर बंध है। इसमें पालथी मारकर सीधा बैठा जाता है। रीढ़ सीधी रखनी पड़ती है। ठोड़ी को झुकाकर छाती से लगाने का प्रयत्न करना पड़ता है। ठोड़ी जितनी सीमा तक छाती से लगा सके उतने पर ही सन्तोष करना चाहिए। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। अन्यथा गरदन को झटका लगने और दर्द होने लगने जैसा जोखिम रहेगा।
इस क्रिया में भी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा कर देने का क्रम चलाया जाये। सांस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिए। इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है। इससे मस्तिष्क शोधन का ‘कपाल भाति’ जैसा लाभ होता है। बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दोनों ही जगते हैं। यही भावना मन में करनी चाहिए कि अहंकार छट रहा है और नम्रता भरी सज्जनता का विकास हो रहा है।
🍃”तीन ग्रन्थियों को बन्धन मुक्त करने में उपरोक्त तीन बन्धों का निर्धारण है।”
🍃 इन क्रियाओं को करते और समाप्त करते हुए मन ही मन संकल्प दुहराना चाहिए कि यह सारा अभ्यास भव बन्धन हेतु किया जा रहा है
🍃””भव बन्धनों से मुक्ति जीवित अवस्था में ही होती है। मुक्ति मरने के बाद मिलेगी ऐसा नहीं सोचना चाहिए।”” जन्म-मरण से छुटकारा पाने जैसी बात सोचना व्यर्थ है।
🍃आत्मकल्याण और लोक मंगल का अभ्यास करने के लिए कई जन्म लेने पड़ें तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।

बगलामुखी साधना

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बगल स्तोत्र , कवच एवम् अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र

मित्रों
माँ बगलामुखी १० महाविद्याओं में आठवां
स्वरुप हैं। ये महाविद्यायें भोग और मोक्ष दोनों
को देने वाली हैं। सांख़यायन तन्त्र के अनुसार
बगलामुखी को सिद्घ विद्या कहा गया है।
तन्त्र शास्त्र में इसे ब्रह्मास्त्र, स्तंभिनी
विद्या, मंत्र संजीवनी विद्या तथा प्राणी
प्रज्ञापहारका एवं षट्कर्माधार विद्या के
नाम से भी अभिहित किया गया है।
सांख़यायन तंत्र के अनुसार ‘कलौ जागर्ति
पीतांबरा।’ अर्थात कलियुग के तमाम संकटों के
निराकरण में भगवती पीता बरा की साधना
उत्तम मानी गई है। अतः आधि व्याधि से त्रस्त
वर्तमान समय में मानव मात्र माँ पीतांबरा की
साधना कर अत्यन्त विस्मयोत्पादक अलौकिक
सिद्घियों को अर्जित कर अपनी समस्त
अभिलाषाओं को प्राप्त कर सकता है।
बगलामुखी की साधना से साधक भयरहित हो
जाता है और शत्रु से उसकी रक्षा होती है।
बगलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक, शत्रुविनाशक
एवं स्तंभनात्मक है। यजुर्वेद के पंचम अध्याय में
‘रक्षोघ्न सूक्त’ में इसका वर्णन है।
इसका आविर्भाव प्रथम युग में बताया गया है।
देवी बगलामुखी जी की प्राकट्य कथा इस
प्रकार है जिसके अनुसार :-
एक बार सतयुग में महाविनाश उत्पन्न करने वाला
ब्रह्मांडीय तूफान उत्पन्न हुआ, जिससे संपूर्ण
विश्व नष्ट होने लगा इससे चारों ओर हाहाकार
मच जाता है और अनेकों लोक संकट में पड़ गए और
संसार की रक्षा करना असंभव हो गया. यह
तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता
जा रहा था, जिसे देख कर भगवान विष्णु जी
चिंतित हो गए.
इस समस्या का कोई हल न पा कर वह भगवान
शिव को स्मरण करने लगे तब भगवान शिव उनसे
कहते हैं कि शक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई इस
विनाश को रोक नहीं सकता अत: आप उनकी
शरण में जाएँ, तब भगवान विष्णु ने हरिद्रा सरोवर
के निकट पहुँच कर कठोर तप करते हैं. भगवान विष्णु
ने तप करके महात्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न किया
देवी शक्ति उनकी साधना से प्रसन्न हुई और
सौराष्ट्र क्षेत्र की हरिद्रा झील में जलक्रीडा
करती श्रीविद्या के के हृदय से दिव्य तेज उत्पन्न
हुआ और तेज से भगवती पीतांबरा का प्राकट्य
हुआ
उस समय चतुर्दशी की रात्रि को देवी
बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई, त्र्येलोक्य
स्तम्भिनी महाविद्या भगवती बगलामुखी नें
प्रसन्न हो कर विष्णु जी को इच्छित वर दिया
और तब सृष्टि का विनाश रूक सका.जब समस्त
संसार के नाश के लिए प्रकृति में आंधी तूफान
आया उस समय विष्णु भगवान संसार की रक्षा के
लिये तपस्या करने लगे।
उनकी तपस्या से सौराष्ट्र में पीत सरोवर में ।
इनका आविर्भाव वीर रात्रि को माना गया
है। शक्ति संग तंत्र के काली खंड के त्रयोदश पटल
में वीर रात्रि का वर्णन इस प्रकार है
चतुर्दशी संक्रमश्च कुलर्क्ष कुलवासरः अर्ध रात्रौ
यथा योगो वीर रात्रिः प्रकीर्तिता।
भगवती पीतांबरा के मंत्र का छंद वृहती है। ऋषि
ब्रह्मा हैं, जो सर्व प्रकार की वृद्घि करने वाले
हैं। भगवती सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं।
इसके भक्त धन धान्य से पूर्ण रहते हैं।
भगवती पीतांबरा की पूजा पीतोपचार से
होती है। पीतपुष्ष, पीत वस्त्र, हरिद्रा की
माला, पीत नैवेद्य आदि पीतरंग इनको प्रिय हैं।
इनकी पूजा में प्रयुक्त की जाने वाली हर वस्तु
पीले रंग की ही होती है।
भगवती के अनेक साधकों का वर्णन तंत्र ग्रंथों में
उपलब्ध है। सर्व प्रथम ब्रह्मास्त्र रूपिणी बगला
महाविद्या का उपदेश ब्रह्माजी ने सनकादि
ऋषियों को दिया। वहाँ से नारद, परशुराम
आदि को इस महाविद्या का उपदेश हुआ।
भगवान परशुराम शाक्तमार्ग के आचार्य हैं।
भगवान परशुराम को स्तंभन शक्ति प्राप्त थी।
स्तंभन शक्ति के बल से शत्रु को पराजित करते थे।
देवी बगलामुखी को ब्रह्मास्त्र विद्या भी
कहते हैं क्यूंकि ये स्वयं ब्रह्मास्त्र रूपिणी हैं, इनके
शिव को एकवक्त्र महारुद्र कहा जाता है इसी
लिए देवी सिद्ध विद्या हैं. तांत्रिक इन्हें स्तंभन
की देवी मानते हैं, गृहस्थों के लिए देवी समस्त
प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं.
माँ बगलामुखी का बीज मंत्र :- ह्लीं
मूल मंत्र :- !!ॐ ह्लीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां
वाचं मुखं पदं
स्तम्भय जिह्वां किलय बुध्दिं विनाशय ह्लीं ॐ
स्वाहा!!
ग्रंथों के अनुसार ये मन्त्र सवा लाख जप कर के
सिद्ध हो जाता है किन्तु वास्तविकता कहिये
या कलयुग के प्रभाव से ये इससे १० या और बी कई
गुना अधिक जप के बाद ही सिद्ध होता है।
ये एक अति उग्र मंत्र है और गलत उच्चारण जप करने
पर उल्टा नुकसान भी दे सकता है।
बिना सही विधि के जप करने पर मन्त्र में शत्रु के
नाश के लिए कही गयी बातें स्वयं पर ही असर कर
सकती है अतः गुरु से दीक्षा लेने और विधान
जानने के बाद ही माँ का जप या साधना करनी
चाहिए।
दूसरी बात माँ का मूल मंत्र जो की सबसे
प्रचलित भी है इसका असर दिखने में काफी समय
लगता है या यूँ कहिये की माँ साधक के धैर्य की
परीक्षा लेती हैं और उसके बाद ही अपनी कृपा
का अमृत बरसाती हैं।
माँ का मूल मन्त्र करने से पूर्व गायत्री मंत्र या
बीज मन्त्र या माँ का ही कोई अन्य सौम्य मंत्र
कर लिया जाये तो इसका प्रभाव शीघ्र
मिलता है।
जप आरम्भ करने से पूर्व बगलामुखी कवच और
अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र का पथ करने से साधक
सब प्रकार की बाधाओं और जप/ साधना में
विघ्न उत्पन्न करने वाली शक्तियों से सुरक्षित
रहता है और सफल होता है।
शास्त्रानुसार यदि सिर्फ कवच और अष्टोत्तर
शतनाम स्तोत्र का ही १००० बार निर्विघ्न रूप
से साधनात्मक तरीके से पाठ कर लिया जाये
तो ये जागृत हो जाते हैं और फिर साधक इनके
माध्यम से भी कई कर संपन्न कर सकता है।
बगलामुखी स्तोत्र
नमो देवि बगले! चिदानंद रूपे, नमस्ते जगद्वश-करे-
सौम्य रूपे।
नमस्ते रिपु ध्वंसकारी त्रिमूर्ति, नमस्ते नमस्ते
नमस्ते नमस्ते।।
सदा पीत वस्त्राढ्य पीत स्वरूपे, रिपु मारणार्थे
गदायुक्त रूपे।
सदेषत् सहासे सदानंद मूर्ते, नमस्ते नमस्ते नमस्ते
नमस्ते।।
त्वमेवासि मातेश्वरी त्वं सखे त्वं, त्वमेवासि
सर्वेश्वरी तारिणी त्वं।
त्वमेवासि शक्तिर्बलं साधकानाम, नमस्ते नमस्ते
नमस्ते नमस्ते।।
रणे, तस्करे घोर दावाग्नि पुष्टे, विपत सागरे दुष्ट
रोगाग्नि प्लुष्टे।।
त्वमेका मतिर्यस्य भक्तेषु चित्ता, सषट
कर्मणानां भवेत्याशु दक्षः।।
बगलामुखी कवचं
श्रुत्वा च बगलापूजां स्तोत्रं चाप महेश्वर ।
इदानी श्रोतुमिच्छामि कवचं वद मे प्रभो ॥ १ ॥
वैरिनाशकरं दिव्यं सर्वाSशुभविनाशनम् ।
शुभदं स्मरणात्पुण्यं त्राहि मां दु:खनाशनम् ॥२॥
———–
श्रीभैरव उवाच :
कवचं शृणु वक्ष्यामि भैरवीप्राणवल्लभम् ।
पठित्वा धारयित्वा तु त्रैलोक्ये विजयी भवेत्
॥३॥
—————
ॐ अस्य श्री बगलामुखीकवचस्य नारद ऋषि: ।
अनुष्टप्छन्द: । बगलामुखी देवता । लं बीजम् ।
ऐं कीलकम् पुरुषार्थचष्टयसिद्धये जपे विनियोग:
ॐ शिरो मे बगला पातु हृदयैकाक्षरी परा ।
ॐ ह्ली ॐ मे ललाटे च बगला वैरिनाशिनी ॥१॥
गदाहस्ता सदा पातु मुखं मे मोक्षदायिनी ।
वैरिजिह्वाधरा पातु कण्ठं मे वगलामुखी ॥२॥
उदरं नाभिदेशं च पातु नित्य परात्परा ।
परात्परतरा पातु मम गुह्यं सुरेश्वरी ॥३॥
हस्तौ चैव तथा पादौ पार्वती परिपातु मे ।
विवादे विषमे घोरे संग्रामे रिपुसङ्कटे ॥४॥
पीताम्बरधरा पातु सर्वाङ्गी शिवनर्तकी ।
श्रीविद्या समय पातु मातङ्गी पूरिता शिवा
॥५॥
पातु पुत्रं सुतांश्चैव कलत्रं कालिका मम ।
पातु नित्य भ्रातरं में पितरं शूलिनी सदा ॥६॥
रंध्र हि बगलादेव्या: कवचं मन्मुखोदितम् ।
न वै देयममुख्याय सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ ७॥
पाठनाद्धारणादस्य पूजनाद्वाञ्छतं लभेत् ।
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् बगलामुखीम् ॥८॥
पिवन्ति शोणितं तस्य योगिन्य: प्राप्य
सादरा: ।
वश्ये चाकर्षणो चैव मारणे मोहने तथा ॥९॥
महाभये विपत्तौ च पठेद्वा पाठयेत्तु य: ।
तस्य सर्वार्थसिद्धि: स्याद् भक्तियुक्तस्य
पार्वति ॥१०॥
—————–
(इति श्रीरुद्रयामले बगलामुखी कवचं सम्पूर्ण )
माता बगलामुखी अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र
————————–
ब्रह्मास्त्ररुपिणी देवी माता श्रीबगलामुखी
चिच्छिक्तिर्ज्ञान-रुपा च ब्रह्मानन्द-प्र
दायिनी ।। १ ।।
महाविद्या महालक्ष्मी श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी ।
भुवनेशी जगन्माता पार्वती सर्वमंगला ।। २ ।।
ललिता भैरवी शान्ता अन्नपूर्णा कुलेश्वरी ।
वाराही छीन्नमस्ता च तारा काली सरस्वती
।।
३ ।।
जगत्पूज्या महामाया कामेशी भगमालिनी ।
दक्षपुत्री शिवांकस्था शिवरुपा शिवप्रिया
।। ४
।।
सर्व-सम्पत्करी देवी सर्वलोक वशंकरी ।
विदविद्या महापूज्या भक्ताद्वेषी भयंकरी ।।
।।
स्तम्भ-रुपा स्तम्भिनी च दुष्टस्तम्भनकारिणी ।
भक्तप्रिया महाभोगा श्रीविद्या
ललिताम्बिका ।।
६ ।।
मैनापुत्री शिवानन्दा मातंगी भुवनेश्वरी ।
नारसिंही नरेन्द्रा च नृपाराध्या नरोत्तमा ।।
।।
नागिनी नागपुत्री च नगराजसुता उमा ।
पीताम्बा पीतपुष्पा च पीतवस्त्रप्रिया शुभा
।।
८ ।।
पीतगन्धप्रिया रामा पीतरत्नार्चिता
शिवा ।
अर्द्धचन्द्रधरी देवी गदामुद्गरधारिणी ।। ९ ।।
सावित्री त्रिपदा शुद्धा सद्योराग
विवर्धिनी ।
विष्णुरुपा जगन्मोहा ब्रह्मरुपा हरिप्रिया ।।
१०
।।
रुद्ररुपा रुद्रशक्तिश्चिन्मयी भक्तवत्सला ।
लोकमाता शिवा सन्ध्या शिवपूजनतत्परा ।।
११
।।
धनाध्यक्षा धनेशी च नर्मदा धनदा धना ।
चण्डदर्पहरी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी ।। १२ ।।
राजराजेश्वरी देवी महिषासुरमर्दिनी ।
मधूकैटभहन्त्री देवी रक्तबीजविनाशिनी ।। १३
।।
धूम्राक्षदैत्यहन्त्री च भण्डासुर विनाशिनी ।
रेणुपुत्री महामाया भ्रामरी भ्रमराम्बिका ।।
१४
।।
ज्वालामुखी भद्रकाली बगला शत्रुनाशिनी ।
इन्द्राणी इन्द्रपूज्या च गुहमाता गुणेश्वरी ।। १५
।।
वज्रपाशधरा देवी ज्ह्वामुद्गरधारिणी ।
भक्तानन्दकरी देवी बगला परमेश्वरी ।। १६ ।।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां बगलायास्तु यः पठेत् ।
रिपुबाधाविनिर्मुक्तः लक्ष्मीस्थैर्यम
वाप्नुयात् ।।
१७ ।।
भूतप्रेतपिशाचाश्च ग्रहपीड़ानिवारणम् ।
राजानो वशमायांति सर्वैश्वर्यं च विन्दति ।।
१८
।।
नानाविद्यां च लभते राज्यं प्राप्नोति
निश्चितम्
भुक्तिमुक्तिमवाप्नोति साक्षात् शिवसमो
भवेत् ।।
(श्री रुद्रयामले सर्वसिद्धिप्रद बगला
अष्टोत्तरशतनाम स्त्रोत्रम )
बगुलामुखी यन्त्र
आज के इस भागदौड़ के युग में श्री बगलामुखी यंत्र
की साधना अन्य किसी भी साधना से अधिक
उपयोगी है। यह एक परीक्षित और अनुभवसिद्ध
तथ्य है। इसे गले में पहनने के साथ-साथ पूजा घर में
भी रख सकते हैं। इस यंत्र की पूजा पीले दाने, पीले
वस्त्र, पीले आसन पर बैठकर निम्न मंत्र को
प्रतिदिन जप करते हुए करनी चाहिए। अपनी
सफलता के लिए कोई भी व्यक्ति इस यंत्र का
उपयोग कर सकता है। इसका वास्तविक रूप में
प्रयोग किया गया है। इसे अच्छी तरह से अनेक
लोगों पर उपयोग करके देखा गया है।
शास्त्रानुसार और वरिष्ठ सड़कों के अनुभव के
अनुसार जिस घर में यह महायंत्र स्थापित होता
है, उस घर पर कभी भी शत्रु या किसी भी
प्रकार की विपत्ति हावी नहीं हो सकती। न
उस घर के किसी सदस्य पर आक्रमण हो सकता है, न
ही उस परिवार में किसी की अकाल मृत्यु हो
सकती है। इसीलिए इसे महायंत्र की संज्ञा दी
गई है। इससे दृश्य/अदृश्य बाधाएं समाप्त होती
हैं। यह यंत्र अपनी पूर्ण प्रखरता से प्रभाव
दिखाता है। उसके शारीरिक और मानसिक
रोगों तथा ऋण, दरिद्रता आदि से उसे मुक्ति
मिल जाती है। वहीं उसकी पत्नी और पुत्र सही
मार्ग पर आकर उसकी सहायता करते हैं। उसके
विश्वासघाती मित्र और व्यापार में
साझीदार उसके अनुकूल हो जाते हैं।
शत्रुओं के शमन (चाहे बाहरी हो या घरेलू कलह ,
दरिद्रता या शराब / नशे व्यसन रूप में भीतरी
शत्रु ),रोजगार या व्यापार आदि में आनेवाली
बाधाओं से मुक्ति, मुकदमे में सफलता के लिए ,
टोने टोटकों के प्रभाव से बचाव आदि के लिए
किसी साधक के द्वारा सिद्ध मुहूर्त में
निर्मित, बगलामुखी तंत्र से अभिसिंचित तथा
प्राण प्रतिष्ठित श्री बगलामुखी यंत्र घर में
स्थापित करना चाहिए या कवच रूप में धारण
करना चाहिए।
बगलामुखी हवन
१) वशीकरण : मधु, घी और शर्करा मिश्रित तिल
से किया जाने वाला हवन (होम) मनुष्यों को
वश में करने वाला माना गया है। यह हवन
आकर्षण बढ़ाता है।
२) विद्वेषण : तेल से सिक्त नीम के पत्तों से
किया जाने वाला हवन विद्वेष दूर करता है।
३) शत्रु नाश : रात्रि में श्मशान की अग्नि में
कोयले, घर के धूम, राई और माहिष गुग्गल के होम
से शत्रु का शमन होता है।
४) उच्चाटन : गिद्ध तथा कौए के पंख, कड़वे तेल,
बहेड़े, घर के धूम और चिता की अग्नि से होम करने
से साधक के शत्रुओं को उच्चाटन लग जाता है।
५) रोग नाश : दूब, गुरुच और लावा को मधु, घी
और शक्कर के साथ मिलाकर होम करने पर साधक
सभी रोगों को मात्र देखकर दूर कर देता है।
६ ) मनोकामना पूर्ति : कामनाओं की सिद्धि
के लिए पर्वत पर, महावन में, नदी के तट पर या
शिवालय में एक लाख जप करें।
७) विष नाश / स्तम्भन :
एक रंग की गाय के दूध में मधु और शक्कर मिलाकर
उसे तीन सौ मंत्रांे से अभिमंत्रित करके पीने से
सभी विषों की शक्ति समाप्त हो जाती है
और साधक शत्रुओं की शक्ति तथा बुद्धि का
स्तम्भन करने में सक्षम होता है।
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