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Friday 18 May 2018

भगवान श्री कृष्ण सम्बन्धी जपनीय मन्त्र

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(गुरु मंत्र साधना)
भगवान श्री कृष्ण सम्बन्धी जपनीय मन्त्र

भगवान कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार हैं। सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं।  ईस का अवतार राम अवतार के पश्चात द्वापर मे हुआ था भगवान श्री कृष्ण का चरित्र प्रेमसरूप विराट एवं आलौकिक लीला  से युक्त हुआ है । श्री कृष्ण की अनन्त लीला कथाओं मे प्रेम  भकित एवं  समर्पण  के अद्वितीय प्रसंग है ।

जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं।  जैसे राम चरित मानस मे गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है

जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

जब-जब धर्म का नाश होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं और वे ऐसा अन्याय करते हैं तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥
गीता मे भगवान कृष्ण अर्जुन को कहते है

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम !! परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥ साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥ ))
वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनके सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्रीराम और श्रीकृष्ण के ही माने जाते हैं। श्री कृष्ण का जन्म यदुवंशीक्षत्रिय कुल में राजा वृष्णि के वंश में हुआ था ।
अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पाप कृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे। ब्रह्मा तथा शिव -प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। श्रीकृष्ण से ही प्रकृति उत्पन्न हुई। सम्पूर्ण प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के कार्यकार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना की जो अर्जुन और पाण्डवो को माध्यम बनाकर धर्म और अधर्म पर विजय प्राप्त करना  विश्व को  गीता के दिव्य ग्रंथ के रूप मे मानव को भक्त कर्म  और  ज्ञान का अमर संदेश दिया है  जो कलिकाल में धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है

संपूर्ण पृथ्वी दुष्टों एवं पतितों के भार से पीड़ित थी। उस भार को नष्ट करने के लिए भगवान विष्णु ने एक प्रमुख अवतार ग्रहण किया जो कृष्णावतार के नाम से संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध हुआ। उस समय धर्म, यज्ञ, दया पर राक्षसों एवं दानवों द्वारा आघात पहुँचाया जा रहा था।

पृथ्वी पापियों के बोझ से पूर्णतः दब चुकी थी। समस्त देवताओं द्वारा बारम्बार भगवान विष्णु की प्रार्थना की जा रही थी। विष्णु ही ऐसे देवता थे, जो समय-समय पर विभिन्न अवतारों को ग्रहण कर पृथ्वी के भार को दूर करने में सक्षम थे क्योंकि प्रत्येक युग में भगवान विष्णु ने ही महत्वपूर्ण अवतार ग्रहण कर दुष्ट राक्षसों का संहार किया।

ध्यान रहे निम्न मंत्रो किसी भी मंत्र का जप संकलप पूजा-पाठ के बाद आरंभ करना चाहिए।

भगवान श्री कृष्ण के जपनीय मन्त्र

ॐ  श्री कृष्णाय नमः
ॐ क्लीं कृष्णाय नमः
ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दगोवल्लभाय स्वाहा ।
द्वादशाक्षर श्रीकृष्ण मंत्र :
‘ॐ नमो भगवते श्रीगोविन्दाय
ॐ कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे। रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे॥’

कृष्ण गायत्री मंत्र
कृष्ण – सक्रियता, समर्पण, निस्वार्थ व मोह से दूर रहकर काम करने, खूबसूरती व सरल स्वभाव की चाहत कृष्ण गायत्री  मंत्र पूरी करता है –

ॐ देवकीनन्दाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो कृष्णः प्रचोदयात्।
श्री कृष्ण चालीसा (Shri Kris hna Chalisa in Hindi)

॥दोहा॥

बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
अरुण अधर जनु बिम्बफल, नयन कमल अभिराम॥
पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज।
जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज॥

जय यदुनंदन जय जगवंदन।जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
जय यशुदा सुत नन्द दुलारे। जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
जय नटनागर, नाग नथइया॥ कृष्ण कन्हइया धेनु चरइया॥
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो। आओ दीनन कष्ट निवारो॥

वंशी मधुर अधर धरि टेरौ। होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥
आओ हरि पुनि माखन चाखो। आज लाज भारत की राखो॥
गोल कपोल, चिबुक अरुणारे। मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
राजित राजिव नयन विशाला। मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥

कुंडल श्रवण, पीत पट आछे। कटि किंकिणी काछनी काछे॥
नील जलज सुन्दर तनु सोहे। छबि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
मस्तक तिलक, अलक घुँघराले। आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
करि पय पान, पूतनहि तार्यो। अका बका कागासुर मार्यो॥

मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला। भै शीतल लखतहिं नंदलाला॥
सुरपति जब ब्रज चढ़्यो रिसाई। मूसर धार वारि वर्षाई॥
लगत लगत व्रज चहन बहायो। गोवर्धन नख धारि बचायो॥
लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई। मुख मंह चौदह भुवन दिखाई॥

दुष्ट कंस अति उधम मचायो॥ कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें। चरण चिह्न दै निर्भय कीन्हें॥
करि गोपिन संग रास विलासा। सबकी पूरण करी अभिलाषा॥
केतिक महा असुर संहार्यो। कंसहि केस पकड़ि दै मार्यो॥

मातपिता की बन्दि छुड़ाई ।उग्रसेन कहँ राज दिलाई॥
महि से मृतक छहों सुत लायो। मातु देवकी शोक मिटायो॥
भौमासुर मुर दैत्य संहारी। लाये षट दश सहसकुमारी॥
दै भीमहिं तृण चीर सहारा। जरासिंधु राक्षस कहँ मारा॥

असुर बकासुर आदिक मार्यो। भक्तन के तब कष्ट निवार्यो॥
दीन सुदामा के दुःख टार्यो। तंदुल तीन मूंठ मुख डार्यो॥
प्रेम के साग विदुर घर माँगे।दर्योधन के मेवा त्यागे॥
लखी प्रेम की महिमा भारी।ऐसे श्याम दीन हितकारी॥

भारत के पारथ रथ हाँके।लिये चक्र कर नहिं बल थाके॥
निज गीता के ज्ञान सुनाए।भक्तन हृदय सुधा वर्षाए॥
मीरा थी ऐसी मतवाली।विष पी गई बजाकर ताली॥
राना भेजा साँप पिटारी।शालीग्राम बने बनवारी॥

निज माया तुम विधिहिं दिखायो।उर ते संशय सकल मिटायो॥
तब शत निन्दा करि तत्काला।जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
जबहिं द्रौपदी टेर लगाई।दीनानाथ लाज अब जाई॥
तुरतहि वसन बने नंदलाला।बढ़े चीर भै अरि मुँह काला॥

अस अनाथ के नाथ कन्हइया। डूबत भंवर बचावइ नइया॥
सुन्दरदास आ उर धारी।दया दृष्टि कीजै बनवारी॥
नाथ सकल मम कुमति निवारो।क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
खोलो पट अब दर्शन दीजै।बोलो कृष्ण कन्हइया की जै॥

॥दोहा॥

यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि।
अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥

भगवान कृष्ण के 108 नाम (108 Names of Lord Krishna in Hindi)

1 अचला  : भगवान।
2 अच्युत  : अचूक प्रभु, या जिसने कभी भूल ना की हो।
3 अद्भुतह  : अद्भुत प्रभु।
4 आदिदेव  : देवताओं के स्वामी।
5 अदित्या  : देवी अदिति के पुत्र।
6 अजंमा  : जिनकी शक्ति असीम और अनंत हो।
7 अजया  : जीवन और मृत्यु के विजेता।
8 अक्षरा  : अविनाशी प्रभु।
9 अम्रुत  : अमृत जैसा स्वरूप वाले।
10 अनादिह  : सर्वप्रथम हैं जो।
11 आनंद सागर  : कृपा करने वाले
12 अनंता  : अंतहीन देव
13 अनंतजित  : हमेशा विजयी होने वाले।
14 अनया  : जिनका कोई स्वामी न हो।
15 अनिरुध्दा  : जिनका अवरोध न किया जा सके।
16 अपराजीत  : जिन्हें हराया न जा सके।
17 अव्युक्ता  : माणभ की तरह स्पष्ट।
18 बालगोपाल  : भगवान कृष्ण का बाल रूप।
19 बलि  : सर्व शक्तिमान।
20 चतुर्भुज  : चार भुजाओं वाले प्रभु।
21 दानवेंद्रो  : वरदान देने वाले।
22 दयालु  : करुणा के भंडार।
23 दयानिधि  : सब पर दया करने वाले।
24 देवाधिदेव  : देवों के देव
25 देवकीनंदन  : देवकी के लाल (पुत्र)।
26 देवेश  : ईश्वरों के भी ईश्वर
27 धर्माध्यक्ष  : धर्म के स्वामी
28 द्वारकाधीश  : द्वारका के अधिपति।
29 गोपाल  : ग्वालों के साथ खेलने वाले।
30 गोपालप्रिया  : ग्वालों के प्रिय
31 गोविंदा  : गाय, प्रकृति, भूमि को चाहने वाले।
32 ज्ञानेश्वर  : ज्ञान के भगवान
33 हरि  : प्रकृति के देवता।
34 हिरंयगर्भा  : सबसे शक्तिशाली प्रजापति।
35 ऋषिकेश  : सभी इंद्रियों के दाता।
36 जगद्गुरु  : ब्रह्मांड के गुरु
37 जगदिशा  : सभी के रक्षक
38 जगन्नाथ  : ब्रह्मांड के ईश्वर।
39 जनार्धना  : सभी को वरदान देने वाले।
40 जयंतह  : सभी दुश्मनों को पराजित करने वाले।
41 ज्योतिरादित्या : जिनमें सूर्य की चमक है।
42 कमलनाथ  : देवी लक्ष्मी की प्रभु
43 कमलनयन  : जिनके कमल के समान नेत्र हैं।
44 कामसांतक  : कंस का वध करने वाले।
45 कंजलोचन  : जिनके कमल के समान नेत्र हैं।
46 केशव  :
47 कृष्ण  : सांवले रंग वाले।
48 लक्ष्मीकांत  : देवी लक्ष्मी की प्रभु।
49 लोकाध्यक्ष  : तीनों लोक के स्वामी।
50 मदन  : प्रेम के प्रतीक।
माधव  : ज्ञान के भंडार।
52 मधुसूदन  : मधु- दानवों का वध करने वाले।
53 महेंद्र  : इन्द्र के स्वामी।
54 मनमोहन  : सबका मन मोह लेने वाले।
55 मनोहर  : बहुत ही सुंदर रूप रंग वाले प्रभु।
56 मयूर  : मुकुट पर मोर- पंख धारण करने वाले भगवान।
57 मोहन  : सभी को आकर्षित करने वाले।
58 मुरली  : बांसुरी बजाने वाले प्रभु।
59 मुरलीधर : मुरली धारण करने वाले।
60 मुरलीमनोहर  : मुरली बजाकर मोहने वाले।
61 नंद्गोपाल  : नंद बाबा के पुत्र।
62 नारायन  : सबको शरण में लेने वाले।
63 निरंजन  : सर्वोत्तम।
64 निर्गुण  : जिनमें कोई अवगुण नहीं।
65 पद्महस्ता  : जिनके कमल की तरह हाथ हैं।
66 पद्मनाभ  : जिनकी कमल के आकार की नाभि हो।
67 परब्रह्मन  : परम सत्य।
68 परमात्मा  : सभी प्राणियों के प्रभु।
69 परमपुरुष  : श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले।
70 पार्थसार्थी  : अर्जुन के सारथी।
71 प्रजापती  : सभी प्राणियों के नाथ।
72 पुंण्य  : निर्मल व्यक्तित्व।
73 पुर्शोत्तम  : उत्तम पुरुष।
74 रविलोचन  : सूर्य जिनका नेत्र है।
75 सहस्राकाश  : हजार आंख वाले प्रभु।
76 सहस्रजित  : हजारों को जीतने वाले।
77 सहस्रपात  : जिनके हजारों पैर हों।
78 साक्षी  : समस्त देवों के गवाह।
79 सनातन  : जिनका कभी अंत न हो।
80 सर्वजन  : सब- कुछ जानने वाले।
81 सर्वपालक  : सभी का पालन करने वाले।
82 सर्वेश्वर  : समस्त देवों से ऊंचे।
83 सत्यवचन  : सत्य कहने वाले।
84 सत्यव्त  : श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले देव।
85 शंतह  : शांत भाव वाले।
86 श्रेष्ट  : महान।
87 श्रीकांत  : अद्भुत सौंदर्य के स्वामी।
88 श्याम  : जिनका रंग सांवला हो।
89 श्यामसुंदर  : सांवले रंग में भी सुंदर दिखने वाले।
90 सुदर्शन  : रूपवान।
91 सुमेध  : सर्वज्ञानी।
92 सुरेशम  : सभी जीव- जंतुओं के देव।
93 स्वर्गपति  : स्वर्ग के राजा।
94 त्रिविक्रमा  : तीनों लोकों के विजेता
95 उपेंद्र  : इन्द्र के भाई।
96 वैकुंठनाथ  : स्वर्ग के रहने वाले।
97 वर्धमानह  : जिनका कोई आकार न हो।
98 वासुदेव  : सभी जगह विद्यमान रहने वाले।
99 विष्णु  : भगवान विष्णु के स्वरूप।
100 विश्वदक्शिनह : निपुण और कुशल।
101 विश्वकर्मा  : ब्रह्मांड के निर्माता
102 विश्वमूर्ति : पूरे ब्रह्मांड का रूप।
103 विश्वरुपा  : ब्रह्मांड- हित के लिए रूप धारण करने वाले।
104 विश्वात्मा  : ब्रह्मांड की आत्मा।
105 वृषपर्व  : धर्म के भगवान।
106 यदवेंद्रा  : यादव वंश के मुखिया।
107 योगि  : प्रमुख गुरु।
108 योगिनाम्पति : योगियों के स्वामी।


। कृष्ण आरती

आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥
गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला।

श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला।
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली;भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक,
चंद्र सी झलक;ललित छवि श्यामा प्यारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं ।
गगन सों सुमन रासि बरसै;बजे मुरचंग, मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग;अतुल रति गोप कुमारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा ।
स्मरन ते होत मोह भंगा;बसी सिव सीस, जटा के बीच,
हरै अघ कीच;चरन छवि श्रीबनवारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही वृंदावन बेनू ।
चहुं दिसि गोपि ग्वाल धेनू;हंसत मृदु मंद,चांदनी चंद,
कटत भव फंद;टेर सुन दीन भिखारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की



Ruchi Sehgal

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