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Saturday, 12 May 2018

मूलबंध : ब्रह्रम्‍चर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि

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मूलबंध : ब्रह्रम्‍चर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि
जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। लेकिन साधारणत: तुम्‍हारी जीवन-ऊर्जा नीचे की और प्रवाहित हो रही है। इसलिए तुम्‍हारी सब जीवन ऊर्जा अनंत वासना बन जाती है। काम वासना तुम्‍हारा निम्‍नतम चक्र है। तुम्‍हारी ऊर्जा नीचे गिर रही है। और सारी ऊर्जा काम केन्‍द्र पर इकट्ठी हो जाती है। इस लिए तुम्‍हारी सारी शक्ति कामवासना बन जाती है। एक छोटा सा प्रयोग, जब भी तुम्‍हारे मन में कामवासना उठे तो, ड़रो मत शांत होकर बैठ जाऔ। जोर से श्‍वास को बहार फेंको—उच्‍छवास। भीतर मत लो श्‍वास को— क्‍योंकि जैसे भी तुम भीतर गहरी श्‍वास को लोगे, भीतर जाती श्‍वास काम ऊर्जा को नीचे की धकाती है।
जब सारी श्‍वास बहार फिंक जाती है, तो तुम्‍हारा पेट और नाभि‍ वैक्‍यूम हो जाती है, शून्‍य हो जाती है। और जहां कहीं शून्‍य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्‍य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्‍य खींचता है, क्‍योंकि प्रकृति शून्‍य को बरदाश्‍त नहीं करती, शून्‍य को भरती है। तुम्‍हारी नाभि के पास शून्‍य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्‍क्षण नाभि की तरफ अठ जाती है, और तुम्‍हें बड़ा रस मिलेगा—जब तुम पहली दफ़ा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि‍ में उठ गई। तुम पाओगें, सारा तन एक गहन स्‍वास्‍थ्‍य से भर गया। एक ताजगी, ठीक वैसी ही ताजगी का अनुभव करोगे जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है। वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए, तो तुम्‍हें हर्ष का अनुभव होगा। एक प्रफुल्‍लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरू हुआ, तुम ज्‍यादा शक्तिशाली, ज्‍यादा सौमनस्‍यपूर्ण, ज्‍यादा उत्‍फुल्‍ल, सक्रिय, अन-थके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे। जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो, और ताजगी ने घेर लिया है।
इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने सतत साधना बना ली—और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता; तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर स‍कते हो, तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, दफ़तर में काम करते हुए कर सकते हो, कुर्सी पर बैठे हुए, कब तुमने चुपचाप अपने पेट को को भीतर खींच लिया। एक क्षण में ऊर्जा ऊपर की तरफ स्‍फुरण कर जाती है। अगर एक व्‍यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह मैं सुगमंतम मार्ग कह रहा हूँ, जो ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का हो सकता है। फिर और कठिन मार्ग हैं, जिनके लिए सारा जीवन छोड़ कर जाना पड़ेगा। पर कोई जरूरत नहीं है। बस, तुमने एक बात सीख ली कि ऊर्जा कैसे नाभि तक जाए शेष तुम्‍हें चिंता नहीं करनी है। तुम ऊर्जा को, जब भी कामवासना उठे नाभि में इक्ट्ठा करते जाओ। जैसे-जैसे ऊर्जा बढ़ेगी नाभि में, अपने आप ऊपर की तरफ उठने लगेगी। जैसे बर्तन में पानी बढ़ता जाए, तो पानी की सतह ऊपर उठती जाए।
असली बात मूलाधार का बंद हो जाना है। घड़े के नीचे का छेद बंद हो गया, ऊर्जा इकट्ठी होती जाएगी, घड़ा अपने आप भरता जाएगा। एक दिन अचानक पाओगें कि धीरे-धीरे नाभि के ऊपर ऊर्जा आ रही है, तुम्‍हारा ह्रदय एक नई संवेदना से आप्‍लावित हुआ जा रहा है। जिस दिन ह्रदय चक्र पर आएगी तुम्‍हारी ऊर्जा, तुम पाओगें कि तुम भर गये प्रेम से। तुम जहां भी ऊठोगे, बैठोगे, तुम्‍हारे चारों तरफ एक हवा बहने लगेगी प्रेम की। दूसरे लोग भी अनुभव करेंगे कि तुममें कुछ बदल गया है। तुम अब वह नहीं रहे हो, तुम किसी और तरंग पर बैठ गये हो। तुम्‍हारे साथ कोई और लहर भी आती है—कि उदास प्रसन्‍न हो जाते है, कि दुःखी थोड़ी देर को दुःख भूल जाते है, कि अशांत शांत हो जाते है, कि तुम जिसे छू देते हो, उस पर ही एक छोटी सी प्रेम की वर्षा हो जाती है। लेकिन, ह्रदय में ऊर्जा आएगी, तभी यह होगा।
ऊर्जा जब बढ़ेगी, ह्रदय से कंठ में आएगी, तब तुम्‍हारी वाणी में माधुर्य आ जाएगा। तब तुम्‍हारी वाणी में एक संगीत, एक सौंदर्य आ जाएगा। तुम साधारण से शब्‍द बोलोगे और उन शब्‍दों में काव्‍य होगा। तुम दो शब्‍द किसी से कह दोगे और उसे तृप्‍त कर दोगे। तुम चुप भी रहोगे, तो तुम्‍हारे मौन में भी संदेश छिप जाएंगे। तुम न भी बोलोगे तो तुम्‍हारा अस्तित्‍व बोलेगा। ऊर्जा कंठ पर आ गई।
ऊर्जा ऊपर उठती जाती है। एक घड़ी आती है कि तुम्‍हारे नेत्र पर ऊर्जा का आविर्भाव होता है। तब तुम्‍हे पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होता है। तुम अंधे नहीं होते। उससे पहले तुम अंधे हो। क्‍योंकि उसके पहले तुम्‍हें आकार दिखाई पड़ते है, निराकार नहीं दिखाई पड़ता; और वही असली में है। सब आकारों में छिपा है‍ निराकार। आकार तो मूलाधार में बंधी हुई ऊर्जा के कारण दिखाई पड़ते है। अन्‍यथा कोई आकार नहीं है।
मूलाधार अंधा चक्र है। इस लिए तो कामवासना को अंधी कहते है। वह अंधी है। उसके पास आँख बिलकुल नहीं है। आँख तो खुलती है—तुम्‍हारी असली आँख, जब तीसरे नेत्र पर ऊर्जा आकर प्रकट होती है। जब लहरे तीसरे नेत्र को छूने लगती हैं। तीसरे नेत्र के किनारे पर जब तुम्‍हारी ऊर्जा की लहरे आकर टकराने लगती है, पहले दफ़ा तुम्‍हारे भीतर दर्शन की क्षमता जागती है। दर्शन की क्षमता, विचार की क्षमता का नाम नहीं है। दर्शन की क्षमता देखने की क्षमता है। वह साक्षात्‍कार है। जब बुद्ध कुछ कहते है, तो देख कर कहते है। वह उनका अपना अनुभव है। अनानुभूत शब्‍दों का क्‍या अर्थ है ? केवल अनुभूत शब्‍दों में सार्थकता होती है।
ऊर्जा जब तीसरी आँख में प्रवेश करती है। तो अनुभव शुरू होता है, और ऐसे व्‍यक्ति के वचनों में तर्क का बल नहीं होता, सत्‍य का बल होता है। ऐसे व्‍यक्ति के वचनों में एक प्रामाणिकता होती है, जो वचनों के भीतर से आती है। किन्‍हीं बाह्रा प्रमाणों के आधार पर नहीं। ऐसे व्‍यक्ति के वचन को ही हम शास्‍त्र कहते है। ऐसे व्‍यक्ति के वचन वेद बन जाते है। जिसने जाना है, जिसने परमात्‍मा को चखा है, जिसने पीया है, जिसने परमात्‍मा को पचाया है, जो परमात्‍मा के साथ एक हो गया है।
फिर ऊर्जा और ऊपर जाती है। सहस्‍त्रार को छूती है। पहला सबसे नीचा केंद्र मूलाधार चक्र है, मूलबंध, और अंतिम चक्र है, सहस्‍त्रार। क्‍योंकि वह ऐसा है, जैसे सहस्‍त्र पंखुडि़यों वाला कमल। बड़ा सुंदर है, और जब खिलता है तो भीतर ऐसी ही प्रतीति होती है, जैसे पूरा व्‍यक्तित्‍व सहस्‍त्र पंखूडि़यों वाला कमल हो गया है। पूरा व्‍यक्तित्‍व खिल गया ।
जब ऊर्जा टकराती है सहस्‍त्र से, तो उसकी पंखुडि़यां खिलनी शुरू हो जाती है। सहस्‍त्रार के खिलते ही व्‍यक्तित्‍व से आनंद का झरना बहने लगता है। मीरा उसी क्षण नाचने लगती है। उसी क्षण चैतन्‍य महाप्रभु उन्‍मुक्‍त हो नाच उठते है। चेतना तो प्रसन्‍न होती ही है, रोआं-रोआं शरीर का आन्ंदित हो उठता है। आनंद की लहर ऐसी बहती है कि मुर्दा भी—शरीर तो मुर्दा है—वह भी नाचते लगता है।

प्रबल पुष्प वशीकरण

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पुष्प द्वारा वशीकरण के लिए मन्त्र
|| ॐ नमो आदेश गुरु का
कामरू देश कामक्षा देवी
तहां ठे ठे इस्मायल जोगी
जोगी के आंगन फूल क्यारी
फूल चुन चुन लावे लोना चमारी
फूल चल फूल फूल बिगसे
फूल पर वीर नाहरसिंह बसे
जो नहीं फूल का विष
कबहुं न छोड़े मेरी आस
मेरी भक्ति गुरु की शक्ति
फुरो मन्त्र इश्वरोवाचा || 
विधि :- पहले इस मन्त्र को शुभ महूर्त में 11 माला जप करके सिद्ध कर ले फिर गुलाब का फूल लेकर उस पर 21 बार मन्त्र पढकर फूंके और ये फूल जिस स्त्री को दिया जायेगा वो लेने वाले के वश में रहेगी | सोच समझ कर ही ये प्रयोग करे अगर कोई पीछे
पड़ गयी तो छुड़ाना मुश्किल हो जायेगा

मूलबंध कैसे लगाये

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योग में मूलत: पांच प्रकार के बंध है- 1.मूलबंध, 2.उड्डीयान बंध, 3.जालंधर बंध, 4.बंधत्रय और 5.महाबंध। यहां प्रस्तुत है मूलबंध के बारे में जानकारी। गुदाद्वार को सर्वथा बंद कर देने को मूलबंध कहा जाता है।
लाभ और प्रभाव- योग में मूलबंध के बहुत से फायदे बताए गए हैं। इस मुद्रा को करने से शरीर के अंदर जमा कब्ज का रोग समाप्त हो जाता है और भूख भी तेज हो जाती है। शरीर का भारीपन समाप्त होता है और सुस्ती मिटती है।
यौन रोग में लाभदायक : इस बंध के नियमित अभ्यास से यौन ग्रंथियां पुष्ट होकर यौन रोग में लाभ मिलता है। पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में ये मुद्रा बहुत ही लाभकारी मानी जाती है।
इसे करने की विधि- बाएं पांव की एड़ी से गुदाद्वार को दबाकर, फिर दाएं पांव को बाएं पांव की जांघ पर रखकर सिद्धासन में बैठें। इसके बाद गुदा को संकुचित करते हुए नीचे की वायु को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें। सिद्धासन में एड़ी के द्वारा ही यह काम लिया जाता है।
सिद्धासन में बैठे तब दोनों घुटने जमीन को छूते हुए होने चाहिए तथा हथेलियां उन घुटनों पर टिकी होनी चाहिए। फिर गहरी श्वास लेकर वायु को अंदर ही रोक लें। इसके बाद गुदाद्वार को पूरी तरह से सिकोड़ लें। अब श्वास को रोककर रखने के साथ आरामदायक समयावधि तक बंध को बनाए रखें। इस अवस्था में जालंधर बंध भी लगाकर रखें फिर मूलाधार का संकुचन छोड़कर जालंधर बंध को धीरे से खोल दें और धीरे से श्वास को बाहर छोड़ दें। इस अभ्यास को 4 से 5 बार करें।
गुदासंकुचन क्रिया : गुदा को सुं‍कुचित करना और फिर छोड़ देना। इस तरह 15-20 बार करने से गुदा संबंधी समस्त रोग समाप्त हो जाते हैं। इस क्रिया को करने से बवासीर रोग भी समाप्त हो जाता है। मूलबंध के साथ इसका नियमित अभ्यास से उम्र भी बढ़ती है।
निर्देश- इस मूलबंध का अभ्यास किसी जानकार योगाचार्य के निर्देशन में ही करना चाहिए।
बंध मुद्राएँ शरीर की कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं जिनके द्वारा कुंडलिनी सफलतापूर्वक जाग्रत की जा सकती है। घेरंड संहिता में २५ मुद्राओं एवं महत्वपूर्ण हैं:
(१) मूलबंध, (२) जालंधरबंध, (३) उड्डीयानबंध, (४) महामुद्रा, (५) महाबंध, (६) महावेध (७) योगमुद्रा, (८) विपरीतकरणीमुद्रा, (९) खेचरीमुद्रा, (१०) वज्रिणीमुद्रा, (११) शक्तिचालिनीमुद्रा, (१२) योनिमुद्रा।
उपर्युक्त अनेक क्रियाओं का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। किसी किसी अभ्यास में दो या तीन बंधों और मुद्राओं को सम्मिलित करना पड़ता है। यौगिक क्रियाओं का जब नित्य विधिपूर्वक अभ्यास किया जाता है निश्चय ही उनका इच्छित फल मिलता है। मुद्राओं एवं बंधों के प्रयोग करने से मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, बवासीर, खाँसी, दमा, तिल्ली का बढ़ना, योनिरोग, कोढ़ एवं अनेक असाध्य रोग अच्छे हो जाते हैं। ये ब्रहृाचर्य के लिये प्रभावशाली क्रियाएँ हैं। ये आध्यात्मिक उन्नति के लिये अनिवार्य हैं।
घेरंड संहिता में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पार्ष्णिाना वाम पादस्य योनिमाकुचयेत्तत:।
नाभिग्रंथि मेरूदंडे संपीड्य यत्नत: सुधी:।।
मेद्रं दक्षिणामुल्मे तु दृढ़बंध समाचरेत्‌।
जरा विनाशिनी मुद्रा मूलबंधो निगद्यते।।’
गुहृाप्रदेश को बाईं एड़ी संकुचित करके यत्नपूर्वक नाभिग्रंथि को मेरूदंड में दृढ़ता से संयुक्त करे। पुन: नाभि को भीतर खींचकर पीठ से लगाकर फिर उपस्थ को दाहिनी एड़ी से दृढ़ भाव से संबंद्ध करे। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह मुद्रा बुढ़ापे को नष्ट करती है। घेरंड संहिता में मूलबंध का फल इस प्रकार दिया हुआ है: जो मनुष्य संसार रूपी समुद्र को पार करना चाहते हैं उन्हें छिपकर इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से निश्चय ही महत्‌ सिद्धि होती है। अत: साधक आलस्य का परित्याग करके मौन होकर यत्न के साथ इसकी साधना करे।
मतांतर में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
“पादमूलेन संपीड्य गुदमार्ग सुमंत्रितं।
बलादपानमाकृष्य क्रमादूर्द्ध समम्येसेत्‌।
कल्पितीय मूलबंधो जरामरण नाशन:।।’
एड़ी से मध्यप्रदेश का यत्नपूर्वक संपीडन करते हुए अपान वायु की बलपूर्वक धीरे-धीरे ऊपर की ओर खींचना चाहिए। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह बुढ़ापा एवं मृत्यु को नष्ट करता है। इसके द्वारा योनिमुद्रा सिद्ध होती है। इसके प्रभाव से साधक आकाश में उड़ सकते हैं।
मूलबंध के नित्य अभ्यास करने से अपान वायु पूर्णरूपेण नियंत्रित हो जाती है। उदर रोग से मुक्ति हो जाती है। वीर्य रोग हो ही नहीं सकता। मूलबंध का साधक निर्द्वद्व होकर वास्तविक स्वस्थ शरीर से आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करता है। आयु बढ़ जाती है। इसका साधक भौतिक कार्यो को भी उल्लासपूर्वक संपन्न करता है। सभी बंधों में मूलबंध सर्वोच्च एवं शरीर के लिये अत्यंत उपयोगी है।